अलसी या तीसी
को संस्कृत भारतवर्ष
में होती है। लाल,
श्वेत तथा धूसर
रंग के भेद से
इसकी तीन उपजातियाँ
हैं इसके पौधे
दो या ढाई फुट
ऊँचे, डालियां
बंधती हैं, जिनमें
बीज रहता है।
इन बीजों से तेल
निकलता है, जिसमें
यह गुण होता
है कि वायु के
संपर्क में रहने
के कुछ समय में
यह ठोस अवस्था
में परिवर्तित
हो जाता है।
विशेषकर जब
इसे विशेष रासायनिक
पदार्थो के साथ
उबला दिया जाता
है। तब यह क्रिया
बहुत शीघ्र पूरी
होती है। इसी
कारण अलसी का
तेल रंग, वारनिश,
और छापने की
स्याही बनाने
के काम आता है।
इस पौधे के एँठलों
से एक प्रकार का
रेशा प्राप्त होता
है जिसको निरंगकर
लिनेन (एक प्रकार
का कपड़ा) बनाया
जाता है। तेल
निकालने के बाद
बची हुई सीठी
को खली कहते
हैं जो गाय तथा
भैंस को बड़ी प्रिय
होती है। इससे
बहुधा पुल्टिस
बनाई जाती है।
आयुर्वेद में अलसी को मंदगंधयुक्त, मधुर, बलकारक, किंचित कफवात-कारक, पित्तनाशक, स्निग्ध, पचने में भारी, गरम, पौष्टिक, कामोद्दीपक, पीठ के दर्द ओर सूजन को मिटानेवाली कहा गया है। गरम पानी में डालकर केवल बीजों का या इसके साथ एक तिहाई भाग मुलेठी का चूर्ण मिलाकर, क्वाथ (काढ़ा) बनाया जाता है, जो रक्तातिसार और मूत्र संबंधी में उपयोगी कहा गया है। (भ.दा.व.)