अनिवार्य भरती राष्ट्र के एक विशेष आयुवर्ग के व्यक्तियों को किसी भी निश्चित संख्या में विधान के बल पर सैनिक बनाने के लिए बाध्य करना अनिवार्य भरती (अंग्रेजी में कॉन्सक्रिप्शन) कहलाता है। जब किसी राष्ट्र को युद्ध की आशंका या इच्छा होती है तो उसे शीघ्रातिशीघ्र अपनी सैन्य शक्ति बढ़ानी होती है। यदि स्वेच्छा से लोग पर्याप्त मात्रा में भरती न हुए तो विशेष राजकीय आज्ञा से राष्ट्र के युवावर्ग को भरती के लिए बाध्य किया जाता है। साधारणत: ऐसी परिस्थिति कम जनसंख्या वाले राष्ट्रों में ही उत्पन्न होती है। अधिक जनसंख्यावाले राष्ट्रों में स्वेच्छा से ही अधिक संख्या में लोग भरती हो जाते हैं और अनिवार्य भरती के साधनों का प्रयोग नहीं करना पड़ता।

अनिवार्य भरती का सिद्धांत अति प्राचीन है। भारतवर्ष में क्षत्रिय वर्ग अवसर पड़ने पर अस्त्रशस्त्र धारण करने के लिए धर्मबद्ध था। यूनान तथा रोम के सभी स्वस्थ व्यक्ति युद्ध के लिए कर्तव्यबद्ध समझे जाते थे। 'अनिवार्य भरती' की प्रथा सर्वप्रथम फ्रांस में सन् १७९८ ई. में चली। इसी वर्ष फ्रांस में अनिवार्य भरती का सिद्धांत विधान के बल पर स्थायी रूप से लागू हुआ। इसका श्रेय जनरल कोनारडिन को है। इस कानून के प्रचलित होने से फ्रांसीसी राज्य के पास एक ऐसी शक्ति आ गई जिससे वह इच्छानुसार अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ा सकता था। नेपोलियन की विजयों का अधिकांश श्रेय इसी नीति को है। फ्रांस की इस क्षमता से प्रेरित होकर उसने सन् १८०५ ई. में गर्व से कहा था: 'मैं तीस हजार नवीन सैनिकों को प्रति मास युद्धक्षेत्र में झोंक सकता हूँ।' आवश्यकतावश और फ्रांस की क्षमता से प्रभावित होकर पश्चिम के सभी राष्ट्रों ने धीरे-धीरे इस नीति को अपना लिया।

अनिवार्य भरती का प्रचलन फ्रांस में सर्वप्रथम अधिकांश लोगों की इच्छा के विरुद्ध हुआ था। फिर भी यह सफल रहा और धीरे-धीरे कानून के रूप में परिणत हो गया, क्योंकि परिस्थिति और वातावरण इसके अनुकूल थे। अनिवार्य भरती संबंधी विधान बनने के पहले सैनिक जीवन के लिए आकर्षण कम था और सन् १७८९ की फ्रांसीसी क्रांति के समय तक पश्चिमी देशों की सेनाओं का काफी पतन हो चुका था। इस क्रांति में राजकीय सेनाएँ कट-पिट गई और प्रश्न उठा कि राष्ट्र की रक्षा कैसे हो। इस क्रांति का सिद्धांत था कि राष्ट्र के सभी व्यक्ति बराबर हैं, इसलिए नियम बनाया गया कि जो स्वेच्छा से सेना में भरती होंगे वे तो होंगे ही, उनके अतिरिक्त १८ और ४० वर्ष के बीच की आयु के सभी अविवाहित पुरुष सेना में अनिवार्य रूप से भरती किए जा सकेंगे। शेष व्यक्ति सेना में तो नहीं भरती किए जाएँगे, परंतु वे अपने-अपने नगरों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय संरक्षक का कार्य करेंगे। प्रारंभ में अधिकांश जनमत के विरुद्ध होने के कारण इसमें किसी प्रकार की सख्ती नहीं की गई। इसका परिणाम यह हुआ कि जितने सैनिक अपेक्षित थे उतने भरती नहीं किए जा सके। इसलिए जुलाई, सन् १७९२ में 'फ्रांस खतरे में' का नारा उठाए जाने पर प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति के लिए सेना में भरती होना अनिवार्य हो गया। किंतु यह केवल सैद्धांतिक विचार ही बना रहा, क्योेंकि तब तक इस कानून को लागू करने की कोई सुचारू व्यवस्था नहीं बन सकी थी। जितने सैनिकों की आवश्कता थी उनके आधे हीे भरती हुए।

तब फ्रांस के युद्धमंत्री कारनो ने अनिवार्य भरती की एक व्यवस्था बनाई जिसके अनुसार १८ वर्ष से २५ वर्ष की आयु तक के युवा व्यक्ति ही भरती किए गए। यह व्यवस्था उसी वर्ष कानून बना दी गई। इससे अत्यधिक सफलता मिली। इस सफलता का मुख्य कारण यह था कि इस आयुवर्ग के युवक न तो अधिक थे और न वे राजनीतिक वा सामाजिक क्षेत्र में इतने प्रभावशाली ही थे कि कानून के विरुद्ध कुछ कर सकते। इसके अतिरिक्त कुछ परिस्थितियाँ और भी थीं जिनसे सैनिक जीवन महत्व पा गया था। देश में अकाल पड़ा हुआ था, राजनीतिक अत्याचार और हत्याएँ बढ़ रही थीं। इनसे बचने का सरल उपाय सेना में भरती हो जाना ही था। फलत: सन् १७९४ ई. में फ्रांस की सैनिक संख्या ७,७०,००० से भी ऊपर हो गई। नेपोलियन की सन् १७९६ की सफलता का प्रमुख कारण यही कानून था।

क्रांति और बाह्य आक्रमण का भय, दोनों ऐसी परिस्स्थितियाँ थीं जिन्होंने फ्रांस के उत्साह को बनाए रखा। किंतु नेपोलियन के इटलीवाले सफल युद्धों के बाद शांति का कुछ अवसर मिला और तब लोगों को अनिवार्य भरती की कठोरता का आभास होने लगा। इस प्रथा के विरुद्ध युक्तिसंगत आलोचनाएँ प्रारंभ होने लगीं। कुछ लोगों का कहना था कि इस प्रथा द्वारा मानवशक्ति का, जो राष्ट्र की धनवृद्धि का प्रमुख साधन है, दुरुपयोग होता है। कुछ लोगों का कहना था कि किसी मनुष्य की प्रकृति तथा रुचि के अनुसार ही उसका व्यवसाय होना चाहिए। अनिवार्य भरती से रुचि और प्रकृति के विरुद्ध होते हुए भी मनुष्य सैनिक कार्य के लिए बाध्य किया जाता है। दूसरों का कहना था कि कानून की सहायता से सेना की वृद्धि तो की जा सकती है, पर सैनिकों को पूर्ण मनोयोग और शक्ति से लड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इन सब विरोधपूर्ण बातों के होते हुए भी, सन् १७९८ में अनिवार्य भरती का कानून स्थायी रूप से मान लिया गया और 'अनिवार्य भरती' शब्द का प्रथम बार निर्माण हुआ। जनमत को देखते हुए कानून में कुछ संशोधन कर दिए गए, जिसके फलस्वरूप पहले से कम सख्ती से काम लेना प्रारंभ हुआ। धन देकर, या अपने स्थान पर दूसरे व्यक्ति को नियुक्ति कर देने से, अनिवार्य भरती से छुटकारा पाया जा सकता था।

नेपोलियन के हारने के बाद प्रशिया (जरमनी) में अनिवार्य भरती का नियम अधिक दृढ़ता से लागू किया गया। सबके लिए तीन वर्षों तक सैनिक शिक्षा लेना अनिवार्य हो गया। इनमें से कुशाग्र बुद्धिवाले व्यक्ति अफसर बनते थे। इस प्रकार वहाँ साधारण सैनिक और कुशल नायकों तथा सेनापतियों का अतुलित भंडार सदा तैयार रहता था। परंतु पीछे सभी देशों में अनिवार्य भरती का मूल्य घटने लगा, क्योंकि युद्ध के नए-नए यंत्र निकलने लगे और बड़ी सेनाओं के बदले यंत्रों से सुसज्जित छोटी सेनाएँ अधिक वांछनीय हो गई।

१९१४-१८ के प्रथम विश्वयुद्ध में दोनों ओर अनिवार्य भरती चल रही थी। इस युद्ध में एक करोड़ से अधिक व्यक्ति मारे गए। सबने अनुभव किया कि कुशल कारीगरों अथवा बुद्धिमान वैज्ञानिकों को साधारण सैनिकों के समान युद्ध में झोंक देना मूर्खता है। वे कारखानों और प्रयोगशालाओं में रहकर विजयप्राप्ति में अधिक सहायता पहुँचा सकते थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध में तो यह अनुभव हुआ कि बच्चे, बूढ़े सब पर बम पड़ सकते हैं, और प्राय: सभी किसी न किसी रूप में युद्ध की अनुकूल प्रगति में हाथ बँटा सकते हैं। स युद्ध के पहले से ही इंग्लैंड में सब युवकों को छह महीने की अनिवार्य सैनिक शिक्षा लेनी पड़ती थी। इस युद्ध में अपने यांत्रिक बल से जर्मनी ने पोलैंड को तीन सप्ताह में, नारवे को प्राय: दो दिन में, हालैंड को पाँच दिन में, बेल्जियम को १८ दिन में और क्रीट को १० दिन में जीता। यह सब टैंक, वायुयान, मोटर लारी आदि के कारण संभव हो सका।

अमरीका में १७७२ में और फिर १८१२ में अनिवार्य भरती आंरभ की गई, परंतु विशेष सफलता नहीं मिली। उन दिनों इसकी बहुत आवश्यकता भी नहीं थी। १८६२ के घरेलू युद्ध में भी अनिवार्य भरती सफल ही रही। प्रथम विश्वयुद्ध में अनिवार्य भरती के लिए १९१७ में विधान बना, जिससे २१ से लेकर ३० वर्ष तक के पुरुषों में से कोई भी अनिवार्य रूप से भरती किया जा सकता था। इस प्रकार लगभग १३ लाख व्यक्ति भरती किए गए। उन्हीं लोगों को छूट थी जो विधान सभा के सदस्य या प्रांतों तथा जिलों आदि के अधिशासक या न्यायाधीश अथवा गिरजाघरों के पुरोहित थे। जिन लोगों को अपने अत:करण के कारण आपत्ति थी, उनको लड़ाई पर न भेजकर युद्ध संबंधी कोई अन्य काम दिया जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध में लगभग इसी प्रकार की अनिवार्य भरती हुई थी और १९४२ के अंत तक चार-पाँच लाख व्यक्ति हर महीने भरती किए जाते थे।

सं.ग्रं.-एफ़.एन.मॉड : वालंटरी वर्सस कंपल्सरी सर्विस (१८९१); ई.एम. अर्ल इत्यादि (संपादक) : मेकर्स ऑव माडर्न स्ट्रैटेजी (१८४३); अमेरिकन अकैडेमी ऑव पॉलिटिक्स ऐंड सायंस : यूनिवर्सल मिलिटरी ट्रेनिंग ऐंड नैशनल सिक्योरिटी (१९४५) (आ.सिं.स.)