अरस्तू ३२३ ई.पू. में चंद्रगुप्त मौर्य राजसिंहासन पर बैठा। इसी साल जगद्विजेता सिंकदर की मृत्यु हुई। इसके एक साल बाद सिकंदर के गुरु अरस्तू ने शरीर त्यागा। उस समय अरस्तू की उमर ६२ साल की थी।

अरस्तू ने ३८४ ई.पू. में यूनान के उत्तर पूर्वी प्रायद्वीप कैल्सीदिसि (खल्किदिकि) के शहर स्तैजाईरा में जन्म लिया। उसके पिता का नाम नाईकोमेकस था जो वैद्य था। वह मक़दूनिया के बादशाह अमिंतास के दरबार में रहता था। अरस्तु का बचपन वैद्यक के वातावरण में बीता। और संभव है, अरस्तु को जो जीवनशास्त्र से लगाव था, वह इन्हीं संस्कारों का फल हो। अरस्तू १८ बरस का था जब वह एथैंस आया ओर अफ़्लातून (प्लेटो ) का शिष्य बना। उसने बीस बरस अपने गुरु के साथ बिताए और जब ३४७ ई.पू. में अफ़्लातून का देहांत हुआ तो अरस्तू ने एथेंस छोड़ा। फिर तीन बरस वह अपने सहपाठी हर्मियस के पास रहा जो एशिया के समुद्र के किनारे एक छोटे से राज (एतार्नियस) का मालिक था। वहीं अरस्तू ने हर्मियस की भतीजी से ब्याह कर लिया। यहाँ से वह लेज़बोस द्वीप गया और मितिलीन नगर में रहा। इन स्थानों में जीवनशास्त्र के अध्ययन और समुद्री जंतुओं की देखभाल का उसे अच्छा अवसर मिला। इन निरीक्षणों के नतीजों पर बाद की पुस्तकों का आधार रखा है।

३४३ ई.पू. में मक़दूनिया के बादशाह फ़िलिप ने अरस्तू को अपने बेटे का शिक्षक नियुक्त किया और सात साल मक़दूनिया में रहने के बाद, जब फ़िलिप की मौत हो गई और सिकंदर ने राजपाट सँभाला तब अरस्तू दोबारा एथेंस आया। यहाँ उसने पठन-पाठन का काम शुरु किया। एक बाग खरीदा जिसमें अपोलो देवता का स्थान था और जिसे लाईसीयम कहते थे। यहाँ उसने हस्तलिखित ग्रंथों का पुस्तकालय बनाया और एक संग्रहालय स्थापित किया। इसके बनाने में सिकंदर ने रुपए-पैसे से उसकी मदद की और जंतुओं के नमूने एकत्र कराकर भेजे।

अरस्तू का बारह बरस तक पढ़ाने और किताबें लिखने का काम चलता रहा। पर ३२३ ई.पू. में सिकंदर के मरने पर अरस्तू को एथेंस छोड़ना पड़ा। एथेंसनिवासी मक़दूनिया की अधीनता से खुश नहीं थे और अरस्तू का मक़दूनिया से गहरा संबंध था। इसलिए डर था कि कहीं लोग उसके विरुद्ध उपद्रव न करें। उसने भागकर यूबो आद्वीप में शरण ली, पर एक ही साल में उसका देहाँत हो गया।

अरस्तू ने अध्ययन और अध्यापन के समय बहुत सी पुस्तकें लिखीं। इन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा जाता है। पहली श्रेणी में वे पुस्तकें हैं जिन्हें उसने साधारण जनता के लिए लिखा था, दूसरी में वे हैं जिनमें वैज्ञानिक ग्रंथों की सामग्री संगृहीत है और तीसरी श्रेणी में वे वैज्ञानिक ग्रंथ हैं जिनमें विविध शास्त्रों के सिद्धांतों का विवरण है। पहली श्रेणी की सब पुस्तकें नष्ट हो गई, दूसरी में केवल एक बची है जिसमें यूनान के विधानों का संकलन है। तीसरी श्रेणी की पुस्तकों के नामों की कई पुरानी तालिकाएँ मिलती हैं। इन तालिकाओं और उन पुस्तकों में, जो अरस्तू की लिखी मानी जाती हैं, भेद है। बात यह है कि दो सौ बरस तक किसी ने इनको लाइसीयम की चारदीवारी के बाहर नहीं निकाला। फिर ई.पू. पहली सदी में एँड्रौनिकलस नाम के विद्वान् ने इन्हें प्रकाशित किया। इसी से इन ग्रंथों की गिनती और लेखक के बारे में मतभेद है।

प्रामाणिक पुस्तकों को छह या आठ भागों में बाँटा जाता है जिनका ब्योरा इस प्रकार है :

१. लौजिक अर्थात् तर्कशास्त्र, २. फ़िज़िक्स अर्थात् भौतिकविज्ञान, ३. बायोलोजी अर्थात् प्राणिविज्ञान, ४. साईकोलॉजी अर्थात् मनोविज्ञान, ५. मेटाफ़िज़िक्स अर्थात् परमतत्वशास्त्र, दर्शनशास्त्र, ६. एथिक्स अर्थात् नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, ७. पॉलिटिक्स अर्थात् राजनीतिशास्त्र, शासनशास्त्र, ८. ईस्थेटिक्स अर्थात् सौंदर्यशास्त्र, रस या कलाशास्त्र।

यदि २, ३, और ४ विषयों को एक विज्ञान के भाग मान लें तो छह विभाग रह जाते हैं। इस तालिका से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अरस्तू के ज्ञान की परिधि कितनी विस्तृत थी। प्राय: सभी विज्ञानों पर उसका अधिकार था। पर अरस्तू की विशेषता यही नहीं है कि वह उक्त सभी विद्याओं को जाननेवाला था। इससे बढ़कर दो और विशेषताएँ हैं : एक यह है कि वह मार्गदर्शक और आविष्कारक था, और दूसरी यह कि वह सब विद्याओं को एक सूत्र में बाँधनेवाला उच्चतम कोटि का दार्शनिक था।

चौथी सदी ई.पू. अरस्तू की जीवनयात्रा का काल है। यह गहरी क्रांति का समय था। जो सामाजिक व्यवस्था ४०० बर्षों से विकसित होती चली आ रही थी, जिसने वैभव के उँचे शिखर पर पहुँचकर अपनी अनुपम कृतियाँ से जगत् को चकित कर दिया था, जिसकी नीति, कलाकौशल, साहित्य, इतिहास और विज्ञान ने आदमी के माथे पर ऐसा ठप्पा लगाया था कि आज ढाई हज़ार बर्ष बीतने पर भी उसकी छाप मिटी नहीं, वह व्यवस्था तेजी के साथ छिन्न-भिन्न हो रही थी। इस व्यवस्था की विशेषता यह थी कि समाज और नगर का एक ही अर्थ था। समाज से अभिप्राय वह जनसमूह था जो एक खास नगर में निवास करता हो। समाज के सदस्य एक नगर के रहनेवाले ही हो सकते थे। जो जन नगर से बाहर थे वे समाज से बाहर थे। नगर के समाज की नींव पर नगर के राज संगठित होते थे। इस राज के कामों में, इसकी विधानसभा में, इसके कर्मचारियों में, नगर के नागरिक ही हिस्सा ले सकते थे। हर नागरिक के अपने नगरराज के प्रति कर्तव्य और अधिकार थे।

इस व्यवस्था की अधोगति से प्रभावित हो यूनान के विचारवानों के हृदय विह्वल हो रहे थे। सोचने की बात थी कि क्यों पुरानी परंपरा बदल रही थी, किन कारणों से नगरसमाज में कमजोरी आई थी, किस प्रकार इसका प्रतिरोध हो सकता था, कौन सी व्यवस्था मानवसमाज के लिए सबसे लाभकारी थी?

पहले पहल इन प्रश्नों की ओर सुकरात का ध्यान गया। वह इसी खोज में रहत था कि परमार्थ क्या है? आचरण का ध्येय क्या होना चाहिए? सच क्या है? ज्ञान क्या है? आत्मा को कैसे पहचानें? शुभ और अशुभ, सुंदर और कुरूप, गुण और अवगुण में क्या भेद है? विवेक का साधन और अंत क्या है? ज्ञान पर विवेक का आधार है इसलिए ज्ञान का मार्ग और ज्ञान की मंजिल जानने से ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है।

सुकरात के विचारों ने एथेंस में खलबली मचा दी। पुरानी रीतियों के माननेवाले, देवी-देवताओं के उपासकों, कर्मकांडियों को भय हुआ कि इन विचारों के फैलने से युवक अपने सनातन धर्म से विमुख हो जाएँगे, समाज का क्रम नष्टभ्रष्ट हो जाएगा। उन्होंने सुकरात के विरुद्ध अदालत में मुकदमा चलाया और सुकरात पर आक्षेप लगाया कि वह देवताओं का निरादर करता है और नौजवानों के चालचलन को बिगाड़ता है। जजों ने सुकरात के खिलाफ फ़ैसला सुनाया और मौत की सजा का हुक्म दिया। सुकरात ने जहर का प्याला पिया और नगर के न्याय के आगे सिर झुकाया।

सुकरात का प्रिय शिष्य था अफ़्लैंतून अर्थात् प्लेटो । इसने गुरु की शिक्षाओं को रूपकों, कथानकों और संवादों के रूप में ऐसी उत्कृष्ट सुंदरता के साथ संपादित किया कि सुकरात अमर हो गया। अफ़्लातून ने आचारनीति और राजनीति दोनों पर गहरा विचार किया और नागरिक, समाज और राज के सिद्धांतों पर अनोखा प्रकाश डाला। इन सिद्धांतों के खंडन-मंडन में उसने दर्शन के बुनियादी उसूलों पर बहस की और ज्ञान के प्रमाणों, सच और झूठ, वस्तु और भ्रम के अंतर को स्पष्ट किया।

अफ़्लातूनकी अकादमी में अरस्तू ने बीस साल अध्ययन किया और अफ़्लातून से बहुत कुछ सीखा था। अफ़्लातून से पहले यूनानी विद्वानों की दृष्टि बहिर्मुखी थी। जगत् क्या है? पंचभूत से बना यह प्रपंच, जिसे हम पांच ज्ञानेंद्रियों द्वारा अनुभव करते हैं, जैसा दीख पड़ता है वैसा ही नानाविध है या एकविध? अगर इसमें एकता है तो एकतत्व क्या है? जगत् में सब वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं; फिर इसमें क्या चीज स्थायी है? यदि सभी कुछ चल है, जंगम है, तो ज्ञान कैसे हो सकता है? बढ़ती नदी के पानी का कोई कण स्थिर नहीं रहता; फिर नदी किसका नाम है।

अफ़्लातून और अरस्तू दोनों ने इन समस्याओं पर गौर किया। दोनों ने बाहर से अंदर की तरफ देखा। जाननेवाला तत्व क्या है? जानने का क्या क्रम है, क्या वस्तु है जिसे जानते हैं, यह कैसे जानें कि जो कुछ जाना है वही तथ्य है। अफ़्लातून और अरस्तू के जवाबों में अंतर है। शिष्य होते हुए भी उसके अपने स्वतंत्र विचार थे और उसने उन्हीं का प्रचार किया। अफ़्लातून और अरस्तूने जो दो पंथ चलाए उन्हीं पर यूरोपीय दर्शन का कारवां चलता चला आ रहा है। इनसे शाखा प्रशाखाएँ अवश्य निकली हैं और नई राहें फूटी और फैली हैं, लेकिन इन दो जगद्गुरुओं के प्रभाव से सभी दार्शनिकों की विचारशैलियों ने उत्तेजन और प्रोत्साहन पाया है।

अरस्तू ने विद्याओं को तीन वर्गों में बाँटा था। पहले वर्ग में वे विद्याएँ हैं जिनका मुख्य ध्येय सिद्धांतों की स्थापना है, शुद्ध ज्ञान का उपार्जन है। दूसरे वर्ग में वे हैं जिनमें व्यवहार पर ज्यादा जोर है और जो कामों में सहायक हैं। और तीसरे वर्ग में वे विद्याएँ हैं जो उत्पादन के लिए लाभदायक हैं और जिनकी सहायता से उपयोगी और सुंदर वस्तुएँ बन सकती हैं।

पहले वर्ग में दर्शन, विज्ञान और गणित हैं। इस वर्ग में परमतत्वशास्त्र (मेटाफ़िज़िक्स), भौतिकी (फ़िज़िक्स), प्राणिशास्त्र (बायोलोजी) और मनोविज्ञान (साईकोलॉजी) सम्मिलित हैं। दूसरे वर्ग में राजनीतिशास्त्र प्रमुख है और आचारशास्त्र इसी के अंतर्गत है। तीसरे वर्ग के भाग हैं- साहित्य और कलाशास्त्र (काव्य और अलंकारशास्त्र, ईस्थेटिक्स)।

तर्कशास्त्र (लॉजिक) इनसे पृथक् है। तर्कशास्त्र को विद्याओं की विद्या कहा है। तर्क सब विद्या की कुंजी है, ज्ञान का साधन है। अरस्तू का सबसे महत्वपूर्ण कार्य तर्कशास्त्र की रचना है। अरस्तू के समय से आज तक प्राय: २,५०० वर्ष हो चुके, परंतु तर्कशास्त्र का जो ढाँचा अरस्तू ने बनाया था वहीं आज भी कायम है। बुनियादें वही हैं, कहीं-कहीं एक दो कोठे अटारियाँ बढ़ी हैं। अब कुछ दिनों से अरस्तू के तर्कशास्त्र के मुकाबले में कुछ नए तर्कशास्त्र निर्मित हुए हैं जो अरस्तू से आगे बढ़ गए हैं। पर अचरज और गौरव की बात यह है कि अरस्तू का संगठित शास्त्र इतने दिनों पंडितसमाज में सम्मान का पात्र बना रहा और आज भी शिक्षाक्रम में इसका ऊँचा मूल्य है।

अरस्तू ने तर्कशास्त्र में तीन विषयों पर विचार किया। एक, सब प्रकार की बोधविधियों (रीज़निंग) में कौन-सी चीज समान है और इन विधियों के कितने भेद हैं। अर्थात् युक्ति (सिलॉज़िज्म) के कौन-कौन से रूप हैं। तर्क की इस शाखा का संबंध केवल युक्तियों के रूप अथवा आकार से है, युक्ति के अर्थ से नहीं। इसका उद्देश्य यह देखना है कि उक्ति असंगत तो नहीं, इसके अवयवों में अनुरूपता है या नहीं। दूसरा, इस बात की जांच कि युक्ति और तथ्य में सामंजस्य है या नहीं, युक्ति ज्ञानसंपझ है अथवा नहीं। तीसरा, यह विचार करना कि यद्यपि युक्ति रूप से तो दोषरहित है तथापि वह सत्य की वाहक भी है या नहीं। उसमें मिथ्याहेतु या आभास (फैलेसीज़) तो नहीं है।

चूँंकि युक्ति का आश्रय वाक्य (प्रोपोज़ीशन) है और वाक्य पदों (टर्म्स) से मिलकर बनते हैं, तर्कशास्त्र में पहला सवाल यह उठता है कि पद और वाक्य कितने प्रकार के हैं। यहीं से पदार्थ (कैटेगरीज़) की चर्चा शुरु होती है अर्थात् भाव के हिसाब से पदों को किन गुणों में विभाजित कर सकते हैं। अरस्तू ने पदार्थों की गिनती निश्चित रूप से स्थिर नहीं की, पर उसको पुस्तकों में दस के नाम मिलते हैं। इनमें सत्य (सब्स्टैंस) मूल पदार्थ है, क्योंकि यह सबका आधार है। बाकी ये हैं:

गुण (क्वालिटी), मात्रा (क्वांटिटी), अन्वय (रिलेशन), देश (प्लेस), काल (टाइम), स्थिति (स्टेट), दशा (पोज़ीशन), कर्तृभाव (सेक्शन), कर्मभाव (पैसीविटी)।

वाक्यों के कई गुण हैं। भावसूचक (अफर्मेटिव) और अभावसूचक (निगेटिव), व्यापक (यूनिवर्सल), (अव्यापक) (नानॅ-यूनिवर्सल), और व्यक्तिगत (इंडिवीजुअल), आवश्यक (नेससरी), अनावश्यक (नाट-नेसेसरी) और शक्य (पॉसिबिल)।

वाक्य तीन अंगों के मेल से बनता है---वाचक (सब्जेक्ट), वाच्य (प्रेडीकेट) और जोड़ (कपुल)।

जब वाक्यों को क्रमानुसार रखते हैं तो युक्ति का रूप उत्पन्न होता है। युक्ति वैज्ञानिक विद्याओं का साधन है। युक्ति के द्वारा ही ठीक नतीजों पर पहुँच सकते हैं। अरस्तू ने युक्ति के तीन अवयव माने हैं। (१) प्रतिज्ञा (मेजर प्रेमिस), (२) हेतु (माइनर प्रेमिस), (३) निगमन (कंक्लूज़न)। हिंदुस्तान में गौतम के न्यायशास्त्र के अनुसार दो अवयव और हैं-उदाहरण (एक्ज़ांपुल) तथा उपनय (ऐप्लीकेशन)। (द्र. 'अनुमान' लेख)

मिथ्याहेतु को दो भागों में विभाजित किया है। एक भाग उन आभासों का है जो शब्दों के दुरुपयोग के परिणाम हैं और दूसरे भाग में वे मिथ्या हेतु हैं जो ज्ञान के अभाव से या युक्ति में छिद्रों के कारण उपजते हैं। युक्तियों के अनेक रूप (फिगर्स) हैं। इन रूपों द्वारा सामान्य (जनरल) वाक्यों से विशेष (पर्टिकुलर) की ओर और विशेष से सामान्य की ओर बुद्धि की प्रगति होती है और विज्ञान के निष्कर्ष निकलते हैं।

तर्कशास्त्र का आधार यही क्रम या प्रगति है। एक तरफ ज्ञान इंद्रियों द्वारा संचित प्रलंभन (पर्सेंप्ट्स) मात्र हैं, दूसरी तरफ बुद्धि प्रलंभनों की समानताओं का अनुभव कर उपलब्धियों (कांसेप्ट) की सृष्टि करती है। इसका अर्थ यह है कि बोधधारा प्रलंभन से उपलब्धि की ओर बहती है और उपलब्धि से प्रलंभन की ओर लौटती है।

जैसा क्रम तर्क में प्रलंभन और उपलब्धि में दिखाई देता है, अर्थात् जैसा विकास हमारे अंतर्जगत् मन में दिखाई देता है, अरस्तू का विचार है कि वैसा ही क्रम बाहरी जगत् में भी जारी है। बाहरी जगत् सचमुच जगत् है, चलनशील है, परिवर्तनशील है। जगत् वस्तुओं का समुदाय है। समस्त जगत् और प्रत्येक वस्तु प्रगति में बंधी है। वस्तु के दो अंग हैं-एक द्रव्य (मैटर) और दूसरा रूप (फॉर्म)। द्रव्य जड़ है, यह वस्तु का आधार है परंतु इसमें गति नहीं। द्रव्य में शक्यता (पॉसिबिलिटी, पोटेंशियालिटी) है, तथ्यता (रियलिटी) नहीं। तथ्य तो ज्ञान की भित्ति, चेतन का अंग है। जड़ माया के समान है, बोधविहीन है। द्रव्य में रूप के मेल से वस्तुएँ व्यक्त होती हैं। इसलिए प्रत्येक वस्तु द्रव्य और रूप का संगम है। परंतु प्रत्येक वस्तु धारावाहिनी (कन्टिन्यूइटी) है और जगत् भी स्वभाव से निरंतर समन्वय है। जगत् सीढ़ी के समान है जिसमें वस्तुओं के डंडे लगे हुए हैं। सबसे नीचे के डंडों के रूप का अंश थोड़ा है। इससे ऊपर के डंडों के रूप की मात्रा बढ़ती जाती है। निर्जीव वस्तुओं, जैसे हवा, पानी, पत्थर, धातु इत्यादि में चेतन के विकारों अर्थात् रूपों की कमी है। वनस्पतियों में यह निर्जीवों से अधिक है, जंतुओं में और भी अधिक तथा मनुष्य में सबसे अधिक है। केवल रूपहीन द्रव्य नेति (नीगेशन) के तट पर विराजता है। केवल द्रव्यहीन रूप ज्ञानमय आत्मा है, जिसे ईश्वर का नाम दे सकते हैं। नेति और ईश्वर के बीच में नानाविध जगत् का प्रसार है जिसमें वस्तुएँ और उनके गुण (स्पेसीज़) हिलोरें लेते हैं। जगत् एक सत्ता जिसमें प्रगति निहित है। प्रगति बिना कारण के संभव नहीं। अरस्तू के अनुसार कारण चार तरह के होते हैं। प्रत्येक वस्तु के बनने में द्रव्य और रूप आवश्यक हैं। इन दो को अरस्तू उपादान (मैटिरियल) और उद्देश्य (फाइनल) कारण कहता है, क्योंकि द्रव्य की निष्ठा रूप को ग्रहण करना है। इसीलिए रूप को द्रव्य का उद्देश्य कहा है। कम रूप की वस्तु अधिक रूप की वस्तु का द्रव्य है, जैसे पत्थर द्रव्य है मूर्ति के लिए, मिट्टी घड़े के लिए।

मूर्ति का उपादान कारण पत्थर है। पत्थर में रूप उपजानेवाले मूर्तिकार का व्यवसायकौशल मूर्ति का निमित्त (एफिशेंट) कारण है। मूर्तिकार जिन विधियों और निष्ठाओं के अधीन मूर्ति का निर्माण करता है वे विहित (फॉर्मल) कारण हैं। मूर्ति का अंतिम रूप उद्देश्य कारण है।

यही चार कारण समस्त सृष्टि में काम करते हैं। सृष्टि को प्रकृति सोपान कहना चाहिए।

मनुष्य इस सोपान का ऊँचा डंडा है। इसके नीचे के एँडे मनुष्यरूप के लिए द्रव्य का काम देते हैं। शरीर और जीवात्मा के मेल से मनुष्य बनता है। जीवात्मा के शरीर में समेटने से व्यक्ति तैयार होता है। शरीर का जीवात्मा से अटूट संबंध है। एक को दूसरे से अलग कर दें तो मानव व्यक्ति नष्ट हो जाए। जीवात्मा और शरीर का संयोग व्यक्ति विशेष कहलाता है। अरस्तु का विचार था कि मृत्यु के बाद मनुष्य व्यक्ति छिन्न-भिन्न हो जाता है, क्योंकि शरीरविशेष के न रहने पर जीवात्मा, जो शरीर से विशेष संबंध रखती है, कायम नहीं रह सकती।

मनुष्य, जो जीवात्मा और शरीर का गठन है प्रकृतिसोपान के बहुत ऊंचे डंडे पर स्थित है। सृष्ट भूतों में उसका दर्जा सबसे ऊपर है। उसके नीचे जितने भूत हैं, उसकी जीवात्मा में अंतर्हित हैं। वह द्रव्य है जिसकी नींव पर मनुष्यरूप प्रकट हुआ। जीवात्मा, जो मनुष्य की सब चेष्टाओं की प्रेरक है, अपने भीतर जब जीवजंतुओं की प्रेरक आत्माओं को लिए हुए है। इस कारण मानव आत्मा में वनस्पति और जंतु दोनों की आत्माओं के गुण हैं। और इनसे बढ़कर चेतन बुद्धि (रीज़न) है जो मनुष्य का समस्त वनस्पतियों और जीवजंतुओं से उत्कृष्ट बनाती है।

जीवात्मा के वानस्पतिक अंग का व्यापार (फंक्शन) पुष्टि है, अर्थात् उन तत्वों का ग्रहण जिनसे व्यक्ति जीवित रहता है और अपने समान जीवों को उत्पन्न करता है। वानस्पतिक आत्मा (वेजिटेबुल सोल) पुष्टि और उत्पादन की शक्ति का नाम है। जंतुओं में एक और गुण है---इंद्रियों द्वारा विषयों की जानकारी। इसे इंद्रियग्रहण (सेंसेशन) कह सकते हैं। जैसे पुष्टि शक्ति का काम भोजन का ग्रहण है, वैसे ही जंतु की आत्मा (एनिमल सोल) का व्यापार देखना, सुनना, सूंघना, छूना और चखना है। यह तो मूल कृतियाँ हैं। इनके सिवा वस्तुओं का प्रलंभन (पर्सेप्शन) है, जिसके द्वारा इंद्रियग्रहणों का योग वस्तु व्यक्ति के पूरे रूप का बोध कराता है और एक वस्तु को दूसरी से पृथक् करता है। प्रलंभन पर कल्पना (इमैजिनेशन), स्मरण और स्वप्न (का आसरा) है। इन सबका जांतव आत्मा से संबंध है।

जांतव आत्मा के दो कार्य हैं- एक प्रलंभन अर्थात् इंद्रियों द्वारा बाह्य जगत् के विशेषणों की सूचनाएँ जमा करना। दूसरे, इन विशेषणों से उत्पन्न होने वाले भावों अर्थात् सुख-दु:ख और सुख-दु:ख के आकर्षण और प्रतिकार से जो इच्छाएँ मन में उभरती हैं उनका अनुभव करना।

कर्म की चेष्टा इन्हीं अनुभूतियों से पैदा होती है।

जीवात्मा का सबसे ऊँचा अंग मन और चित्त है जिसे बोधात्मा (रैशनल सोल) कहते हैं। अरस्तू का मत है कि मन और चित्त (पैसिव ऐंड ऐक्टिव) बोधात्मा के दो भाग हैं। मन को उपादान (मैटिरियल काज़) का और चित्त को निमित्त (एफिशेंट काज़) का निकटवर्ती माना है। मन का कार्य विषयों का ग्रहण (अप्रीहेंशन) है, चित्त का सृजन (क्रिएशन); शक्य को तथ्य में बदलना, अव्यक्त को व्यक्त बनाना। जैसे सूर्य का उजाला वस्तुओं के रूप को उजागर करता है, वैसे ही चित्त मन के विकारों को बुद्धिगम्य बनाता है। चित्त की असलीयत क्या है? अरस्तू के टीकाकारों का मत है कि चित्त द्रव्यहीन शुद्ध आत्मा का अंश है और शुद्ध आत्मा ईश्वर का पर्याय है।

प्रकृति के विषयों की व्याख्या और शास्त्रीय सिद्धांतों का उल्लेख भौतिकी के अंतर्गत आता है। मनोविज्ञान के पश्चात् मनुष्य के आचरण के संबंध में विचार आरंभ होता है। यह दो विधाओं में समाप्त होता है, राजनीतिशास्त्र और आचार या नीतिशास्त्र।

राजनीतिशास्त्र का विषय समाज और राज है। प्रश्न यह है कि समाज किसे कहते हैं? यह कैसे बनता है? समाज और इसके व्यक्तियों में क्या संबंध है? समाज और व्यक्ति के क्या कर्तव्य हैं? ये ही प्रश्न राज्य के बारे में उठते हैं। राज के क्या-क्या रूप हैं, कैसे ये रूप बदलते हैं और इनमें कौन से अच्छे और कौन से बुरे हैं?

अरस्तू बतलाता है कि समाज और राज की व्यवस्था स्वाभाविक (नैचुरल) है। समाज और राज को जीवात्मा के उद्रकों का बाहरी स्पष्ट स्वरूप समझना चाहिए। जीवात्मा का पहला अंग वानस्पतिक आत्मा है। वानस्पतिक आत्मा का व्यापार जीवन का पालन-पोषण और जाति का वर्धन है। मनुष्य इन दोनों कामों को अकेले नहीं, दूसरों की सहायता से ही संपादन कर सकता है। इसलिए मनुष्यों का मनुष्यों के साथ संघात अनिवार्य है। मनुष्य की वानस्पतिक आत्मा की तृप्ति इसी मनुष्यसंघात के जरिए होती है, जिसे कुटुंब कहते हैं। कुटुंब की सृष्टि प्रकृतिगत है।

जीवात्मा का दूसरा अंग जांतव आत्मा है। जांतव आत्मा का व्यापार प्रलंभन का कार्य है। ज्ञानेंद्रियों के संबंध से मनुष्य बाहरी जगत् को अपनाता है। मन विषयों का ध्यान करता है। विषयों से राग उत्पन्न होता है। इच्छाएँ मन को विषयों की ओर खींचती हैं। हमें मनोरथों की दुनिया में घेरती हैं। इनकी पूर्ति के लिए कुटुंब से बड़े मुनष्यसमाज की आवश्यकता होती है। इसे आर्थिक समाज कहते हैं, अर्थात् वह समाज जो अर्थों को पूरा करे। जीवात्मा की तृप्ति की यह दूसरी मंजिल है।

जीवात्मा का उत्तम अंग बोधात्मा है। बुद्धि का व्यापार प्रलंभनों को एक सूत्र में बांधना है। इंद्रियों द्वारा जो अनुभव होते हैं उनकी समानताओं को एमत्रित करने पर व्यापक विचार उत्पन्न होते हैं। विषयों के सयोग से भाव उभरते हैं, मन में खींचतान होती है। किसे अपनाएँ, किसे दुराएँ, ऐसी दुविधा हृदय को विह्वल करती है। हमारी बुद्धि इस स्थिति में निर्णय करती है। यदि भाव इसकी अधीनता को मान लेते हैं तो हम अपनी मानवी पात्रता का प्रमाण देते हैं और नहीं तो जानवर के पद से ऊपर नहीं उठते। बोधात्मा व्यापक विचारों को संगठित करती है और भावों को आदेश देती है। बोधात्मा की पूर्ति मनुष्य संगठन की ही पूर्ति और संगठन में आदेश का अनुष्ठान है। जिस संगठन में व्यापकता और आदेश हो उसे राज्य कहते हैं। इसके द्वारा मनुष्य अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं से ऊपर उठता है, व्यापकता में समा जाता है और विषयों की आसक्ति पर काबू पाता है। वानस्पतिक और जांतव आत्मा का बोधात्मा के अधीन हो जाना स्वराज्य है। वह विधान सबसे उत्तम है जिसके द्वारा स्वराज्य प्राप्त हो।

नीतिशास्त्र का विषय आचरण का अध्ययन है। स्वभाव से समाज का व्यक्ति राज्य का सदस्य है। राज्य का ध्येय मनुष्य की आत्मा की तृप्ति है। तृप्त आत्मा का बाहरी रूप स्वराज्य है। इसका भीतरी रूप नियम और संयम है। मानव प्रकृति मानव श्रेय (गुड) की प्राप्ति से ही आनंद पाती है। इसलिए आचरण या नीति का आदर्श मानवकल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकता।

श्रेय का क्या अर्थ है? श्रेय को सुख अर्थात् शारीरिक तृप्ति नहीं समझना चाहिए। न तो श्रेय धन के पीछै भागने क नाम है, और न ही यह मान और सत्कार का स्नेह है। श्रेय वास्तव में आनंद (हैपिनेस) का पर्याय है। आनंद उस अवस्था को कहते हैं जिसमें मनुष्य अपनी सच्ची मानवता का संपादन करता रहता है। सच्ची मानवता बोधात्मा की तुष्टि है। बोधात्मा का कार्य जीवनयोजना को तैयार करना और इस योजना को व्यवहार में सफल करना है। इस योजना का आधार सदाचार है और इसका विस्तार पूरी जीवनयात्रा है।

सदाचार सुव्यवस्थित स्वभाव का नाम है। सुव्यवस्थित स्वभाव ऐसा स्वभाव है जो अतिशयों से बचता हुआ बीच का मार्ग ग्रहण करता है। अरस्तू मध्यवर्ती आचरण को सद्गुण कहता है। उदाहरण के लिए साहस (करेज) को लें। यह दु:साहस (रैशनेस) और कायरता (कावर्डिस) के बीच का गुण है। दु:साहस और कायरता अतिशयी होने के कारण अवगुण हैं और साहस इनके मध्य में होने के कारण सद्गुण है। ऐसे ही न्याय, दान, सत्य, मैत्री इत्यादि अतिशयों को छोड़ बीच के रास्ते पर चलने के नाम हैं इसीलिए ये सदाचार के अंश हैं। सदाचार से श्रेय जीवन प्राप्त होता है और श्रेय आनंद प्रदान करता है। अरस्तू के अनुसार आनंद संन्यास, वैराग्य और त्याग से नहीं मिल सकता; न आनंद धन की अधिकता और भोगविलास की प्रचुरता से प्राप्त हो सकता है। त्याग और भोग दोनों ही अतिशयता के लक्षण हैं। धन, स्वास्थ्य, सौंदर्य, यश, मित्र, इत्यादि श्रेयमय जीवन के साधन हैं। इनके बिना जीवन का ध्येय, आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। सदाचार की आदत, जो संयम से पैदा होती है, श्रेयदायी है।

परंतु पूर्ण आनंद के लिए एक बात की और आवश्यकता है, जिसका दर्जा सदाचार से ऊपर है। वह है सत्य की धारणा और ध्यान। अरस्तू का कहना है ''जिन्हें स्वतंत्र आनंद की इच्छा हो उन्हें चाहिए, इसे दर्शन के अध्ययन में खोजें, क्योंकि और सब प्रकार के सुखों के लिए मनुष्य दूसरों की सहायता के अधीन है।''

अरस्तू ने कलाशास्त्र में अलंकार और काव्य की व्याख्या की है।

कई सौ वर्षों अरस्तू की पुस्तकें अंधकार में रही; फिर रोम साम्राज्य के पतन के बाद जब रोमन कैथलिक चर्च का अधिकर बढ़ा तो मध्यकालीन यूरोप की संस्कृति और विचारों पर अरस्तू की छाप पड़ने लगी। इस कार्य में अरबों ने बड़ा भाग लिया। ८वीं सदी के आरंभ में उन्होंने स्पेन जीता और वहाँ विश्वविद्यालय कायम किए। यहाँ मुसलमान विद्वानों ने अरस्तू की रचनाओं का पठन-पाठन जारी किया। इन विद्यालयों में जिन ईसाई विद्यार्थियों ने विद्योपार्जन किया उन्होंने अरस्तू के विचारों को ईसाई समाज में फैलाया। मध्यकाल के अंत तक अरस्तू का सिक्का जमा रहा। फिर आधुनिक काल के आरंभ में अफ़्लातून के सिद्धांतों का अनुकरण हुआ और नई चिंतनधाराओं का विकास हुआ। पर आज भी यद्यपि यूरोप के विद्वान अपने-अपने दर्शनों की रचना में नए-नए सिद्धांतों का प्रचार और पुराने सिद्धांतों का खंडन-मंडन करते हैं, तथापि वे अरस्तू के दायरे से बहुत परे नहीं जा पाते।

सं.ग्रं.-(क) अनुवाद और भाष्य-जे.आर. स्मिथ तथ डब्ल्यू.डी. रोज़ द्वारा संपादित, आक्सफोर्ड अनुवाद, क्लैरंडन प्रेस, आक्सफोर्ड।

(ख) सामान्य कतियाँ-ग्रोट, जी. : अरिस्टॉटल, तृतीय संस्करण, लंदन, १८९३; टेलर, ए.ई. : अरिस्टॉटल, द्वितीय संस्करण; रॉस, डब्ल्यू.एल.डी. : अरिस्टॉटल, लंदन, १९२३।

(ग) स्वतंत्र ग्रंथ-बनेंट, जे. : एथिक्स, टेक्स्ट ऐंड कमेंटरी, लंदन; पीटर्स, एफ.एच. : एथिक्स, टेक्स्ट ऐंड ट्रांसलेशन ऐंड कमेंटरी, लंदन; न्यूमैन, डब्ल्यू.एल. : पॉलिटिक्स, टेक्स्ट ऐंड कमेंटरी, चार खंड, आक्सफोर्ड, १८८७-१९०२; बार्कर, ई. : पोलिटिकल थॉट ऑव प्लेटो ऐंड अरिस्टॉटल; रॉस, डब्ल्यू. डी. : अरिस्टॉटल्स मेटाफिज़िक्स, आक्सफोर्ड, १९२४।

(घ) इतिहास तथा दर्शन-जोंपर्ज, टी. : ग्रीक थिंकर्स (अंग्रेजी अनुवाद), चार खंड, लंदन, १९१२; जैलर, ई. : ग्रीक फिलॉसफी, (अंग्रेजी अनुवाद, कॉस्टेलो तथा म्योरहेड द्वारा), २ खंड, लंदन; ओबरवेग, एफ. : हिस्ट्री ऑव फिलॉसफी, अंग्रेजी अनुवाद स्मिथ और शैफ़ द्वारा; बर्नेंट, जे. : ग्रीक फिलॉसफी; बर्टैंड रसेल : हिस्ट्री ऑव वेस्टर्न फिलॉसफी! (ता.चं.)