अग्निपुराण पुराण साहित्य में अपनी व्यापक दृष्टि तथा विशाल ज्ञान भंडार के कारण विशिष्ट स्थान रखता है। साधारण रीति से पुराण को पंचलक्षण कहते हैं, क्योंकि इसमें सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (संहार), वंश, मन्वंतर तथा वंशानुचरित का वर्णन अवश्यमेव रहता है, चाहे परिमाण में थोड़ा न्यून ही क्यों न हो। परंतु अग्निपुराम इसका अपवाद है। प्राचीन भारत की परा और अपरा विद्याओं का तथा नाना भौतिकशास्त्रों का इतना व्यवस्थित वर्णन यहाँ किया गया है कि इसे वर्तमान दृष्टि से हम एक विशाल विश्वकोश कह सकते हैं। आनंदाश्रम से प्रकाशित अग्निपुराण में ३८३ अध्याय तथा ११,४७५ श्लोक हैं परंतु नारदपुराण के अनुसार इसमें १५ हजार श्लोकों तथा मत्स्यपुराण के अनुसार, १६ हजार श्लोकों का संग्रह बतलाया गया है। बल्लाल सेन द्वारा दानसागर में इस पुराण के दिए गए उद्धरण प्रकाशित प्रति में उपलब्ध नहीं है। इस कारण इसके कुछ अंशों के लुप्त और अप्राप्त होने की बात अनुमानत सिद्ध मानी जा सकती है।

अग्निपुराण में वर्ण्य विषयों पर सामान्य दृष्टि डालने पर भी उनकी विशालता और विविधता पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। आरंभ में दशावतार (अ. १-१६) तथा सृष्टि की उत्पत्ति (अ. १७-२०) के अनंतर मंत्रशास्तर तथा वास्तु शास्त्र का सूक्ष्म विवेचन है (अ. २१-१०६) जिसमें मंदिर के निर्माण से लेकर देवता की प्रतिष्ठा तथा उपासना का पुखानुपुंख विवेचन है। भूगोल (अ. १०७-१२०), ज्योति शास्त्र तथा वैद्यक (अ. १२१-१४९) के विवरण के बाद राजनीति का विस्तृत वर्णन किया गया है जिसमें अभिषेक, साहाय्य, संपत्ति, सेवक, दुर्ग, राजधर्म आदि आवश्यक विषय निर्णीत है (अ. २१९-२४५)। धनुर्वेद का विवरण बड़ा ही ज्ञानवर्धक है जिसमें प्राचीन अस्त-शस्त्रों तथा सैनिक शिक्षा पद्धति का विवेचन विशेष उपादेय तथा प्रामाणिक है (अ. २४९-२५८)। अंतिम भाग में आयुर्वेद का विशिष्ट वर्णन अनेक अध्यायों में मिलता है (अ. २७९-३०५)। छंदशास्त्र, अलंकार शास्त्र, व्याकरण तथा कोश विषयक विवरणों के लिए अध्याय लिखे गए हैं।

(ब. उ.)