अमीबा अत्यंत सरल प्रकार का एक प्रजीव (प्रोटोज़ोआ) है जिसकी अधिकांश जातियाँ नदियों, तालाबों, मीठे पानी की झीलों, पोखरों, पानी के गड्ढों आदि में पाई जाती हैं। कुछ संबंधित जातियाँ महत्वपूर्ण परजीवी और रोगकारी हैं।
जीवित
अमीबा बहुत सूक्ष्म
प्राणी है, यद्यपि
इसकी कुछ जातियों
के सदस्य १/२ मि.मी.
से अधिक व्यास के
हो सकते हैं। संरचना
में यह जीवरस
(प्रोटोप्लाज्म)
के छोटे ढेर
जैसा होता है,
जिसका आकार
निरंतर धीरे-धीरे
बदलता रहता
है। कोशिकारस
बाहर की ओर
अत्यंत सूक्ष्म कोशाकला
(प्लाज़्मालेमा) के
आवरण से सुरक्षित
रहता है। स्वयं
कोशारस के
दो स्पष्ट स्तर पहचाने
जा सकते हैं-बाहर
की ओर का स्वच्छ,
कणरहित, काँच
जैसा, गाढ़ा बाह्य
रस तथा उसके
भीतर का अधिक
तरल, धूसरित,
कणयुक्त भाग जिसे
आंतर रस कहते
हैं। आंतर रस
में ही एक बड़ा केंद्रक
भी होता है।
संपूर्ण आंतर
रस अनेक छोटी
बड़ी अन्नधानियों
तथा एक या दो
संकोची रसधानियों
से भरा होता
है। प्रत्येक अन्नधानी
में भोजनपदार्थ
तथा कुछ तरल
पदार्थ होता
है। इनके भीतर
ही पाचन की क्रिया
होती है। संकोचिरसधानी
में केवल तरल
पदार्थ होता
है। इसका निर्माण
एक छोटी धानी
के रूप में होता
है, किंतु धीरे-धीरे
यह बढ़ती है और
अंत में फट जाती
है तथा इसका तरल
बाहर निकल जाता
है।
अमीबा की चलनक्रिया बड़ी रोचक है। इसके शरीर के कुछ अस्थायी प्रवर्ध निकलते हैं जिनको कूटपाद (नकली पैर) कहते हैं। पहले चलन की दिशा में एक कूटपाद निकलता है, फिर उसी कूटपाद में धीरे-धीरे सभी कोशारस बहकर समा जाता है। इसके बाद ही, या साथ साथ, नया कूटपाद बनने लगता है। हाइमन, मास्ट आदि के अनुसार कूटपादों का निर्माण कोशारस में कुछ भौतिक परिवर्तनों के कारण होता है। शरीर के पिछले भाग में कोशारस गाढ़े गोदं की अवस्था (जेल स्थिति) से तरल स्थिति में परिवर्तित होता है और इसके विपरीत अगले भाग में तरल स्थिति से जेल स्थिति में। अधिक गाढ़ा होने के कारण आगे बननेवाला जेल कोशिकारस को अपनी ओर खींचता है।
चित्र : अमीबा
१. संकोची रसधानी; २. अन्नधानी; ३. कूटपाद; ४. कूटपाद; ५. आंतर
रस; ६. स्वच्छ बाह्य रस; ७. कूटपाद; ८. केंद्रक ९.अन्नधानी।
अमीबा
जीवित प्राणियों
की तरह अपना
भोजन ग्रहण करता
है। वह हर प्रकार
के कार्बनिक
कणों-जीवित
अथवा निर्जीव-का
भक्षण करता है।
इन भोजनकणों
को वह कई कूटपादों
से घेर लेता
है; फिर कूटपादों
के एक दूसरे से
मिल जाने से भोजन
का कण कुछ तरल
के साथ अन्नधानी
के रूप में कोशारस
में पहुँच जाता
है। कोशारस
से अन्नधानी में
पहले आम्ल, फिर
क्षारीय पाचक
यूषों का स्राव
होता है, जिससे
प्रोटीन तो निश्चय
ही पच जाते हैं।
कुछ लोगों के
अनुसार मंड (स्टार्च)
तथा वसा का पाचन
भी कुछ जातियों
में
होता है। पाचन के बाद पचित भोजन का शोषण हो जाता है और अपाच्य भाग चलनक्रिया के बीच क्रमश: शरीर के पिछले भाग में पहुँचता है और फिर उसका परित्याग हो जाता है। परित्याग के लिए कोई विशेष अंग नहीं होता।
अमीबा का आहारग्रहण
इस चित्र में दिखाया गया है कि अमीबा आहार कैसे ग्रहण करता है। सबसे बाएँ चित्र
में अमीबा आहार के पास पहुँच गया है। बाद के चित्रों में उसे घेरता हुआ और
अंतिम चित्र में अपने भीतर लेकर पचाता हुआ दिखाया गया है।
श्वसन तथा उत्सर्जन (मलत्याग) की क्रियाएँ अमीबा के बाह्म तल पर प्राय: सभी स्थानों पर होती हैं। इनके लिए विशेष अंगों की आवयकता इसलिए नहीं होती कि शरीर बहुत सूक्ष्म और पानी से घिरा होता है।
कोशिकारस की रसाकर्षण दाब (ऑसमोटिक प्रेशर) बाहर के जल की अपेक्षा अधिक होने के कारण जल बराबर कोशाकला को पार करता हुआ कोशारस में जमा होता है। इसके फलस्वरूप शरीर फूलकर अंत में फट जा सकता है। अत: जल का यह आधिक्य एक दो छोटी धानियों में एकत्र होता है। यह धानी धीरे-धीरे बढ़ती जाती है तथा एक सीमा तक बढ़ जाने पर फट जाती है और सारा जल निकल जाता है। इसीलिए इसको संकोची धानी कहते हैं। इस प्रकार अमीबा में रसाकर्षण नियत्रंण होता है।
प्रजनन के पहले अमीबा गोलाकार हो जाता है, इसका केंद्रक दो केंद्रकों में बँट जाता है और फिर जीवरस भी बीच से खिंचकर बँट जाता है। इस प्रकार एक अमीबा से विभाजन द्वारा दो छोटे अमीबे बन जाते हैं। संपूर्ण क्रिया एक घंटे से कम में ही पूर्ण हो जाती है।
प्रतिकूल ऋतु आने के पहले अमीबा अन्नधानियों और संकोची धानी का परित्याग कर देता है और उसके चारों ओर एक कठिन पुटी (सिस्ट) का आवेष्टन तैयार हो जाता है जिसके भीतर वह गरमी या सर्दी में सुरक्षित रहता है। पानी सूख जाने पर भी पुटी के भीतर का अमीबा जीवित बना रहता है। हाँ, इस बीच उसकी सभी जीवनक्रियाएँ लगभग नहीं के बराबर रहती हैं। इस स्थिति को बहुधा स्थगित प्राणिक्रम कहते हैं। उबलता पानी डालने पर भी पुटी के भीतर का अमीबा मरता नहीं। बहुधा पुटी के भीतर अनुकूल ऋतु आने पर कोशारस तथा केंद्रक का विभाजन हो जाता है और जब पुटी नष्ट होती है तो उसमें से दो या चार नन्हें अमीबे निकलते हैं।
मनुष्य की अँतड़ी में छह प्रकार के अमीबे रह सकते हैं। उनमें से एक के कारण प्रवाहिका (पेचिश) उत्पन्न होती है जिसे अमीबाजन्य प्रवाहिका कहते हैं। यह अमीबा अँतड़ी के ऊपरी स्तर को छेदकर भीतर घुस जाता है। इस प्रकार अँतड़ी में घाव हो जाते हैं। कभी कभी ये अमीबे यकृत (लिवर) तक पहुँच जाते हैं और वहाँ घाव कर देते हैं।
(उ.शं.श्री.)