अली (अबू तालिब के पुत्र) पैगंबर मुहम्मद के चचेरे भाई और उनकी पुत्री फ़ातिमा के पति। सुन्नी मुसलमानों के चौथे पवित्र खलीफ़ा। विरोधियों को संदेह न हो, इसलिए पैगंबर के मदीना प्रस्थान (हिज़रत) के समय अली को घर पर छोड़ दिया गया था। पैंगंबर के शासनकाल में अली का आचरण अत्यंत उदात्त रहा, इस तथ्य पर सभी विद्वान् सहमत हैं। बद्र ओहोद तथा अलखंदक की लड़ाइयों में उनका युद्धलाघव असाधारण था। पैगंबर ने फद्राक की ओर कूच करते समय अली को मदीना का शासक नियुक्त कर दिया। अली ने यमन पर भी सफल आक्रमण किया (६३१-६३२)।

अली के पहले दो खलीफ़ाओं (अबू बक्र और उमर) से मैत्रीपूर्ण संबंध थे। उमर ने मृत्यु से पूर्व अपने उत्तराधिकारी (खलीफ़ा) का निर्वाचन छह निर्वाचकों पर छोड़ा था। उन्होंने उस्मान को खलीफ़ा निर्वाचित किया। इसमें अली की भी सहमति थी (६४४)। सन् ६५६ ई. में कूफ़ा, बसरा तथा फुस्तान (मिस्र) के विद्रोहियों ने अली के प्रयत्नों को विफल कर उस्मान की हत्या कर दी।

विद्रोहियों ने मदीना छोड़ने के पूर्व यह माँग की कि मदीना की जनता एक खलीफ़ा निर्वाचित करे। अली ने काफी पसोपेश के बाद इस पद को ग्रहण किया। सीरिया के प्रशासक मुआविया के अतिरिक्त समस्त मुसलमान जगत् ने उन्हें खलीफ़ा स्वीकार किया। किंतु अली की वास्तविक कठिनाई उनके अनुयायियों का पिछड़ापन थी। पैगंबर के दो साथी (सहाबा) तलहा और ज़ुबैर, जिन्होंने पहले अली को खलीफ़ा स्वीकार कर लिया था, पैगंबर की पत्नी आयशा के साथ बसरा पहुँचे और उस्मान के घातकों को दंड देने की माँग की। विवश होकर अली ने बसरा के निकट 'ऊंटो की लड़ाई ' में उन्हें परास्त किया।

कूफा में अपनी राजधानी स्थापित करने के बाद सीरिया को कूच किया। सिफ़िन में सेनाओं की मुठभेड़ हुई और ११० दिनों तक युद्ध और कलह चलता रहा (जून-अगस्त, ६५७)। अंत में झगड़े को पंचायत से सुलझाने का निश्चय हुआ। अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशीरी को मुआविया के प्रतिनिधि मिस्रविजयी अम्र-इब्नुल-आस ने धोखा दिया। फलस्वरूप अबू मूसा ने अली और मुआविया दोनों की सत्ताओं को जनसाधारण के सम्मुख अस्वीकार कर दिया, किंतु अम्र ने उसके पश्चात् अपनी वक्तृता में अली में अविश्वास तथा मुआविया के प्रति अपने विश्वास की घोषणा की। अम्र की सूझ के द्वारा मुआविया की रक्षा हुई और पुरस्कारस्वरूप मुआविया ने अम्र को मिस्रविजय करने में सहायता दी। अली के कुछ अत्यंत अंधविश्वासी 'खरिजी' नामधारी मुसलमान अनुयायी, जो पृथ्वी पर ईश्वरीय राज्य चाहते थे, नहरवान में एकत्र हुए और अली की विचारविनिमय की चेष्टा के विपरीत उनमें से १,८०० ने लड़कर प्राण देने का ही निर्णय किया।

सन् ६६० में अली ने मुआविया से पारस्परिक राज्यसीमाओं की सुरक्षा के लिए एक संधि की। उधर मुआविया ने अपने को खलीफ़ा घोषित कर दिया। अली इसके लिए उसपर आक्रमण करना चाहते थे, किंतु तभी इब्ने मुलजम नामक खारिजी ने उनकी हत्या कर दी। (जून २४ ६६१)।

मुसलमानों में हज़रत अली के महत्व के संबंध में बड़ा मतभेद है। अस्ना अक्षरीशिया उन्हें एकमात्र न्यायसंगत खलीफ़ा, पैगंबर के पश्चात् सबसे बड़ा मुसलमान तथा इस्लाम के बारह महान् नेताओं में प्रथम मानते हैं। इस्माइली शियाओं के अनुसार अली अवतार तथा इमामों के पूर्वज हैं जो कुरान के नियमों में संशोधन और परिवर्तन भी कर सकते हैं। (मु.ह.)