अकलंक जैन न्यायशास्त्र के अनेक मौलिक ग्रंथों के लेखक आचार्य अकलंक समय ई. ७२०-७८० है। अकलंक ने भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति और उनके अनेक टीकाकारों के मतों की समालोचना करके जैन न्याय को सुप्रतिष्ठित किया है। उनके बाद होने वाले जैन आचार्यों ने अकलंक का ही अनुगमन किया है। उनके ग्रंथ निम्नलिखित हैं: १. उमास्वाति तत्वार्थ सूत्र की टीका तत्वार्थवार्तिक जो राजवार्तिक के नाम से प्रसिद्ध है। इस वार्तिक के भाष्य की रचना भी स्वयं अकलंक ने की है। २. आप्त मीमांसा की टीका अष्टशती। ३. प्रमाण प्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचन प्रवेश के संग्रह रूप लछीयस्रय। ४. न्याय विनिश्चय और उसकी वृत्ति। ५. सिद्धि विनिश्चय और उसकी वृत्ति। ६. प्रमाण संग्रह। इन सभी ग्रंथों में जैन संमत अनेकांतवाद के आधार पर प्रमाण और प्रमेय की विवेचना की गई है और जैनों के अनेकांतवाद को सदृढ़ भूमि पर सुस्थित किया गया है। विशेष विवरण के लिए देखिए, सिद्धि विनिश्चय टीका की प्रस्तावना। (द. मा.)