अकाली अकाल शब्द का शब्दार्थ है कालरहित। भूत, भविष्य तथा वर्तमान से परे, पूर्ण अमरज्योति ईश्वर, जो जन्ममरण के बंधन से मुक्त है और सदा सच्चिदानंद स्वरूप रहता है, उसी का अकाल शब्द द्वारा बोध कराया गया है। उसी परमेश्वर में सदा रमण करने वाला अकाली कहलाया। कुछ लोग इसका अर्थ काल से भी न डरने वाला लेते हैं। परंतु तत्वत दोनों भावों में कोई भेद नहीं है। सिक्ख धर्म में इस शब्द का विशेष महत्व है। सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव ने परमपुरुष परमात्मा की आराधना इसी अकालपुरुष की उपासना के रूप में प्रसारित की। उन्होंने उपदेश दिया कि हमें संकीर्ण जातिगत, धर्मगत तथा देशगत भावों से ऊपर उठकर विश्व के समस्त धर्मों के मानने वालों से प्रेम करना चाहिए। उनसे विरोध न करके मैत्रीभाव का आचरण करना चाहिए, क्योंकि हम सब उसी अकालपुरुष की संतान हैं। सिक्ख गुरुओं की वाणियों से यह स्पष्ट है कि सभी सिक्ख संतों ने अकालपुरुष की महत्ता को और दृढ़ किया और उसी के प्रति पूर्ण उत्सर्ग की भावना जागृत की। प्रत्येक अकाली के लिए जीवन निर्वाह का एक बलिदानपूर्ण दर्शन बना जिसके कारण वे अन्य सिक्खों में पृथक् दिखाई देने लगे।

इसी परंपरा में सिक्खों के छठे गुरु हरगोविंद ने अकाल बुंगे की स्थापना की। बुंगे का अर्थ है एक बड़ा भवन जिसके ऊपर गुंबज हो। इसके भीतर अकाल तख्त (अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के सम्मुख) की रचना की गई और इसी भवन में अकालियों की गुप्त मंत्रणाएँ और गोष्ठियाँ होने लगीं। इनमें जो निर्णय होते थे उन्हें गुरुमताँ अर्थात् गुरु का आदेश नाम दिया गया। धार्मिक समारोह के रूप में ये सम्मेलन होते थे। मुगलों के अत्याचारों से पीड़ित जनता की रक्षा ही इस धार्मिक संगठन का गुप्त उद्देश्य था। यही कारण था कि अकाली आंदोलन को राजनीतिक गतिविधि मिली। बुंगे से ही गुरुमताँ को आदेश रूप से सब ओर प्रसारित किया जाता था और वे आदर्श कार्य रूप में परिणत किए जाते थे। अकाल बुंगे का अकाली वही हो सकता था जो नामवाणी का प्रेमी हो और पूर्ण त्याग और विराग का परिचय दे। ये लोग बड़े शूर वीर, निर्भय, पवित्र और स्वतंत्र होते थे। निर्बलों, बूढ़ों, बच्चों और अबलाओं की रक्षा करना ये अपना धर्म समझते थे। सबके प्रति इनका मैत्रीभाव रहता था। मनुष्य मात्र की सेवा करना इनका कर्तव्य था। अपने सिर को हमेशा ये हथेली पर लिए रहते थे।

३० मार्च, सन् १६९९ को गुरु गोविंदसिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। इस पंथ के अनुयायी अकाली ही थे। औरंगजेब के अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए अकाली खालसा सेना के रूप में सामने आए। गुरु ने उन्हें नीले वस्त्र पहनने का आदेश दिया और पाँच ककार (कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश तथा कंघा) धारण करना भी उनके लिए अनिवार्य हुआ। अकाली सेना की एक शाखा सरदार मानसिंह के नेतृत्व में निहंग सिंही के नाम से प्रसिद्ध हुई। फारसी भाषा में निहंग का अर्थ मगरमच्छ है जिसका तात्पर्य उस निर्भय व्यक्ति से है जो किसी अत्याचार के समक्ष नहीं झुकता। इसका संस्कृत अर्थ निसर्ग है अर्थात् पूर्ण रूप से अपरिग्रही, पुत्र, कलत्र और संसार से विरक्त पूरा-पूरा अनिकेतन। निहंग लोग विवाह नहीं करते थे और साधुओं की वृत्ति धारण करते थे। इनके जत्थे होते थे और उनका एक अगुआ जत्थेदार होता था। पीड़ितों, आर्तों और निर्बलों की रक्षा के साथ-साथ सिक्ख धर्म का प्रचार करना इनका पुनीत कर्तव्य था। जहाँ भी ये ठहरते थे, जनता इनका आदर करती थी। जिस घर में ये प्रवेश पाते थे वह अपने को परम सौभाग्यशाली समझता था। ये केवल अपने खाने भर को ही लिया करते थे और आदि न मिला तो उपवास करते थे। ये एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। कुछ लोग इनकी पक्षीवृत्ति देखकर इन्हें विहंगम भी कहते थे। सचमुच ही इनका जीवन त्याग और तपस्या का जीवन था। वीर ये इतने थे कि प्रत्येक अकाली अपने को सवा लाख के बराबर समझता था। किसी की मृत्यु की सूचना भी यह कहकर दिया करते थे कि वह चढ़ाई कर गया, जैसे मृत्यु लोक में भी मृत प्राणी कहीं युद्ध के लिए गया हो। सूखे चने को ये लोग बदाम कहते थे और रुपए और सोने को ठीकरा कहकर अपनी असंग भावना का परिचय देते थे। पश्चिम से होने वाले अफगानों के आक्रमणों का मुकाबला करना और हिंदू कन्याओं और तरुणियों को पापी आततायियों के हाथों से उबारना इनका दैनिक कार्य था।

महाराज रणजीत सिंह के समय अकाली सेना अपने चरम उत्कर्ष पर थी। इसमें देश भर के चुने सिपाही होते थे। मुसलमान गाजियों का ये डटकर सामना करते थे। मुल्तान, कश्मीर, अटक, नौशेरा, जमशेद, अफगानिस्तान आदि तक इन्हीं के सहारे रणजीत सिंह ने अपना साम्राज्य बढ़ाया। अकाल सेना के पतन का कारण कायरों और पापियों का छद्मवेश में सेना के निहंगों में प्रवेश पाना था। इससे इस पंथ को बहुत धक्का लगा।

अंग्रेजों ने भी अकालियों की वीरता से भयभीत होकर हमेशा उन्हें दबाने का प्रयास किया। इधर अकाली इतिहास में एक नया अध्याय आरंभ हुआ। जो गुरुद्वारे और धर्मशालाएँ दसों सिक्ख गुरुओं ने धर्मप्रचार और जनता की सेवा के लिए स्थापित की थीं और जिन्हें सदृढ़ रखने के लिए महाराज रणजीत सिंह ने बड़ी-बड़ी जागीरें लगवा दी थीं वे अंग्रेजी राज्य के समय अनेक नीच आचरण वाले महंतों और पुजारियों के अधिकार में पहुँच गई थीं। उनमें सब प्रकार के दुराचरण होने लगे थे। उनके विरोध में कुछ सिक्ख तरुणों ने गुरुद्वारों के उद्धार के लिए अक्टूबर, सन् १९२० में अकालियों की एक नई सेना एकत्रित की। इसका उद्देश्य अकालियों की पूर्व परंपरा के अनुसार त्याग और पवित्रता का व्रत लेना था। इन्होंने कई नगरों में अत्याचारी महंतों को हटाकर मठों पर अधिकार कर लिया। इस समय गुरुनानक की जन्मभूमि ननकाना साहब (जिला शेखपुरा, वर्तमान पाकिस्तान में) के गुरुद्वारे पर महंत नारायण दास का अधिकार था। उससे मुक्त करने के लिए भी गुरुमता (प्रस्ताव) पास किया गया। सरदार लक्ष्मण सिंह ने २०० अकालियों के साथ चढ़ाई की; परंतु उनका तथा उनके साथियों का बड़ी निर्दयता के साथ वध कर दिया गया और उन्हें नाना प्रकार की क्रूर यातनाएँ दी गईं। और भी बहुत से मठों को छीनने में अकालियों को अनेक बलिदान करने पड़े। ब्रिटिश सरकार ने पहले महंतों की भरपूर सहायता की परंतु अंत में अकालियों की जीत हुई। सन् १९२५ तक समस्त गुरुद्वारे, शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के अंतर्गत धारा १९५ के अनुसार आ गए। अकालियों की सहायता में महात्मा गांधी ने बड़ा योग दिया और भारतीय कांग्रेस ने अकाली आंदोलन को पूरा-पूरा सहयोग दिया।

सन् १९२५ से गुरुद्वारा ऐक्ट बनने के पश्चात् इसी के अनुसार गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का पहला निर्वाचन २ अक्टूबर, १९२६ को हुआ। अब शिरोमणि गुरुद्वारा समिति का निर्वाचन प्रति पाँचवें वर्ष होता है। इस समिति का प्रमुख कार्य गुरुद्वारों की देखभाल, धर्म प्रचार, विद्या का प्रसार इत्यादि है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अतिरिक्त एक केंद्रीय शिरोमणि अकाली दल भी अमृतसर में स्थापित है। इसके जत्थे हर जिले में यथाशक्ति गुरुद्वारों का प्रबंध और जनता की सेवा करते हैं। (ब. सिं. स्या.)