अबुल् अला मुअर्री अबुल् अला का जन्म मुअर्रतुल् नोअमान में हुआ था, जो हलब से २० मील दूर शाम का एक कस्बा है। यह अभी बच्चा ही था कि इसपर शीतला का प्रकोप हुआ और इसकी दृष्टि जाती रही। प्रकृति ने इस हानि की किसी सीमा तक पूर्ति इस प्रकार कर दी कि इसकी स्मरणशक्ति बहुत तीव्र हो गई। प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से पाकर यह हलब चला गया और वहाँ के विद्वानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की। हलब के अनंतर यूसाने इंताकिय: (अंतियर) तथा तिराबुलिस (त्रिपोली) की यात्रा की और सन् ९९३ ई. में मुअर्रा लौट आया। यह १५ वर्ष तक बहुत थोड़ी आए पर कालयापन करता हुआ अरबी कविता तथा भाषा विज्ञान पर व्याख्यान देता रहा। इस बीच इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई जिससे इसने बगदाद जाकर अपने भाग्य की परीक्षा करने का निश्चय किया। यहाँ इसकी भेंट बहुत से प्रतिष्ठित साहित्यकारों तथा विद्वानों से हुई, जिन्होंने इसका अच्छा स्वागत किया। यद्यपि यह यहाँ केवल डेढ़ वर्ष रहा, तथापि इसी बीचइसके विचारों तथा सिद्धांतों में परिपक्वता आ गई और बाकी समय के लिए इसने अपना मार्ग निश्चय कर लिया। मुअर्रा लौटने पर यह एकांतवास करने लगा, मांस खाना छोड़ दिया और विरक्तों के आचार को ग्रहण कर लिया। इस स्वभावपरिवर्तन का विशिष्ट कारण इसकी माता की बीमारी तथा मृत्यु हुई। साथ ही बगदाद में किसी निश्चित आए का प्रबंध न हो सकने का भी इसपर प्रभाव पड़ा था।

अबुल् अला की कृतियों में इसकी कविताओं के दो संग्रह सकतुल्ज़नद (दियासलाई की लपट) तथा लुज़ूमियात बहुत प्रसिद्ध हैं। पहले में बगदाद जाने से पहले की कविताओं का संकलन है। इसमें इसने अपने पूर्ववर्तियों के दिखलाए मार्ग से बाहर जाने का प्रयास नहीं किया है। बगदाद से लौटने के बाद की कविताएँ लुज़ूमियात में संगृहीत हैं और इनसे अबुल् अला के साहस, दृढ़ता तथा गंभीरता का पता लगता है। पश्चिम के आलोचकों ने इसकी स्वच्छंद शैली को विशेष रूप से पसंद किया पर पूर्व में इसकी कविता बहुत पसंद की जाती है। (आर.आर.शे.)