अर्जुनदेव (गुरु) सिक्ख संप्रदाय के दस गुरुओं में पांचवें गुरु हैं। इनका जन्म गोइंदवाल में १५६३ई. में हुआ। इनके पिता चतुर्थ गुरु श्री रामदास एवं माता भानीदेवी थीं। गुरु रामदास ने इनकी योग्यता तथा प्रतिभा से प्रभावित हो इन्हें ही अपनी गुरु गद्दी का उत्तराधिकारी बनाया, हालाँकि इनके और भी दो बड़े भाई थे।

सिक्ख गुरुओं में गुरु अर्जुनदेव का स्थान पर्याप्त महत्वपूर्ण है। पूर्ववर्ती चार गुरुओं ने आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते हुए अमित सेवाकार्य किया, किंतु गुरु अर्जुनदेव ने इससे आगे बढ़कर बलिदान और कष्टसहन की परंपरा प्रवर्तित की। साथ ही अपने पिता द्वारा प्रारंभ किए अमृतसर नगर के निमार्णकार्य को भी इन्होंने आगे बढ़ाया। वहाँ अमृतसरोवर का निर्माण करवाकर उसके अंदर एक हरिमंदिर भी बनवाया जिसकी आधारशिला एक सूफी संत मियाँ मीर के द्वारा रखवाई। अमृतसर के समीप 'तरन तारन' नाम का एक और नगर इन्होंने ही बसाया और इसमें भी एक तालाब और उसके बीचोंबीच एक गुरुदारा बनवाया। सार्वजनिक सुविधा के लिए इन्होंने इधर उधर वापी, कूपों का निर्माण भी कराया। 'ग्रंथ साहब' के आजकल प्राप्य संस्करण का संपादन भी इन्होंने ही किया और इसमें गुरु नानक से रामदास तक के चार गुरुओं की बानी के साथ साथ तत्कालीन अन्यान्य प्रसिद्ध संत महात्माओं के उपदेशों तथा शब्दों को भी संकलित किया। गुरु नानक के नाम से प्रचलित अनेक जाली रचनाओं को छाँट छाँटकर इन्होंने 'ग्रंथ साहब' को प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत किया। ग्रंथ साहब में इनके लगभग २,००० शब्द संकलित हैं। इनके 'सुषमन पाठ' को सिक्ख संप्रदाय में नित्यपाठ का गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। मुगल सम्राट् अकबर इनका बहुत सम्मान करता था किंतु जहाँगीर इनके बढ़ते हुए प्रभाव और प्रसिद्धि को सहन न कर सका। अवसर देखकर, उसने अपने विद्रोही पुत्र खुसरो से मिल जाने का आरोप इनपर लगाया और इन्हें बंदी बना लिया। बंदी काल में इन्हें अनेक प्रकार के असहय् कष्ट और यंत्रणाएँ दी गईं जिन्हें इन्होंने हँसते हुए सहन किया और सन् १६०६ ई. में ४३ वर्ष की अवस्था में रावी तट पर अपनी जीवनलीला संवरण की। (प्रे.ना.शु.)