अर्जुन
२. एक वृक्ष है जिसका
नाम संस्कृत तथा
बंगला में भी
यही है। संस्कृत
में अर्जुन शब्द का
अर्थ श्वेत है। इसके
वृक्ष जंगलों
में ६० से ८० फुट तक
ऊँचे , नदियों
के किनारे, दक्षिण
भारत से अवध
तक तथा ब्रह्मदेश
और लंका में
भी पाए जाते हैं।
इसके पत्ते पाँच
अंगुल तक चौंड़े
और एक बित्ता
तक लंबे होते
हैं तथा इनके पीछे
दो गाँठें सी
होती हैं। इन पत्तों
को टसर के कीड़ों
को खिलाया जाता
है। फूल बहुत
छोटे और हरी
झाँई लिए श्वेत
होते हैं। इसका
गोंद श्वेत होता
है और खाने
तथा औषधि के
काम आता है। परंतु
इसकी छाल ही विशेष
गुणकारी कही
गई है।
छाल में लगभग १५ प्रतिशत टैनिन होता है। आयुर्वेदिक चिक्तिसा में इसके क्वाथ से नासूर तथा जला हुआ स्थान धोने का ओर हृदयरोग में दूध के साथ पिलाने का विधात है। छाल का चूर्ण दूध और राब के साथ अस्थिभंग में और चोट से विस्तृत नील पड़ जाने पर खिलाया जाता है।
आयुर्वेद में अर्जुन को कसैला, गरम, कफनाशक, ब्रणाशौधक, पित्त, श्रम और तृषा निवारक तथा मूत्रकृच्छ्र रोग में हितकारी कहा गया है। प्राय: सब आयुर्वेदशास्त्रियों ने इसे हृदयरोग में लाभकारी माना है।
अर्जन की लकड़ी से नाव, गाड़ी खेती के औजार, इत्यादि बनते हैं, और छाल रंगने के काम में आती है। (भ.दा.व.)