अभिनवगुप्त तंत्र तथा साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। जन्म कश्मीर में दशम शताब्दी के मध्य भाग में हुआ था (लगभग ९५० ई.--९६० ई. के बीच)। इनका कुल अपनी विद्या, विद्वता तथा तांत्रिक साधना के लिए कश्मीर में नितांत प्रख्यात था। इनके पितामह का नाम था वराहगुप्त तथा पिता का नरसिंहगुप्त जो लोगों में 'चुखुल' या 'चुखुलक' के घरेलू नाम से भी प्रसिद्ध थे। अभिनव में ज्ञान की इतनी तीव्र पिपासा थी कि इसकी तृप्ति के लिए इन्होंने कश्मीर के बाहर जालंधर की यात्रा की और वहाँ अर्धत््रयंबक मत के प्रधान आचार्य शंभुनाथ से कौलिक मत के सिद्धांतों और उपासनातत्वों का प्रगाढ़ अनुशीलन किया। इन्होंने अपने गुरुओं के नाम ही नहीं दिए हैं, प्रत्युत उनसे अधीत शास्त्रों का भी निर्देश किया है। इन्होंने व्याकरण का अध्ययन अपने पिता नरसिंहगुप्त से, ब्रह्मविद्या का भूतिराज से, क्रम और त्रिक्दर्शनों का लक्ष्मण गुप्त से, ध्वनि का भट्टेंद्रराज से तथा नाट्यशास्त्र का अध्ययन भट्ट तोत (या तौत) से किया। इनके गुरुओं की संख्या बीस तक पहुँचती है।

अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना ६६ लौकिक संवत् (९९१ ई.) में और भैरवस्तोत्र की ६८ सं. (९९३ ई.) में हुई। इनकी 'ईश्वर--प्रत्यभिज्ञा--विमर्षिणी' का रचनाकाल ९० लौकिक सं. (१०१५ ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल ९९० ई. से लेकर १०२० ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है।

ग्रंथरचना---अभिनवगुप्त तंत्रशास्त्र, साहत्य और दर्शन के प्रौढ़ आचार्य थे और इन तीनों विषयों पर इन्होंने ५० से ऊपर मौलिक ग्रंथों, टीकाओं तथा स्तोत्रों का निर्माण किया है। अभिरुचि के आधार पर इनका सुदीर्घ जीवन तीन कालविभागों में विभक्त किया जा सकता है:

(क) तांत्रिक काल---जीवन के आरंभ में अभिनवगुप्त ने तंत्रशास्त्रों का गहन अनुशीलन किया तथा उपलब्ध प्राचीन तंत्रग्रंथों पर इन्होंने अद्धैतपरक व्याख्याएँ लिखकर लोगों में व्याप्त भ्रांत सिद्धांतों का सफल निराकरण किया। क्रम, त्रिक तथा कुल तंत्रों का अभिनव ने क्रमश: अध्ययन कर तद्विषयक ग्रंथों का निर्माण इसी क्रम से संपन्न किया। इस युग की प्रधान रचनाएँ ये हैं---बोधपंचदशिका, मालिनीविजय कार्तिक, परात्रिंशिकाविवरण, तंत्रालोक, तंत्रसार, तंत्रोच्चय, तंत्रोवटधानिका। तंत्रालोकत्रिक तथा कुल तंत्रों का विशाल विश्वकोश ही है जिसमें तंत्रशास्त्र के सिद्धांतों, प्रक्रियाओं तथा तत्संबद्ध नाना मतों का पूर्ण, प्रामाणिक तथा प्रांजल विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह ३७ परिच्छेदों में विभक्त विराट् ग्रंथराज है जिसमें बंध का कारण, मोक्षविषक नाना मत, प्रपंच का अभिव्यक्ति प्रकार तथा सत्ता, परमार्थ के साधक उपाय, मोक्ष के स्वरूप, शैवाचार की विविध प्रक्रिया आदि विषयों का सुंदर प्रामाणिक विवरण देकर अभिनव ने तंत्र के गंभीर तत्वों को वस्तुत: आलोकित कर दिया है। अंतिम तीनों ग्रंथ इसी के क्रमश: संक्षिप्त रूप हैं जिनमें संक्षेप पूर्वापेक्षया ्ह्रस्व होता गया है।

(ख) आलंकारिक काल---अलंकारग्रंथों का अनुशीलन तथा प्रणयन इस काल की विशिष्टता है। इस युग से संबद्ध तीन प्रौढ़ रचनाओं का परिचय प्राप्त है---काव्य-कौतुक-विवरण, ध्वन्यालोकलोचन तथा अभिनवभारती। काव्यकौतुक अभिनव के नाट्यशास्त्र के गुरु भट्टतौत की अनुपलब्ध प्रख्यात कृति है जिसपर इनका 'विवरण' अन्यत्र संकेतित ही है, उपलब्ध नहीं। लोचन आनंदवर्धन के 'ध्वन्यालोक' का प्रौढ़ व्याख्यानग्रंथ है तथा अभिनवभारती भरत--नाट्य--शास्त्र के पूर्ण ग्रंथ की पांडित्यपूर्ण प्रमेयबहुल व्याख्या है।

(ग) दार्शनिक काल---अभिनवगुप्त के जीवन में यह काल उनके पांडित्य की प्रौढ़ि और उत्कर्ष का युग है। परमत का तर्कपद्धति से खंडन और स्वमत का प्रौढ़ प्रतिपादन इस काल की विशिष्टता है। इस काल की प्रौढ़ प्रतिपादन इस काल की विशिष्टता है। इस काल की प्रौढ़ रचनाओं में ये नितांत प्रसिद्ध हैं---भगवद्गीतार्थसंग्रह, परमार्थसार, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिणी तथा ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृति-विमर्शिणी। अंतिम दोनें ग्रंथ अभिनवगुप्त के प्रौढ़ पांडित्य के निकषग्रावा हैं। ये उत्पलाचार्य द्वारा रचित 'ईश्वरप्रत्यभज्ञ' के व्याख्यान हैं। पहले में तो केवल कारिकाओं की व्याख्या और दूसरे उत्पल की ही स्वोपज्ञ वृत्ति (आजकल अनुपलब्ध) 'विवृति' की प्रांजल टीका है। प्राचीन गणनानुसार चार सहस्र श्लोकों से संपन्न होने के कारण पहली टीका 'चतु:सहस्री' (लघ्वी) तथा दूसरी 'अष्टादशसहस्री' (अथवा बृहती) के नाम से भी प्रसिद्ध है जिनमें टीका अब तक अप्रकाशित ही है।

वैशिष्ट्य---अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे।

सं.ग्रं.---जगदीश चटर्जी : कश्मीर शैविज़म (श्रीनगर, १९१४); कांतिचंद्र पांडेय : अभिनवगुप्त---ऐन हिस्टारिकल ऐंड फिलासोफिकल स्टडी (काशी, १९३५)। (ब.उ.)