अल्फ्रडे थियेट्रिकल कंपनी १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक कलकत्ता के व्यवसायी और उच्चाधिकारी वर्ग में नाटक और रंगमंच प्राय: अंग्रेजों द्वारा प्रश्रय पाता रहा और समाज के विशिष्ट वर्ग का ही मनोरंजन करता रहा। सर्वप्रथम बंबई के कुछ फारसी व्यवसायियों ने यह अनुभव किया कि धन और यश कमाने का यह भी एक बहुत अच्छा साधन है। कला की बात उनके सामने विशेष नहीं थी, जनसाधारण का येनकेनप्रकारेण, संभव असंभव दृश्य दिखलाकर और प्राय: अनुदात्त भावनाएँ जगाकर मनोरंजन करना उनका उद्देश्य था। ये कंपनियाँ देश भर का दौरा करती थीं और सिनेमा का प्रचलन न होने के कारण इनके प्रदर्शनों में जनता खूब रस लेती थी। रंगमंच और अभिनय को निश्चित कला के रूप में ग्रहण करने का आंदोलन बहुत बाद में चला।
पारसी व्यवसायियों ने सन् १८०० ई. में ही इस ओर पहल की और सन् १८७१ ई. में बंबई में कावस जी पालन जी खटाऊ, माणिक जी जीवन जी मास्टर तथा मुहम्मद अली की भागीदारी में अल्फ्रडे थियेट्रिकल कंपनी की स्थापना हुई। बाद में जीवन जी मास्टर और मुहम्मद अली ने अपनी अलग 'न्यू अल्फ्रडे' कंपनी बनाई। मूल अल्फ्रडे के निर्देशक थे श्री अमृत केशव नायक जिनके निर्देशनकौशल तथा भाषा (हिंदी) ज्ञान के कायल तत्कालीन प्रसिद्ध नाटककार आगा हश्र कश्मीरी भी थे। श्री नायक ने वाराणसीस्थ नागरी नाट्यकला प्रवर्तन मंडली को भी भारतेंदु के नाटकों के निर्देशन में सहयोग दिया था। बंबई में अर्ल्फ्रडे कंपनी ने अपने नाटकों के प्रदर्शन के लिए स्थायी रंगभवन का भी निर्माण कराया था।
कलकत्ता के मदन थियेटर्स ने बाद में अल्फ्रडे कंपनी को खरीद लिया था और १९२७ से १९३२ की अवधि में इस कंपनी ने आगाहश्र लिखित 'आँख का नशा', 'दिल की प्यास' और नारायणप्रसाद 'बेताब' के 'कृष्ण सुदामा'नाटकों का अत्यंत सफल प्रदर्शन किया। अल्फ्रडे कंपनी का भारत के व्यावसायिक रंगमंच के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।
(स.)