अमरसिंह अमरकोश के रचयिता अमरसिंह का जीवनवृत अंधकार में है। विद्वानों ने बहुत श्रम के बाद भी उसपर नाममात्र का ही प्रकाश पड़ा है। इस तथ्य का प्रमाण अमरकोश के भीतर ही मिलता है कि अमरसिंह बौद्ध थे। अमरकोश के मंगलाचरण में प्रच्छन्न रूप से बुद्ध की स्तुति की गई है, किसी हिंदू देवी देवता की नहीं। यह पुरानी किंवदंती है कि शंकराचार्य के समय (आठवी शताब्दी) अमरसिंह के ग्रंथ जहाँ-जहाँ मिले, जला दिए गए। उसके बौद्ध होने का एक प्रमाण यह भी है कि अमरकोश में ब्रह्म, विष्णु, आदि देवताओं के नामों से पहले, बुद्ध के नाम दिए गए हैं; क्योंकि बौद्धों के अनुसार सब देवी देवता भगवान् बुद्ध से छोटे हैं। अमरसिंह नाम से अनुमान होता है कि उसके पूर्वज क्षत्रिय रहे होंगे। अमरसिंह का निश्चित समय बताना असंभव ही है क्योंकि अमरसिंह ने अपने से पहले के कोशकारों के नाम ही नहीं दिए हैं। लिखा है: 'सम्ह्रात्यान्यतंत्राणि' अर्थात् मैंने अन्य कोशों से सामग्री ली है, किंतु किससे ली है, इसका उल्लेख नहीं किया। कर्न और पिशल का अनुमान था कि अमरसिंह का समय ५५० ई.के आसपास होगा क्योंकि वह विक्रमादित्य के नवरत्नों में गिना जाता है जिनमें से एक रत्न वराहमिहिर का निश्चित समय ५५० ई. है। ब्यूलर अमरसिंह को लक्ष्मणसेन की सभा का रत्न मानते हैं। विलमट साहब को गया में एक शिलालेख मिला जो ९४८ ई. का है। इसमें खुदा है कि विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक रत्न अमरदेव अमरसिंह ही था, इसका प्रमाण नहीं मिलता; महत्व की बात है कि प्राय: अस्सी पचासी वर्ष से उक्त शिलालेख और उसके अनुवाद लुप्त हैं। हलायुध ने भी अपने कोश में एक प्राचीन कोशकार अमरदत्त का नाम गिनाया है। यूरोप के विद्वान् इस अमरदत्त को अमरसिंह नहीं मानते। (हे.जो.)