अर्श अथवा बवासीर (अंग्रेजी में हेमोरॉयड अथवा पाइल्स) एक रोग है जिसमें मलाशय की शिरा गुदा के अंत में या गुदा के भीतर फूल जाती है और विवर्ण हो जाती है। इसमें पीड़ा होती है और कभी-कभी रुधिर बहता है। यदि मलद्वार पर या उससे बाहर की शिराएँ फूल जाती हैं तो यह बाह्य अर्श कहलाता है और मलद्वार के बाहर फूले-फूले पिंड दिखाई पड़ते हैं। गुदा के भीतर शिरा के फूलने पर फूले पिंड से दिखाई पड़ते हैं। गुदा के भीतर शिरा के फूलने पर फूले पिंड आंतरिक अर्श कहे जाते हैं। परीक्षा करने पर ये टटोले जा सकते हैं या गुददर्शक (प्रोक्टॉस्कोप) द्वारा देखे जा सकते हैं।

यहाँ की शिराओं में विशेषता यह होती है कि वे मलाशय की लंबाई की दिशा में मलाशय के समांतर स्थित होती हैं। इनमें कपाटिकाएँ (वाल्व ) नहीं होतीं। इस कारण ऊपर से दबाव पड़ने पर उनके अंतिम भाग फूल जाते हैं और बहुधा यह दशा चिरस्थायी सी हो जाती है। अतएव कोष्ठबद्धता (कब्ज़) तथा यकृत के विकारों के कारण इनमें रक्त जमा होने लगता है और कुछ समय में अर्श बन जाते हैं, जिनको मस्सा भी कहा जाता है। आंतरिक अर्श भी दो प्रकार के होते हैं। एक को खूनी कहा जाता है, जिसमें समय-समय पर रक्त निकला करता है। दूसरा बादी कहलाता है। इसके मसे अधिक फूले हुए होते हैं।

अर्श बहुत बार दूरस्थ रोग के लक्षण हाते हैं। चिकित्सा में इसका विचार करना आवश्यक है। चालीस साल से ऊपर की आयु में वे कैंसर के द्योतक हो सकते हैं। उच्च रुधिरचाप (हाई ब्लड प्रेशर) में वे समय-समय पर रक्त को निकालकर रोगी की रक्षा के हेतु होते हैं। रोग का निश्चय करते समय गुदा से रक्तप्रवाह के अन्य कारणों पर विचार कर लेना आवश्यक है।

सामान्य दशाओं में कारण को दूर करके औषधोपचार से चिकित्सा की जा सकती है। इंजेक्शन विधि में बादाम के तेल में ५० प्रतिशत फिनोल द्रव का योग प्रत्येक अर्श में प्रति सप्ताह इंजेक्शन से तब तक दिया जाता है जब तक वे सूख नहीं जाते। शस्त्र-चिकित्सा विधि में प्रत्येक अर्श का बंधन और छेदन किया जाता है। (मु.स्व.व.)