अर्धनारीश्वर शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप का सृष्टिप्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रतीकात्मक स्वरूप की व्यंजना स्पष्ट है। इसका मूल वैदिक भाव यह था कि यह जो द्यावा पृथ्वी लोकों की मध्यवर्ती सृष्टि है वह माता-पिता, योषा-वृषा-प्राण है, अग्नि सोम, पुरुष स्त्री, पति पत्नी के द्वंद्व से ही उत्पन्न होती है। प्रजापति आरंभ में एक था। उसके मन में सृष्टि की इच्छा हुई तब उसने अपने शरीर के दो खंड करके आधे में पुरुष और आधे में स्त्रीभाव का निर्माण किया :
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत्।
अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभु:।।
सृष्टि के लिए पुरुषत्व और स्त्रीतत्व दोनों के मैथुनधर्म की आवश्यकता है। वृक्ष वनस्पति के प्रत्येक पुष्प में तथा कीट, पंतग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि में जहाँ तक प्राणसमन्वित भूतसृष्टि का विस्तार है वहाँ तक पिता द्वारा माता के गर्भधारण से प्रजा की उत्पत्ति हाती है। सृष्टि के इस आदिभूत मातृतत्व और पितृतत्व को ही पुराणों की प्रतीक भाषा में पार्वतीपरमेश्वर कहा जाता है। ये ही शिव पार्वती हैं। वैदिक साहित्य के अनुसार शिव पार्वती रुद्र और अंबिका हैं-अग्निर्वै रुद्र: (शतपथ ५।३।१।१०); एष: रुद्र: यदग्नि: (तैत्तिरीय १।१।५।८-९)। जहाँ अग्नि है उसी का अंशभूत सोम है। सोम अग्नि का, उसके अधीन रहनेवाला सखा है (अग्सिनर्जागार्ततमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका:, ऋग्वेद ५।४४।१५)। अग्नि अन्नाद कहलाता है और सोम उसका अन्नरूप में संभरण करता है। अग्नि और सोम ही विश्व के मूलभूत माता-पिता हैं। वेद की कल्पना है कि प्रत्येक केंद्र में जहाँ-जहाँ अग्नि है, वहीं-वहीं आधा भाग सोम का भी है। पुरुष में अग्नितत्व प्रधान और स्त्री में सोम प्रधान होता है, किंतु जो स्त्री है उसके अभ्यंतर में अर्धभाग पुरुष का विद्यमान रहता है। इसी के लिए ऋग्वेद में कहा है स्त्रिय: सतीस्वा उ मे पुंस आहु: (ऋग्वेद १।१६४।१६)। स्त्री का शोणित आग्नेय और पुरुष का शुक्र सौम्य भाव से युक्त रहत है।शुक्र और शोणित ही विज्ञान की भाषा में वृषा और योषा या नर और मादा कहे जाते हैं।
पुरुष द्वारा नारी में जो बीजवपन होता है उस आहित गर्भ सृूष्टि को वैज्ञानिक भाषा में विराज कहा जाता है। उत्पन्न होनेवाली प्रत्येक प्रजा विराट् का ही रूप है। अग्नि में सोम का समन्वय पारस्परिक अंतर्याम संबंध से निष्पझ होता है। अर्थात् अग्नि लक्षणांतर सोम लक्षण नारी को गर्भित करता है। नारी उस अग्निकण को अपने गर्भ में लेकर अपनी मात्रा से उसका संवर्धन करती है और उसी से वह बीज विराट्भाव प्राप्त करता है। उसी की संज्ञा प्रजा होती है। जो बीज की शक्ति के अनुसार मात्रा का आधान करती है वही माता है। पिता और माता शिव और शक्ति के ही रूप हैं। शक्ति के बिना शिव का स्वरूप घोर होता है और शक्ति के साथ वही शिव कहा जाता है। अर्थात् जिस अग्नि को सोमरूपी अन्न प्राप्त नहीं होता वह जिस वस्तु में रहती है उसी को भस्म कर डालती है। अग्नि में सोम की आहुति ही योग है। यज्ञ का स्वस्तिभाव शिव और शक्ति या अग्नि और सोम के समन्वय पर ही निर्भर है। यह समन्वित रूप ही शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप है। इस प्राचीन वैदिक भाव को पुराणों में अर्धनारीश्वर शिव के प्रतीक द्वारा प्रकट किया गया। कथा है कि ब्रह्म ने सृष्टि करनी चाही। केवल पुरुषाभाव से उन्हें सफलता नहीं मिली। तब उन्होंने शिव की आराधना की। शिव ने उन्हें अर्धनारीश्वर रूप में दर्शन दिया और तब ब्रह्म को सृष्टिविधान की ठीक युक्ति ज्ञात हुई। अर्थात् स्त्री और पुरुष का समन्वय ही सृष्टि की सच्ची विधि है।
भारतीय कला में शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप की अनेक मूतियां प्राप्त होती हैं। ऐलोरा के कैलासमंदिर में अर्धनारीश्वर शिव की प्रभावशाली मूर्ति है। किंतु इन सबमें प्राचीनतम मूर्ति मथुरा की कुषाणकालीन कला में प्रथम शती ई. के लगभग निर्मित हुई। इस मूर्ति का आधा भाग पुरुष जैसा है और वामार्ध भाग स्त्री के व्यंजनों से युक्त है।
सं.ग्रं.-गोपीनाथ राव : भारतीय मूर्तिशास्त्र, मद्रास १९१४-१५, भाग २, पृ. ३२१-३२; अंशुमध्येदागम, ६९ पटल; उत्तर कामिकागम, ९० पटल; शिल्परत्न, २२ पटल। (वा.श.अ.)