अगस्तिन, संत (३५४-४३० ई.)। उत्तरी अफ्रीका के हिप्पो नामक बंदरगाह के बिशप तथा ईसाई गिरजे के महान् आचार्य। इनका पर्व २८ अगस्त को मनाया जाता है। माता-पिता में से इनकी माता मोनिका ही ईसाई थी; उन्होंने अपने पुत्र को यद्यपि कुछ धार्मिक शिक्षा दी थी, फिर भी अगस्तिन ३३ साल की उम्र तक गैर ईसाई बने रहे। अगस्तिन की आत्मकथा से पता चलता है कि साहित्यशास्त्र का अध्ययन करने के उद्देश्य स कार्थेज पहुँचकर भी इन्होंने काफी समय भोग-विलास में बिताया। २० वर्ष की अवस्था के पूर्व ही इनकी रखेल से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। कार्थेज में ये नौ वर्ष तक गैर-ईसाई मनि संप्रदाय के सदस्य रहे किंतु इन्हें उसके सिद्धांतों से संतोष नहीं हुआ और ये पूर्णतया अज्ञेयवादी बन गए। ३८३ ई. में अगस्तिन रोम आए और एक वर्ष बाद उत्तरी इटली के मिलान शहर में साहित्यशास्त्र के अध्यापक नियुक्त हुए। इसी समय इनकी माता विधवा होकर इनके यहाँ चली आई। मिलान में अगस्तिन वहाँ के बिशप अंब्रोस के संपर्क में आए; इससे इनके मन में धार्मिक प्रवृत्तियाँ पनपने लगीं, यद्यपि अभी तक इनकी विषय वासना प्रबल थी। इन्होंने अपनी आत्मकथा में उस समय के आत्म संघर्ष का मार्मिक वर्णन किया है। अंततोगत्वा इन्होंने ३८७ ई. में बपतिस्मा (ईसाई दीक्षा) ग्रहण किया और नवीन जीवन प्रारंभ करने के उद्देश्य से अपनी माता मोनिका, अपने पुत्र और कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ अफ्रीका लौटने का संकल्प किया। इस यात्रा में इनकी माता का देहांत हो गया।
अपने जन्मस्थान पहुँचकर अगस्तिन अध्ययन और साधना में अपना समय बिताने लगे। एक वर्ष बाद इनका पुत्र १७ वर्ष की आयु में चल बसा। अगस्तिन के तपोमय जीवन तथा उनकी विद्वत्ता की ख्याति धीरे-धीरे बढ़ने लगी। ३९१ ई. में ये पुरोहित बन गए; चार साल बाद इनका बिशप के रूप में अभिषेक हुआ और ३९६ ई. में ये हिप्पो के बिशप नियुक्त हुए। मरणपर्यंत इसी छोटे से नगर में रहते हुए भी इन्होंने अपने समय के समस्त ईसाई संसार पर गहरा प्रभाव डाला। इनके २२० पत्र, २३० रचनाएँ तथा बहुत से प्रवचन सुरक्षित हैं। ये लातिनी भाषा के महत्तम लेखकों में से है। इनकी सूक्तियों में समाहार शैली की पराकाष्ठा है। मानव हृदय को स्पर्श करने तथा उसमें धार्मिक भाव जागृत करने की जो शक्ति संत अगस्तिन में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। ये दार्शनिक भी थे और धर्मतत्वज्ञ भी। वास्तव में इन्होंने नव अफ़लातूनवाद तथा ईसाई धर्म विश्वास का समन्वय करने का प्रयास किया।
इनकी आत्मकथा कन्फेशंस (स्वीकारोक्ति) का विश्व साहित्य में अपना स्थान है। उसमें इन्होंने अपनी युवावस्था तथा धर्म परिवर्तन का वर्णन किया है। इनकी दो अन्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। एक का शीर्षक दे त्रिनितात (त्रित्व) है; इसमें ईश्वर के स्वरूप का अध्ययन है। दूसरी दे सिविताते देई (ईश्वर का राज्य) में संत अगस्तिन ने विश्व इतिहास के रहस्य तथा कैथलिक गिरजे के स्वरूप के विषय में अपने विचार प्रकट किए हैं। इसके लिखने में १३ वर्ष लगे थे।
सं. ग्रं.- जे.जी. पिलकिंगटन कनफेशंस ऑव सेंट ऑगस्टिन, न्यूयार्क, १९२७; यू. मांटगोमरी सेंट ऑगस्टिन, लंदन, १९१४; ओ. बार्डी सेंट ऑगस्टिन। (का.बू.)