अफगानिस्तान दक्षिण पश्चिम एशिया का एक स्वतंत्र मुसलमानी राज्य है, जो पामीर पठार के दक्षिण पश्चिम में लगभग ७००० मील तक फैला है। इसके उत्तर में रूसी तुर्किस्तान, पश्चिम में फारस, दक्षिण एवं दक्षिण--पूर्व में पाकिस्तान, तथा पूर्व में चीन का सिक्यांग एवं भारत का काश्मीर प्रदेश स्थित हैं। अत्यंत शक्तिशाली राज्यों से घिरा होने के कारण यह एक अंत:स्थ (बफ़र) राज्य है जिसकी सीमा पिछले १०० वर्षो में अनेक बार संधियों द्वारा निर्धारित होती रही है। अंतिम बार इसकी सीमा २२ नवंबर, १९२१ ई. में अफगानिस्तान और बिटेन की संधि द्वारा निर्धारित की गई, जिसके पश्चात् इसे जर्मनी, फ्रांस, रूस, इटली आदि राज्यों की मान्यता प्राप्त हो गई।
स्थिति : २९०उ.से ३८० ३५० उ.अ., ६००५०' पू.से ७५० पू.दे.। क्षेत्रफल: २,५०,००० वर्गमील। जनसंख्या: १,५९,४४,२७५ (सन् १९६९ ई.): पठान ६०%, ताजिक '३०, ७%, उज़बेक ५% हज़ारा (मुग़्ला) ३%। अफगानिस्तान में जातीय एकता का अभाव है। पाकिस्तान की सीमा के निकट वजीरी, अफ्रीदी एवं मांगल आदि पठान जातियाँ रहती हैं जो बड़ी ही स्वेच्छाचारी हैं।
लो जिरगा (ग्रैंड नैशनल असेंबली) द्वारा सितंबर, १९६४ में स्वीकृत एवं अक्टूबर, १९६५ में लागू नए संविधान के अनुसार अफगानिस्तान में संसदीय जनतंत्र की स्थापना हो गई है जिसमें विधान संबंधी सभी अधिकार जनता द्वारा निर्वाचित द्विसदनी संसद् को प्राप्त हैं। मुहम्मद ज़हीरशाह संवैधानिक राष्ट्राघ्यक्ष (बादशाह) और डॉ. अब्दुल ज़हीर वर्तमान प्रधानमंत्री हैं। बादशाह को प्रधानमंत्री तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार है। विधानपालिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका इत्यादि शासन की इकाइयाँ अलग अलग हैं और अपने अपने क्षेत्र में प्रभुसत्तासंपन्न हैं। संपूर्ण देश को २९ प्रांतों में विभक्त कर दिया गया है और हर प्रांत का प्रशासन गवर्नर के द्वारा चलाया जाता है । काबुल, कपिसा, परवान, वरदक, लोगर, ननगरहर, पक्तया, कहवाज़, तथा उरगन, जाबुल, कंजार उरूज़गन, बामियान, हेरात, बदघीस, फरयाब, जाउजगान, बल्ख, हलमंड, फराह, निमरूज़, गोर, समंगन, कुनडूज़, ताखार, बदख्याँ, बघलान तथा पुलेंखपुरी, लघममन ओर कुनार प्रांतों के नाम हैं। यहाँ सुन्नी मुसलमानों की प्रजानता है। शीया मुसलमानों की जनसंख्या देश की जनसंख्या की केवल आठ प्रतिशत है। काबुल अफगानिस्तान की राजधानी एवं प्रमुख नगर है; इसकी जनसंख्या ४,८०,३८३ (सन् १९६९) है। कंधार, हेरात, मज़ार-ए-शरीफ़ और जलालाबाद आदि अन्य मुख्य नगर है। राज्यभाषाएँ पश्तो और फ़ारसी हैं।
उत्तर में तुर्किस्तान के मैदानी खंड को छोड़कर अफगानिस्तान गगनचुंबी पर्वतों एवं ऊँचे पठारों का देश है, जो जंबशिला (शेल) और चूने के पत्थरों के बने हैं। इनके तल में ग्रैनाइट तथा साईएनाइट पत्थर मिलते हैं। मत्स्य (डेवोनियन) और कार्बनप्रद (कार्बनिफ़ेरस) युगों के पहले यह क्षेत्र टेथिस सागर का एक अंग था। बाद में यह ऊपर उठने लगा तथा यहाँ के पठारों एवं पर्वतों का निर्माण तृतीय कल्प (टर्शियरी एरा) में हिमालय और आल्प्स के निर्माण के साथ हुआ।
अफगानिस्तान की मुख्य पर्वतश्रेणी हिंदूकुश है। यह पामीर पठार से दक्षिण पश्चिम तथा पश्चिम की ओर लगभग ६०० मील तक चलकर हेरात प्रांत में लुप्त हो जाती है। कोह-ए-बाबा, फिरोज़ कोह, और कोह-ऐ-सफ़ेद इसके अन्य भागों के नाम हैं। इसकी दक्षिणी शाखा सुलेमान पर्वत है जाए पूर्व में टोरघर तथा स्याह कोह और पश्चिम में स्पिनघर तथा सफेद कोह कही जाती है। हिंदूकूश पर्वत के प्रमुख दर्रे खैबर, गोमल एवं बोलन है। ये दर्रे वाणिज्यपथ का काम देते हैं। प्राचीन काल में इन्हीं दर्रो से होकर सर्वप्रथम आर्य लोग तथा बाद में मुसलमान, मुगल तथा अन्य विदेशी भारत में पहुँचे।
अफगानिस्तान छह प्राकृतिक भागों में बाँटा जा सकता है:
(१) बैक्ट्रिया अथवा अफगानी तुर्किस्तान, जो हिंदूकूश पर्वत के उत्तर आमू तथा उसकी सहायक कुंदज तथा कोक्चा नदियों का मैदानी भाग है।
(२) हिंदूकुश पर्वत, जिसकी औसत उँचाई १५,००० फुट से अधिक है। इसकी चोटियाँ , जो १८,००० फुट से भी ऊँची हैं, सर्वदा हिमाच्छदित रहती हैं।
(३) बदख्शाँ, जो उत्तरी पूर्वी अफगानिस्तान में, तुर्किस्तान के पूर्व, एक रमणोक प्रदेश है। इसी के अंतर्गत 'छोटा पामीर' पर्वत है।
(४) काबुलिस्तान, जिसके अंतर्गत काबुल का पठार और चारदेह तथा कोह-ए-दमन की समृद्ध घाटियाँ हैं। काबुल के पठार की ऊँचाई, ५,००० से ६,००० फुट तक है, यह काबुल नदी तथा उसकी सहायक लोगर, पंजशीर एवं कुनार से सिंचित, समृद्ध एवं घनी आबादी का क्षेत्र है।
(५) हजारा, जो मध्य अफगानिस्तान का पर्वतीय एवं विरल आबादी का प्रदेश है।
(६) दक्षिणी मरूस्थल, जिसके पश्चिमी भाग में सिस्तान एवं पूर्व में रेगस्तान नामक मरूस्थल हैं। ये मरूस्थल देश का चौथाई भाग छेंके हुए हैं। इस क्षेत्र का जलपरिवाह (ड्रेनेज) हमुन--ए--हेलमाँद तथा गौद--ए--जिर्रेह नामक झीलों में जमा होता हैं।
आमू, हरी रूद, मुर्घाब, हेलमाँद, काबुल आदि अफगानिस्तान की प्रमुख नदियाँ हैं। आमू, तथा काबुल के अतिरिक्त अन्य नदियाँ अंत:स्थल परिवाही (इनलैंड ड्रेनेजवाली) हैं। आमू नदी रोशन एवं दरवाज़ नामक पर्वत श्रोणियों से निकलकर लगभग ४८० मील तक अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा निर्धारित करती है। हेलमाँद अफगानिस्तान की सर्वाधिक लंबी नदी है जाए ६०० मील तक हजारा एवं दक्षिणी पश्चिमी मरूस्थल से होती हुई सिस्तान क्षेत्र में गिरती है।
अफगानिस्तान खनिज पदार्थो में धनी है, परंतु उनका विकास अभी तक नहीं हो सका है। निम्न कोटि का कोयला घोरबंद की घाटी में और लटाबाद के समीप मिलता है। इसकी संचित निधि १,५०,००,००० टन कूती जाती है, किंतु वार्षिक उत्पादन १०,००० टन से बढ़कर १९६७-६८ में १,५१,००० टन हो गया था। नमक कटाघम क्षेत्र में मिलता है। इसका वार्षिक उत्पादन १९६७-६८ में लगभग ३१,००० टन था। अन्य खनिज पदार्थो में ताँबा हिंदूकुश में, सीसा हजारा में चाँदी हज़ाराजत एवं पंजशीर की घाटी में, लोहा घोरबंद की घाटी एवं काफिरिस्तान में, गंधक मयमाना प्रांत एवं कामार्द की घाटी में, अभ्रक पंजशीर की घाटी में, एस्बेस्टास जिद्रा जिले में, क्रोमियम लोगर की घाटी में तथा सोना, माणिक, फीरोजाए, वैडूर्य (लैपिस लैजूली) एवं अन्य बहुमूल्य पत्थर बदख्शाँ में मिलते हैं। हाल में खनिज तेल उत्तरी अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में प्राप्त हुआ है।
अफगानिस्तान की जलवायु अति शुष्क है। यहाँ दैनिक तथा वार्षिक तापांतर अधिक तथा वायुवेग अत्यंत तीव्र रहता है। ग्रीष्म ऋतु में घाटियाँ तथा कम उँचे पठार उष्ण हो जाते हैं। आमू की घाटी, कधार एवं जलालाबाद में ताप ११०० से ११५० फारेनहाइट तक चढ़ जाता है तथा दक्षिण पश्चिम के मरुस्थल में धूल एवं बालुकायुक्त प्रचंड हवाएँ १०० मील प्रति घंटे से भी अधिक वेग से चलती हैं। काबुल, गज़नी, हजारा आदि ३,००० फुट से अधिक उँचे क्षेत्रों में ताप ०० फा. से भी कम हो जाता है। यहाँ जनवरी तथा फरवरी के महीनों में तुषारपात और मार्च तथा अप्रैल में वर्षा होती है। अफगानिस्तान की औसत वर्षा ११ इंच है। इसके अधिकाशं में वर्षा अपर्याप्त होती है। दक्षिण पश्चिम के मरुस्थल विशेष रूप से शुष्क हैं, जहाँ वर्षा अपर्याप्त होती है। दक्षिण पश्चिम के मरुस्थल विशेष रूप से शुष्क हैं, जहाँ वर्षा चार इंच से भी कम होती है। ६,००० फुट से ऊँचे स्थलों में वसंत तथा शरद ऋतुएँ अति प्रिय और मनमोहक होती हैं।
जंगल ६,००० से १०,००० फुट की ऊँचाई तक मिलते हैं। इन जंगलों में कोणधारी (चीड़ आदि) वृक्ष तथा श्रीदारू (लार्च) की प्रचुरता है। इन वृक्षों की छाया में गुलाब एवं अन्य सुंदर फूल उगते हैं। ३,००० से ६,००० फुट की उँचाई में बांज (ओक) एवं अखरीट के वृक्ष मिलते हैं। ३,००० फुट से नीचे जंगली जैतून (ऑलिव), गलाब, बेर तथा बबूल पाए जाते हैं।
अफगानिस्तान पशुपालक एवं कृषिप्रधान देश है। इसका अधिकांश पर्वतीय एवं शुष्क होने के कारण कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है। फिर भी यहाँ के मैदानों एवं अनेक उर्वर घाटियों में नहरों आदि द्वारा सिंचाई करके फल, सब्जियाँ एवं अझ उपजाए जाते हैं। कुछ भागों में बिना सिंचाई की कृषि भी प्रचलित है। जाड़े में गेहूँ जौ तथा मटर और गरमी में जान, मक्का, ज्वार, बाजरा की फसलें होती हैं। थोड़े परिमाण में रुई, तंबाकू, तथा गाँजा भी पैदा किया जाता है। कुछ वर्षो से हेलमाँद तथा अर्ग़्दााब नदियों पर जल--संग्रह--तड़ाग और हरी रूद पर बाँध बनाकर कृषि को विकसित किया जाए रहा है। यहाँ ग्रीष्मकाल की शुष्क जलवायु फल उपजाने के लिए उपयुक्त है। अंगूर, शहतूत और अखरोट के अतिरिक्त सेब, नाशपाती, बेर, अंजीर, खूबानी, सतालू आदि फल भी उपजाए जाते हैं। अंगूर विशेषत: भारत को निर्यात किया जाता है।
यहाँ की मुख्य संपत्ति भेड़ें तथा अन्य पशुसमुदाय हैं और प्रधान उद्यम पशुपालन है। काटघम और मजार के क्षेत्रों में सर्वोत्कृष्ट जाति के घोड़े पाले जाते हैं। अंदखूई के निकट भेड़ का सर्वोतम चमड़ा मिलता है। मोटी पूँछ की भेड़ें, जो दक्षिण में मिलती हैं, ऊन मांस तथा चर्बी के लिए प्रसिद्ध है। ऊन का वार्षिक उत्पादन लगभग ७,००० टन है।
अफगानिस्तान में केवल छोटे उद्योगों का विकास हो पाया है। काबुल नगर में दियासलाई, बटन, जूता संगमरमर तथा लकड़ी के सामान बनाए जाते हैं। कुंदन में रूई धुनने और जिबेल--उस--सिराज, पुल--ए--खुमरी तथा गुलबहार में सूती कपड़े बुनने के कारखाने हैं। बघलन एवं जलालाबाद में चीनी के कारखाने हैं। हाल में जिबेल--उस--सिराज में सीमेंट उद्योग का विकास हुआ है।
इस राज्य में आवागमन की समस्या जटिल है जहाँ रेलों का सर्वथा अभाव है और सड़कों की स्थिति अच्छी नहीं है। अत: मोटर गाड़ियों का प्रयोग दिनोदिन बढ़ता जा रहा है।
चारों ओर अन्य देशों से घिरे होने के कारण अफगानिस्तान का ९०% वैदेशिक व्यापार पहले पाकिस्तान द्वारा होता था, किंतु २ जून, १९५५ ई. को अफगानिस्तान तथा रूस के बीच पंचवर्षीय परिवहन संधि होने के बाद अफगानिस्तान का व्यापार विशेष रूप से रूस द्वारा होने लगा है। मुख्य आयात सूती कपड़ा, चीनी, जातु की बनी सामग्री, पशु, चाय, कागज, पेट्रोल सीमेंट आदि हैं, जो विशेषत: भारत रूस तथा पाकिस्तान से प्राप्त होते हैं। सूखे एवं रसदार फल, मसाले, कराकुल नामक चर्म, दरियाँ, रुई एवं कच्चा ऊन यहाँ के मुख्य निर्यात हैं, जो प्रधानत: भारत, रूस, संयुक्त राज्य (अमरीका) तथा ब्रिटेन को भेजे जाते हैं।
(न.कि.प्र.सि.)
इतिहास : १८वीं शताब्दी के मध्य तक अफगानिस्तान नाम से विहित राज्य की कोई पृथक् सत्ता नहीं थी अत: अफगानिस्तान की भौगोलिक संज्ञा का उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ उपयोग बहुत कुछ १७४७ के पूर्व तक आनुवंशिक था। इसके एक संगठित राष्ट्रीय एकतंत्र के रूप में उदय होने से पूर्व इस देश का इतिहास अत्यंत वैविध्यपूर्ण है।
आर्यो के आगमनकाल (ई.पू. द्वितीय तथा प्रथम सहस्राब्दी) में राज्य ईरानी जातियों द्वारा अधिकृत थे। बाद में कुरूष् ने इन राज्यों को हखमनी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। ई.पू. चौथी शताब्दी में सिकंदर ने इन राज्यों को विजित कर लिया। सिकंदर के पश्चात् परवर्ती यूनानी शासक शकों और पार्थवों द्वारा हटा दिए गए। ई.पू. प्रथम शताब्दी में उनपर कुषाणवंश के शासकों का आधिपत्य रहा जो कुजुल कदफिसिस तथा कनिष्क के काल में अपने पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त हुआ। कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् उसका साम्राज्य अधिक समय तक नहीं टिक सका, किंन्तु कुषाण शासक हिंदूकुश की दक्षिणी पूर्वी घाटियों में तब तक बने रहे जब तक श्वेत हूणों ने उनपर अधिकार नहीं जमा लिया। इन हूणों ने ईसा की पाँचवीं और छठी शताब्दी में अफगानिस्तान के उत्तरी एवं पूर्वी भागों पर अधिकार कर लिया था ७वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य पूर्वी अफगानिस्तान की राजनीतिक अवस्था का सम्यक् वर्णन हेनत्सांग ने किया है।
७वीं शताब्दी में अरबविजय का ज्वार अफगानिस्तान पहुँचा। इस आक्रमण की एक लहर सिजिस्तान होकर गुजरी, किंतु प्रथम तीन शताब्दियों में यहाँ से होनेनवाले काबुल विजय के प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। काबुली प्रांत, अन्य पूर्वी प्रांतों की अपेक्षा इस्लामीकरण का प्रतिरोध अधिक समय तक करता रहा। सुलतान महमूद गजनवी (९९७-१०३०) के काल में अफगानिस्तान एक महान् किंतु अल्पीजीवी साम्राज्य का प्रधान केंद्र बना जिसके अंतर्गत ईराक तथा कैस्पियन सागर से रावी नदी तक के विस्तृत भूभाग थे। महूद के उत्तराधिकारी गुरीदों द्वारा ११८६ ई. में पराजित हुए। तत्पश्चात् अफगानिस्तान अल्प समय के लिए ख्वारिज़्मी शाहों के हाथों आया। १३वीं शताब्दी में इसपर मंगोलों ने अधिकार जमा लिया जो हिंदूकुश के उत्तर जम गए थे। उगुदे की मृत्यु के बाद मंगोल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और अफगानिस्तान फारस के इल्खामों के हिस्से पड़ा। इन्हीं के प्रभुत्व में ताजिकिस्तान का 'कार्त' नामक एक राजवंश शासनारूढ़ हुआ और देश के अधिकांश पर प्राय: दो शताब्दियों तक शासन करता रहा। अंत में तैमूर ने आकर इस वंश का अंत कर डाला तथा हिरात विजय के पश्चात् उत्तरी अफगानिस्तान में अपने को दृढ़ कर लिया।
१६वीं शताब्दी के आरंभ में, बाबर के समय, ये राज्य काबुल और कंजार में केंद्रित हो गए थे, जो भारतीय मुगल साम्राज्य के प्रांत बन गए। किंतु, हिरात फारस के शहों के अधिकार में चला गया। एक बार अफगानिस्तान पुन: विभाजित हुआ, फलत: बल्ख़ उजबेकों और कंजार ईरानियों के बाँट पड़ा। १७०८ में कंजार के ग़्लािज़ाइयों ने ईरानियों को निकाल भगाया और १७२२ में फारस पर आक्रमण कर उसपर अपना अस्थायी शासन स्थापित कर लिया। १७३७-३८ में नादिरशाह ने, जो फारस के महत्तम शासकों में से था, कंजार दखल कर काबुल जीत लिया।
१७४७ में नादिरशाह के मरने पर कंजार के अफगान सरदारों ने अहमद खाँ (बाद में अहमदशाह अब्दाली के नाम से विख्यात) को अपना मुखिया चुना और उसके नेतृत्व में अफगानिस्तान ने इतिहास में प्रथम बार एक स्वाधीन शासनसता द्वारा शासित, अपना राजनीतिक अस्तित्व प्राप्त किया। अहमदशाह ने दुर्रानी राजवंश की नींव डाली और अपने राज्य का विस्तार पश्चिम में लगभग कैस्पियन सागर, पूर्व में पंजाब और कश्मीर तथा उत्तर में आमू दरिया तक किया।
१९वीं शताब्दी में अफगानिस्तान दोतरफादबाया गया; एक ओर रूस आमू दरिया तक बढ़ आया और दूसरी ओर ब्रिटेन उत्तर पश्चिम में खैबर क्षेत्र तक चढ़ आया। १८३९ में एक भारतीय ब्रिटेन सेना ने कंजार, गजनी और काबुल पर अधिकार कर लिया। दोस्तमुहम्मद को हटाकर शहशुजा नामक एक परवर्ती असफल शासक को अमीर बना दिया गया। इस परिवर्तन के विरुद्ध वहाँ भीषण प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, फलत: शहशुजा और कई ब्रिटिश अधिकारी तलवार के घाट उतार दिए गये। १८४२ के दिसंबर में ब्रिटिश सरकार ने अफगानिस्तान को खाली कर दिया और दोस्तमुहम्मद को फिर से अमीर होने की स्वीकृति दे दी। १८४९ में दोस्तमुहम्मद ने सिक्खों की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उनकी लड़ाई में सहायता की, फलत: पेशावर का क्षेत्र हाथ से निकल गया जो ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया। १८६३ में दोस्त मुहम्मद ने हिरात को ईरानियों से पुन: छीन लिया। उसके बेटे शेरअली खँ ने रूसियों को स्वीकृति तो दे दी, किंतु ब्रिटिश एजेंटों को रखने से इन्कार कर दिया। इससे द्वितीय अफगान युद्ध (१८७८-८१) छिड़ गया, फलत: शेरअली खाँ भागा और उसकी मृत्यु हो गई। उसके बेटे याकूब खाँ ने ब्रिटिश सरकार से एक संधि की। उसने खैबर दर्रे के साथ सीमा के कई प्रदेशों को छोड़ दिया और ब्रिटेन को अफगानिस्तान वे वैदेशिक संबंजाऐं को नियंत्रित करने की स्वीकृति दे दी। इस प्रबंध के विस्द्ध भड़कनेवाले जनद्वेष और क्रोध के परिणामस्वरूप ब्रिटिश रेजिडेंट की हत्या हुई और याकूब खाँ गद्दी से उतार दिया गया। तत्पश्चात् दोस्तमुहम्मद का पोता अब्दुर्रहमान खाँ अमीर के रूप में मान्य हुआ। अब्दुर्रहमान ने अपना प्रभुत्व कंधार और हिरात तथा बाद में काफिरिस्तान तक बढ़ा लिया। उसने स्थानीय जातीय सरदारों द्वारा नियंत्रित एक सशक्त केंद्रीय शासन स्थापित करने, अच्छी प्रकार से शिक्षित एक स्थायी सेना को संगठित करने, विद्रोहों को कुचलने और करव्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए अफगानिस्तान को आधुनिक राष्ट्र की भाँति तैयार करने की आवश्यकता का पथ प्रशस्त किया। अब्दुर्रहमान के बेटे हबीबुल्ला खाँ ने, जाए १९०१ में गद्दी पर बैठा, मौटरकारों, टेलीफोनों, समाचारपत्रों और काबुल के लिए प्रकाशयुक्त विद्युत् व्यवस्था का समारंभ किया ।
१९१९ में हबीबुल्ला के एक भतीजे अमानुल्ला खाँ ने गद्दी सँभाली। उसने तुरंत अफगानिस्तान के पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की और ग्रेट ब्रिटेन से लड़ाई छेड़ दी जो शीघ्र ही एक संधि से समाप्त हो गई। उसके अनुसार ग्रेट ब्रिटेन ने अफगानिस्तान के पूर्ण स्वातंत्रय को मान्यता दी और अफगानिस्तान ने वर्तमान ऐंग्लों अफगानिस्तान सीमा स्वीकार कर ली।
अमानुल्ला ने अमीर का पद सामप्त कर दिया और उसके स्थान पर 'बादशाह' उपाधि निजाएर्रित की तथा सरकार को एक केंद्रित प्रतिनिधि राजतंत्र के अंतर्गत मान्यता दी। उसने अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने के लिए वहाँ वेगवान तथा द्रुत सुजारों की बाढ़ ला दी। मुल्लाओं के जार्मिक और खानों (सामंतों) तथा कबायली सरदारों के लौकिक अधिकारों के प्रति उसकी चुनौती ने उनके प्रबल प्रतिरोध को जन्म दिया जिसके परिणामस्वरूप १९२९ का विद्रोह हुआ और अमानुल्ला को गद्दी छोड़ विदेश भाग जाना पड़ा। वर्ष के भीतर ही पिछली लड़ाइयों के एक योद्धा मुहम्मद नादिर खाँ ने पुन: शक्ति अर्जित की और नादिरशाह के रूप में राज्यप्रमुख बना। १९३३ में काबुल में उसकी हत्या कर दी गई और उसका उत्तराधिकार मुहम्मद जहीरशाह को मिला जाए १९६५ तक अफगानिस्तान का एकछत्र शासक रहा।
भाषा तथा साहित्य---अफगानिस्तान की प्रधान भाषाएँ पश्तो और फारसी हैं। पश्तो सामान्यत: अफगानी जातियों की भाषा है जो अफगानिस्तान के उत्तरी-पूर्वी भाग में बोली जाती है। काबुल का क्षेत्र और गजनी मुख्य रूप से फारसी--भाषा--भाषी हैं। राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने तथा शिक्षा के विस्तार को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सरकार ने पश्तों को राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है।
यद्यपि विस्तृत रूप से पश्तो भारतीय आर्यभाषा से निकली है, फिर भी अपने स्रोत और गठन में यह ईरानी भाषा है। ध्वनिपरिवर्तनों और बाह्मग्रहरण ने पश्तों को एक स्वरव्यवस्था दी है जिसके अंतर्गत ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनकी ध्वन्यात्मकता फारसी भाषा के लिए अपरिचित है। पश्तो के तीन अक्षर उसके लिए विलक्षण लगते हैं जो फारसी में नहीं प्रयुक्त होते।
सन् १९४०-४१ में अब्दुल हई हबीबी ने सुलेमा मकू द्वारा विरचित 'तज़किरातुलउलिया' नामक काव्यसंग्रह के कुछ अंश प्रकाशित किए जो ११वीं शताब्दी के रचे बताए गए हैं। किंतु उनकी प्रामाणिकता अभी पूर्णात: स्थापित नहीं हो सकी है। रावर्ती के अनुसार पश्तों में लिखी गई प्राचीनतम कृति खोज निकाली गई है जो १४१७ में लिखित शेखमाली की यूसुफ़जाएज़ नामक इतिहास पुस्तक है। अकबर के शासनकाल में रौशनिया आंदोलन के पुरस्कर्ता बयाजिद अंसारी (ल. १५८५) ने पश्तो में कई पुस्तकें लिखीं। उसका खैरूल-बयान अत्यंत प्रसिद्ध कृति है। खुशाल खाँ खत्तक (ल. १६९४) ने , जो आधुनिक अफगानिस्तान का राष्ट्रीय कवि है लगभग सौ कृतियों का फारसी से पश्तों में अनुवाद किया है। उसके पोते अफ़जल खाँ ने तारीखी-मुरस्सा नामक अफगानों का इतिहास लिखा। १८तीं शताब्दी में अव्दुर्रहमान और अब्दुल हामिद नामक पश्तों के दो लोकप्रिय कवि हो गए हैं। १८७२ में विद्यार्थियों के उपयोग के लिए कालिद अफगानी नामक एक रचना रची गई थी जिसमें पश्तो गद्य और पद्य के नमूने प्राप्त होते हैं। १८२९ में खारकोव के राजकीय रूसी विश्वविद्यालय के प्राफेसर बी. दोर्न ने पश्तो का अंग्रेजी व्याकरण लिखा। पश्तो अकादमी ने अभी हाल में ही अनेक साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन किया है।
सं.ग्रं.---साइक्स: ए हिस्ट्री ऑव अफगानिस्तान, (१९४०); फेरियर : हिस्ट्री ऑव दि अफगान्स (१८५४); मेलियन : हिस्ट्री ऑव अफगानिस्तान (१८७४); अफगानिस्तान ऐंड दि अफगान्स (१८७९); सुल्तान मुहम्मद खाँ : कांस्टिट्यूशन ऐंड लॉज़ ऑव अफगानिस्तान (१९१०); लॉकहर्ट : नादिरशाह (१९३८); यीट : नार्दर्न अफगानिस्तान (१८८८); मुहममदअली : प्रॉग्रेसिव अफगानिस्तान (१९३३); टेट : दि किंगडम ऑव अफगानिस्तान, ए हिसटारिकल स्केच (१९११); मुहममद खँ : हयाती-अफगानी (उर्दू में अफगानिस्तान का इतिहास, १८३७); मुहम्मद हुसेन खाँ : इन्कलाबी अफगानिस्तान (उर्दू में, १९३१); व्याकरण (१८६७); मॉर; रिपोर्ट ऑव ए लिंग्विस्टिक मिशन ट अफगानिस्तान (१९२०); एनसाइक्लोपीडिया ऑव इस्लाम (संशोधित संस्करण), खंड १, फैसिकुलस ४।
(खा.अ.नि.; कै.चं.श.)