अजंता
इटारसी से बंबई
जाने वाली रेल
लाइन पर जलगाँव
स्टेशन से फरदापुर
गाँव होकर
अजंता जाने का
मार्ग है। यहाँ
सह्यद्रि पर्वत के
उत्संग में २९ गुफाएँ
उत्कीर्ण हैं। नीचे
वागुरा नदी
की पारिजात
वृक्षों से भरी
हुई द्रोणी है।
ये गुफाएँ अपनी
शिल्प संपत्ति और,
विशेषत चित्रकला
के लिए विख्यात
हैं। १-१८ संख्यक गुफाएँ
दक्षिणमुखी और
शेष पूर्वमुखी
हैं। गुफा ९,१०,१९ तथा
२६ चैत्यमंदिर,
शेष विहार हैं।
चैत्यगुहा १० और
उसके साथ की विहार
गुहा १२,१३ सबसे प्राचीन,
लगभग दूसरी
शती ई. पू. की
हैं। उसी वर्ग में
चैत्यगुहाएँ और
विहारगुहा
८ आंध्र-सातवाहन-युग
की हैं। इसके बाद
लगभग दो शती
तक अजंता में निर्माण
कार्य स्थगित रहकर
गुप्त-वाकाटक-युग
में यह केंद्र महायान
प्रभाव में पुन
वैभव को प्राप्त
हुआ। पहली गुफाएँ
हीनयान प्रभाव
की द्योतक हैं। इस
बार बुद्ध मूर्ति
को केंद्र में रखकर
शिल्प और चित्रों
का ताना बाना
पूरा गया। विहारगुहा
११,७,६ का उत्खनन पाँचवीं
शती के पूर्वार्ध
में हुआ। पाँचवीं
शती के अंतिम
भाग में विहारगुहा
१५, १६, १७, १८, २० और चैत्यगुहा
१९ का निर्माण हुआ।
विहारगुहा
१६ वाकाटक नरेश
हरिषेण (४७५-५०० ई.)
के सचिव वराहदेव
ने बनवाई। उसके
लेख में गुहा के
भीतर यतींद्र
बुद्ध के चैत्यमंदिर,
एवं गवाड़ा, निर्यूह,
वीथि, वेदिका
और अप्सराओं
के अलंकरणों
का वर्णन है। विहारगुहा
१७ भी हरिषेण के
समय की है। उसके
लेख में उसे एकाश्मक
मंडपरंत और
गुहा १९ को गंधकुटी
कहा गया है। तदनंतर
विहारगुहा
२१-२५ और चैत्यगुहा
२६ का निर्माण छठी
शती के उत्तरार्ध
में और विहारगुहा
१-२ का निर्माण सप्तम
शती के पूर्वार्ध
में हुआ ज्ञात होता
है। नरसिंहवर्मन
पल्लव द्वारा पुलिकेशी
द्वितीय की पराजय
(६४२ ई.) के बाद चैत्य
और विहारों
का काम रुक गया
और कुछ अधूरे
ही रह गए।
चैत्यगुहा १० और ९ का आकार वृत्तायत है, अर्थात् पिछला भाग अर्धवृताकार और अगला आयताकार है। उनके बीच में मंडप और दो ओर प्रदक्षिणा मार्ग हैं। महायान युग के चैत्यमंदिरों-गुहा १९, २६-का स्थापत्य विन्यास ऐसा ही है, पर उनमें अनेक बुद्धमूर्तियाँ और बुद्ध के जीवन की घटनाएँ उत्कीर्ण हैं। गुहा १९ का मुखपद अति भव्य है। उसका कृतिमुख (कचैत्यवातायन) अति विशाल और अलंकृत है। गवाक्षजालों से झाँकते हुए स्त्री-पुरुषों के मस्तकों की शोभापट्टियाँ चारों ओर फैली हैं। विहारगुहा बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए संघाराम थे। उनके बीच में विशाल मंडप और चारों ओर कोठरियाँ बनी हुई हैं। गुफाओं की छतें विविध अलंकरणों से विभूषित स्तंभों पर टिकी हुई हैं।
अजंता
गुफाओं की कृति
उनके चित्रों की
विशिष्ट समृद्धि
और सुंदरता
पर आश्रित है।
ये भित्तिचित्र खुरदुरे
पत्थर पर धवलित
भूमि तैयार
करके धातुराग
या गेरू की वर्तिका
या लेखनी से
आकारजनिका
रेखा खींचकर
लिखे गए थे। तत्पश्चात्
रक्त, पीत, नील,
हरित और कृष्ण
वर्णों से इनके
रंग भरे गए। गुफा
१० में छदंत की कथा
चित्रित है। स्त्री-पुरुषों
की आकृतियाँ
और सज्जा भरहुत
और साँची के
शिल्पांकन के
सदृश हैं। चित्रों
का रेखासौष्ठव
उनके आलेखन कौशल
का प्रमाण देता
है। गुहा की भित्तियों
पर अनेक पुरुषों
के चित्र लिखे हैं।
वास्तविक चित्र
समृद्धि गुप्त-वाकाटक-युग
की चैत्यगुहा
१९ और विहारगुहा
१६, १७ की भित्तियों
पर पाई जाती
है। इन गुफाओं
के विशाल मंडप,
जो ५० फुट से अधिक
लंबे चौड़े हैं,
की छतें स्तंभ भित्तियाँ
आदि सर्वांग में
चित्रों से मंडित
थीं। छतों में शतपत्र
और सहस्रपत्र
कमलों के बड़े-बड़े
फुल्ले शोभा के
विशिष्ट उदाहरण
हैं। कमलों के
चारों ओर फुल्लावली
रत्न तथा और
भी अलंकरण हैं;
जैसे गुहा २ की
छत में फुल्लावली,
मणिरत्नखचित
वक्तव्य, माय। मेघमाला
एवं पत्र पुष्प की
महावल्ली दर्शनीय
है। कमल की उड़ती
हुई लतर, हंसों
के शावक या उड़ते
हुए जोड़े, किलोल
करती हुई समुद्रधेनु,
जलतुरग, जलहस्ती,
मालाधारी विद्याधारी,
क्रीड़ा करते हुए
माणवक एवं भाँति-भाँति
की पत्रावली, अलंकरण
के अनेक विधान
उपलब्ध होते हैं।
अजंता के भित्तिचित्र
स्वर्णयुग के सांस्कृतिक
जीवन के प्रतिनिधि
चित्र हैं। बुद्ध का
महान् धर्म उनका
मध्यवर्ती प्रेरक
बिंदु है जिसके
लिए राजकीय अंतपुरों
के जीवन एवं लोकजीवन
की विविध साधनाएँ
समर्पित हैं। अनुत्तरज्ञानावाप्त,
सर्वसत्वों का
हितसुख एवं करुणात्मक
कर्मजनित ध्रुवशांति
का वातावरण
इन चित्रों का विशेष
गुण है। भारतीय
स्वर्णयुग के सांस्कृतिक
और आध्यात्मिक
जीवन की अक्षय्य सामग्री
इन भित्तिचित्रों
में व्याप्त है।
विहारगुहा १६ में बुद्ध के जीवनदृश्य, नंदसुंदरी कथानक एवं छदंत कथानक के दृश्य लिखित हैं। गुहा १७ की भित्तियों पर सप्तमानुषी बुद्ध, भवचक्र, सिंहावलोकन और बुद्ध के कपिलवस्तु के प्रत्यावर्तन के दृश्यों के अतिरिक्त कहीं जातककथाओं के भी चित्र अंकित हैं। इनमें विश्वंतरजातक, शिविजातक, छदंतजातक और हंसजातक के चित्र अपनी अगाध करुणा और अविचल धर्मनिष्ठा की अभिव्यक्ति के कारण स्थायी आकर्षण की वस्तु हैं। इस गुहा में मानव आकृतियाँ अपेक्षाकृत छोटे परिणाम की हैं। चैत्यगुहा १९ में बुद्ध का कपिलवस्तु प्रत्यावर्तन एवं अनेक बुद्धमूर्तियों के चित्र हैं। विहारगुहा १ की भित्तियों पर पद्मपाणि अवलोकितेश्वर के महान् चित्र हैं जिन्हें एशिया महाद्वीप की कला में सबसे अधिक ख्याति प्राप्त है। इनके अतिरिक्त बुद्ध के मारघर्षण का भी एक अत्यंत ओजस्वी चित्र यहाँ है जिससे उस युग की धार्मिक साधना की दुर्धर्ष शक्ति का परिचय मिलता है। इसी गुहा में महाजनक जातक और शिविजातक के विशाल कथात्मक अंकन भी उल्लेखनीय हैं। वर्णों की आढ्यता और नतोन्नत संपुंजन या वर्तना की दृष्टि से विहारगुहा २ के चित्र अतिश्रेष्ठ हैं। उनमें शांतिवादी जातक और मैत्रीबल जातक के दृश्यों का आलेखन एवं श्रावस्ती में बूद्ध के सहस्रात्मक स्वरूप के दर्शन का चित्रण भी श्लाघनीय है। वास्तु, शिल्प और चित्र इन तीनों कलाओं का संतुलित विकास अजंता की शिल्पकृतियों में उपलब्ध होता है। यहाँ के चित्रशिल्पी लगभग चौथी से सातवीं सदी तक अत्यंत आकर्षक और प्रभविष्णु रूपसत्व का निर्माण करते रहे।
सं. ग्रं.- जे. ग्रिफिथ्स अजंता के बौद्ध गुहामंदिरों के चित्र, दो भाग, लंदन, १८९६-९७; श्रीमती हैरिंघम अजंता भित्तिचित्र (अजंता फ्रेस्कोज़), लंदन १९१५; गुलाम यज़दानी अजंता, ४ भाग, टेक्स्ट और प्लेट; बालासाहब पंतप्रतिनिधि अजंता, १९३२। (वा. श. अ.)
चित्र
अजंता
ऊपर अजंता की गुफाओं का विहंगम दृश्य (भारत सरकार, पुरातत्व विभाग के सौजन्य से)। नीचे- राजकीय जुलूस का भित्तिचित्र, द्र. पृष्ठ ८० (भारत सरकार के पब्लिकेशंस डिवीजन के सौजन्य से)।
अजंता
बाईं ओर अजंता, गुफा सं. १९ का चैत्यद्वार; दाहिनी ओर प्रसाधन का भित्तिचित्र, द्र. पृष्ठ ८० (भारत सरकार के पब्लिकेशंस डिवीजन के सौजन्य से)।
अजंता
बाईं ओर यशोधरा का भित्तिचित्र; दाहिनी ओर पद्मपाणि अवलोकितेश्वर का भित्तिचित्र, द्र. पृष्ठ ८० (भारत सरकार के पब्लिकेशंस डिवीजन के सौजन्य से)।
अजंता
आकाशगामी विद्याधर-विद्याधरियों का रेखांकन, द्र. पृष्ठ ८० (भारत सरकार पब्लिकेशंस डिवीजन के सौजन्य से)।
अप्सरा के एक अंश की झाँकी (द्र. पृष्ठ १४९)।