अतिथि अतिथि के प्रति पूज्य भावना की सत्ता वैदिक आर्यों में अत्यंत प्राचीन काल से है। ऋग्वेद में अनेक मंत्रों में अग्नि से अतिथि को उपमा दी गई है। (८।७४।३-४)। अतिथि वैश्वानर का रूप माना जाता था (कठ. १।१।७) इसीलिए जल के द्वारा उसकी शांति करने का आदेश दिया गया है। अतिथिर्नमस्य (अतिथि पूज्य है)- भारतीय धर्म का आधारपीठ है जिसका पल्लवन स्मृति ग्रंथों में बड़े विस्तार से किया गया है। उनमें अतिथि के लिए आसन, अर्थ तथा मधुपर्क का विधान हुआ है। महाभारत का कथन है कि जिस पर से अतिथि भग्नमनोरथ होकर लौटता है उसे वह अपना पाप देकर तथा उसका पुण्य लेकर चला जाता है। अतिथिसत्कार को पंचमहायज्ञों में स्थान दिया गया है। (ब. उ.)
अग्नि का भी और दाशरथी राम के पौत्र अर्थात् कुश के पुत्र का भी एक नाम अतिथि था। कुशपुत्र अतिथि के विषय में कहा जाता है कि उसने दस हजार वर्षों तक राज्य किया। इनके अतिरिक्त शिव को भी उक्त संज्ञा प्राप्त है। (स.)