अंधक (१) कश्यप और
दिति का पुत्र
एक दैत्य, जो पौराणिक
कथाओं के अनुसार
हजार सिर, हजार
भुजाओं वाला,
दो हजार आँखों
और दो हजार
पैरों वाला
था। शक्ति के मद
में चूर वह आँख
रहते अंधे की
भाँति चलता
था, इसी कारण
उसका नाम अंधक
पड़ गया था। स्वर्ग
से जब वह परिजात
वृक्ष ला रहा था
तब शिव द्वारा
वह मारा गया,
ऐसी पौराणिक
अनुश्रुति है।
- क्रोष्ट्री नामक
यादव का पौत्र
और युधाजित
का पुत्र, जो यादवों
की अंधक शाखा
का पूर्वज तथा
प्रतिष्ठाता माना
जाता है। जैसे
अंधक से अंधकों
की शाखा हुई,
वैसे ही उसके
भाई वृष्णि से
वृष्णियों की
शाखा चली। इन्हीं
वृष्णियों में
कालांतर में
वार्ष्णेय कृष्ण हुए।
महाभारत की
परंपरा के
अनुसार अंधकों
और वृष्णियों
के अलग-अलग गणराज्य
भी थे, फिर दोनों
ने मिलकर अपना
एक संघराज्य (अंधक-वृष्णि-संघ)
स्थापित कर लिया
था।
(भ. श.
उ.)
- अंधक (अंध्र अथवा
आंध्र देश का) ई.
पू. तृतीय शताब्दी
से ई. पू. प्रथम
शताब्दी के बीच
प्राचीन आंध्र देश
में विकसित होने
वाले १८ बौद्ध निकायों
में से एक निकाय
है। ऐसा विश्वास
किया जाता था
कि उत्तरी भारत
से बौद्ध धर्म
के लोपोन्मुख
होने पर दक्षिण
से सद्धर्म का उद्धार
होगा। उस समय
के निकायों
में अंधक निकाय
का विशेष प्रामुख्य
था। इसके प्रामुख्य
के कारण ही इस
सामूहिक नाम
से सम्मिलित होने
वाले अन्य निकायों
का नाम भी अंधक
पड़ गया प्रतीत
होता है। वैसे
इसके अंतर्गत निम्मलिखित
निकायों की
गणना की जाती
है- अंधक, पूर्वशैलीय,
अपरशैलीय, राजगिरिक
तथा सिद्धार्थक।
विनय में शिथिल
रहने वाले एवं
अर्हतों की आलोचना
करने वाले भिक्षुओं
को महासांधिक
कहा गया था। इसमें
चैत्यवादियों,
स्तूपवादियों
और संमितियों
का विशेष प्रामुख्य
था। इनके प्रभाव
में विकसित होने
वाले अंधकों
और वैपुल्यवादियों
का विकास हुआ।
इन दोनों के
बहुत से विचार
एवं सिद्धांत समान
थे। कथावत्थु नामक
बौद्ध ग्रंथ में
महावंश में वर्णित
उपर्युक्त अंधक निकायों
और वैपुल्यवादियों
की आलोचना
की गई है। इन्हीं
निकायों के
सामंजस्य से आगे
चलकर प्रथम ईस्वी
शताब्दी के आसपास
बौद्ध महायान
संप्रदाय का विकास
हुआ। अंधक निकायों
का मुख्य केंद्र आधुनिक
गुंटूर जिले
का वर्तमान धरणीकोट
नामक स्थान था।
विनयपिटक के
एक स्थल पर वर्णन
मिलता है कि
पिलिंदवच्छ की
इच्छाशक्ति के प्रभाव
से राज का महल
सोने का हो
गया। इस प्रकार
के चमत्कार को
देखकर अंधकगणों
ने यह विश्वास
किया कि इच्छा मात्र
से सदैव और
सब जगह ऋद्धियों
की उपलब्धि एवं प्रकाश
संभव है। ऋद्धियों
में विश्वास करने
वाले अंधकगण
बुद्ध को लोकोत्तर
मानते थे और
यह भी विश्वास
करते थे कि बुद्ध
मनुष्य लोक में
आकर नहीं ठहरे
और न बुद्ध ने
धर्म का उपदेश
ही किया। वैपुल्यवादियों
से अंधकों के
बहुत से विचार
मिलते थे जैसे
किसी विशेष
अभिप्राय से मैथुन
की अनुज्ञा। इससे
अंधक और वैपुल्य
निकायों का
महायान और
परवर्ती विकासों
की दृष्टि से महत्व
आँका जा सकता
है। (ना. ना. उ.)