अर्थशास्त्र, कौटिलीय यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसका पूरा नाम 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' है। लेखक का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से व्युत्पत्र) और स्थानीय नाम चाणक्य (तक्षशिला के पास चणक नामक स्थान का रहनेवाला) था। अर्थशास्त्र (१५.४३१) में लेखक का स्पष्ट कथन है: ''इस ग्रंथ की रचना उन आचार्य ने की जिन्होंने अन्याय तथा कुशासन से क्रुद्ध होकर नांदों के हाथ में गए हुए शास्त्र, शास्त्र एवं पृथ्वी का शीघ्रता से उद्धार किया था।'' चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (३२१-२९८ ई.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यत: सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। ''यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है।'' (अर्थशास्त्र, १५.६) यद्यपि कतिपय प्राचीन लेखकों ने अपने ग्रंथों में अर्थशास्त्र से अवतरण दिए हैं और कौटिल्य का उल्लेख किया है, तथापि यह ग्रंथ लुप्त हो चुका था। १९०४ ई. में तंजोर के एक पंडित ने भट्टस्वामी के अपूर्ण भाष्य के साथ अर्र्थशास्त्र का हस्तलेख मैसूर राज्य पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री आर. शाम शास्त्री को दिया। श्री शास्त्री ने पहले इसका अंशत: अंग्रेजी भाषांतर १९०५ ई. में 'इंडियन ऐंटिक्वेरी' तथा 'मैसूर रिव्यू' (१९०६-१९०९) में प्रकाशित किया। इसके पश्चात् इस ग्रंथ के दो हस्तलेख म्यूनिख लाइब्रेरी में प्राप्त हुए और एक संभवत: कलकत्ता में। तदनंतर शाम शास्त्री, गणपति शास्त्री, यदुवीर शास्त्री आदि द्वारा अर्थशास्त्र के कई संस्करण प्रकाशित हुए। शाम शास्त्री द्वारा अंग्रेजी भाषांतर का चतुर्थ संस्करण (१९२९ ई.) प्रामाणिक माना जाता है।

ग्रंथ के अंत में दिए चाणक्यसूत्र (१५.१) में अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार हुई है : ''मनुष्यों की वृत्ति को अर्थ कहते हैं। मनुष्यों से संयुक्त भूमि ही अर्थ है। उसकी प्राप्ति तथा पालन के उपायों की विवेचना करनेवाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं। इसके मुख्य विभाग हैं : (१) विनयाधिकरण, (२) अध्यक्षप्रचार, (३) धर्मस्थीयाधिकरण, (४) कंटकशोधन, (५) वृत्ताधिकरण, (६) योन्यधिकरण, (७) षाड्गुण्य, (८) व्यसनाधिकरण, (९) अभियास्यत्कर्माधिकरणा, (१०) संग्रामाधिकरण, (११) संघवृत्ताधिकरण, (१२) आबलीयसाधिकरण, (१३) दुर्गलम्भोपायाधिकरण, (१४) औपनिषदिकाधिकरण और (१५) तंत्रयुक्त्यधिकरण। इन अधिकरणों के अनेक उपविभाग (१५ अधिकरण, १५० अध्याय, १८० उपविभाग तथा ६,००० श्लोक) हैं। अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है।'' इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, १५.४३१)।

इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., १९१८), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ. जॉली, प्रो.ए.बी. कीथ (ज.रा.ए.सी.) आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं। अन्य भारतीय विद्वानों में डा. नरेंद्रनाथ ला (स्टडीज इन ऐंशेंट हिंदू पॉलिटी, १९१४), श्री प्रमथनाथ बनर्जी (पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन इन ऐंशेंट इंडिया), डा. काशीप्रसाद जाएसवाल (हिंदू पॉलिटी), प्रो. विनयकुमार सरकार (दि पाज़िटिव बैकग्राउंड ऑव् हिंदू सोशियोलॉजी), प्रो. नारायणचंद्र वंधोपाध्याय, डा. प्राणनाथ विद्यालंकांर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

सं.ग्रं.-वेबर : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर (ट्रबनर), पृ. २१०; आर. शाम शास्त्री : कौटिल्य अर्थशास्त्र (अंग्रेजी भाषांतर), चतुर्थ संस्करण, मैसूर, १९२९; डॉ. जॉली : अर्थशास्त्र ऐंड धर्मशास्त्र (ज़ेड.डी.एम.जी., १९१३, पृ. ४९-९६)। (रा.ब.पां.)