अर्जुन १. महाभारत के वीर। उस परंपरा के अनुसार महाराज पांडु की ज्येष्ठ पत्नी, और वासुदेव कृष्ण की बूआ कुंती के, इंद्र से उत्पन्न तृतीय पुत्र अर्जुन थे। कुंती का दूसरा नाम 'पृथा' था जिससे ये 'पार्थ' के नाम से भी अभिहित किए जाते थे। पांडु के पाँचों पुत्रों में अर्जुन के समान धनुर्धारी तथा वीर दूसरा नहीं था। ये अपना गांडीव धनुष बाएँ हाथ से भी चलाया करते थे, इससे इनका नाम 'सव्यसाची' भी पड़ गया। द्रोणाचार्य अस्त्रविद्या में इनके प्रख्यात आचार्य थे जिनसे धुनर्विद्या सीखकर इन्होंने महाभारत में वर्णित द्रौपदीस्वयंवर के समय अपना अद्भूत शस्त्रकौशल दिखलाया और द्रौपदी को जीता। महाभारत में उनके द्वारा भारत के उत्तरीय प्रदेशों की दिग्विजय तथा अतुल संपति की प्राप्ति का वर्णन है। इसी से संभवत: इनका नाम 'धनंजय' प्रसिद्ध हुआ। शकुनि द्वारा कूटद्यूत में पराजित होने पर अपने भाइयों के साथ इन्होंने भी द्वैतवन में वास किया और एक साल का अज्ञातवास विराटनगर में बिताया। विराटनगर में बृहन्नला नाम से उन्होंने राज कुमारी उत्तरा को नृत्यकला की शिक्षा दी। अस्त्रविद्या के साथ ललित कला का ज्ञान इनके व्यापक व्यक्तित्व का परिचायक है। कृष्ण की बहन सुभद्रा का इन्होंने हरण कर उससे विवाह किया जिससे इन्हें 'अभिमन्यु' नामक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ।

महाभारत युद्ध के आरंभ में कुरुक्षेत्र के मैदान में एकत्र हुए अपने सगे-संबंधियों को देखकर इन्हें युद्ध से विरक्ति हो गई थीं और तब वासुदेव कृष्ण ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' का उपदेश देकर इनका व्यामोह दूर किया था। अंग देश का राजा तथा दुर्योधन का परम सुहृद् पराक्रमी कर्ण इनका प्रधान प्रतिद्वंद्वी था जिसे मारकर इन्होंने विजय प्राप्त की। भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य आदि प्रख्यात वीरों के ऊपर विजय पाना अर्जुन की असाधारण वीरता, अदम्य उत्साह तथा विलक्षण अस्तचातुर्य का परिचायक था। ये श्रीकृष्ण के घनिष्ठ सखा तथा संबंधी थे। उनके स्वर्गवासी होने पर भी ये जीवित थे तथा यादवों की स्त्रियों को जब ये द्वारिका पहुँचा रहे थे, तब आभीरों ने रास्ते में ही इन्हें लूट लिया (भागवत, प्रथम स्कंध, ५ अ.)। महाभारत युद्ध के अनंतर अपने पौत्र परीक्षित को राज्य सौंप अपने भाइयों के साथ ये हिमालय में गलने के लिए चले गए। (ब.उ.)