विद्युत् उपकरण (Electrical Instruments) विद्युत् का उपयोग बहुत काल से होता आ रहा है और निरंतर अन्वेषण कार्य के फलस्वरूप आज के युग में अनेक प्रकार के विद्युत् उपकरणों का प्रयोग होने लगा है।
किसी चालक में विद्युत् धारा बहने के लिए यह आवश्यक है कि चालक के दोनों सिरों के बीच कुछ विभवांतर हो जिसे वोल्ट (volt) में मापा जाता है। विद्युत् धारा के मापने की इकाई ऐंपियर (Ampere) है। जब यह धारा किसी चालक में प्रवाहित होती है, तो दो प्रकार के प्रभाव दिखाई पड़ते हैं : (क) चालक के चारों और चुंबकीय क्षेत्र पैदा हो जाता है और उसकी बलरेखाएँ चालक को वृत्ताकार रूप में घेरे रहती हैं। इस चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता धारा मान के समानुपाती होती है, (ख) धाराप्रवाह के कारण चालक के अणुओं में उद्वेग उत्पन्न होता है और फलस्वरूप चालक गरम हो जाता है। ऊष्मा की मात्रा धारामान के वर्ग की समानुपाती होती है। यदि चालक कोई द्रव यौगिक या विद्युत् अपघट्य पदार्थ (electrolyte) होता है, तो धारा उसके अणुओं को उनके अवयवों में विघटित कर देती है। इस कारण कभी द्रव से गैस उत्पन्न होती है और कभी धातु अलग होकर एकत्र हो जाती है। गैस या धातु की मात्रा धारामान और धाराप्रवाह के समय के समानुपाती होती है। धारा के ये सभी प्रभाव धारामान मापने की विधियों में कई रूप से प्रयोग किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त्, यदि किसी चालक के पास चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन हो या दो प्रकार के चालकों के संगम (तापयुग्म) को गरम किया जाए या कुछ रासायनिक क्रिया हो, तब विद्युद्वाहक बल उत्पन्न होता है। अनेक यंत्र इन सिद्धांतों पर निर्भर है। यदि किन्हीं दो चालक पिंडों के बीच विभवांतर हो तो उनके बीच आकर्षण होता है। विभवांतर की माप इस आकर्षण की नाप के द्वारा भी हो सकती है। यदि विद्युन्मय कण या इलेक्ट्रॉन निर्वात में प्रक्षेपित हो तो विद्युतीय या चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव से उनने पथ को मोड़ा जा सकता है। विद्युत् उपकरणों के एक विशेष वर्ग में प्रतिरोध मापने की युक्तियाँ हैं। किसी चालक के सिरों के विभवांतर को उसके प्रतिरोध से, जो ओम (ohm) में मापी जाती है भाग दिया जाए तो चालक से प्रवाहित धारा का मान ऐंपियर (ampere) में ज्ञात हो जाता है। इसे ओम (ohm) का नियम कहते हैं। किसी भी परिपथ (circuit) में किसी समय जितनी विद्युत् शक्ति व्यय हो रही है उसका मान वाट (watt) में मापा जाता है और वह इस समय के विभवांतर (वोल्ट) और धारा (ऐंपियर) के गुणनफल के बराबर होती है। विद्युत् शक्ति वाटमापी (wattmeter) द्वारा मापी जाती है। साधारणतया ऊर्जा किलोवाट घंटा (kilowatt hour) या बोर्ड ऑव ट्रेड (Board of Trade) इकाई में मापी जाती है। शक्ति को किलोवाटों में (१ किलोवाट=१००० वाट) और समय को घंटों में मापने पर शक्ति मान उनके गुणफल के बराबर होता है। यह ऊर्जामापी (Energymeter) से मापा जाता है। यदि विद्युत् संभरण का विभवांतर नियत हो, तो धारा और समय के गुणनफल को मापना ही पर्याप्त होगा और जिसे विद्युत् मात्रामापी दर्शित कर सकेगा। यदि किसी परिपथ में धारा बदलती रहती हो और यह विशेष रूप से उच्च आवृत्ति (high frequency) की हो, तो प्रेरकत्व (inductance) तथा विद्युदधारिता (capacity) दो अन्य गुणों हैं जिन्हें जानना आवश्यक हो जाता है। प्रेरकत्व का मान चालक को घेरे हुए चुंबकीय अभिवाह (magnetic flux) के बराबर होता है। विद्युच्चुंबकीय (electromagnetic) नियम के अनुसार जब कभी यह धारा घटती, या बढ़ती है, तब चालक मे एक विद्युत्वाहक बल (electromotive force) उत्पन्न होता है, जो इस परिवर्तन को रोकना चाहता है। प्रेरकत्व की इकाई हेनरी (henry) है जो भौतिकी के विशेषज्ञ जोज़ेफ हेनरी के नाम पर है। यदि किसी चालक में धारा का मान एक ऐंपियर प्रति सेकंड बढ़े और उसमें इससे एक वोल्ट का विभवांतर उत्नन्न हो जाए तो इस चालक का प्ररेण एक हेनरी होता है। विद्युत्धारिता (capacity) का प्रभाव ठीक इसके विपरीत है, क्योंकि इसमें प्रत्यावर्ती धारा (alternating current) सुविधा से प्रवाहित नहीं हो पाती है और दिष्ट धारा (direct current) प्रवाहित नहीं हो सकती। धारिता की समानता एक लचीली कमानी से की जा सकती है, जो स्थिर बल के कारण थोड़ा बढ़कर रुक जाती है, परंतु परिवर्तनशील बल के प्रभाव में दोलित होती रहती है।
विद्युत् यंत्रों का संक्षिप्त वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है :
क्रम संख्या |
विशिष्ट गुण, जिसको नापना है |
व्यावहारिक इकाई |
मापक यंत्र |
१ |
धारा |
ऐंपियर |
धारामापी, वॉल्टामीटर मापी, अमीटर |
२ |
विभवांतर, विद्युत्वाहक बल |
वोल्ट |
विभवमापी, विद्युन्मापी, वोल्टमापी |
३ |
प्रतिरोध |
ओम |
ह्वीटस्टोन सेतु, ओममापी |
४ |
शक्ति |
वाट |
शक्तिमापी, वाटमापी |
५ |
मात्रा |
कूलॉम |
वॉल्टामीटर विद्युत्मात्रामापी |
६ |
ऊर्जा |
किलोवाटघंटा |
ऊर्जामापी |
७ |
प्रेरकत्व |
हेनरी |
प्राक्षेपिक धारामापी, मैक्सवेल सेतु, हेसेतु तथा अन्य प्रेरकत्वसेतु |
८ |
धारिता |
फैरड |
प्राक्षेपिक धारामापी, शेंटिग सेतु, क्यिन सेतु तथा अन्य धारिता सेतु |
विद्युद्धारा के प्रधानत: तीन प्रभाव (१) चुंबकीय, (२) ऊष्मीय तथा (३) रासायनिक होते हैं। इन तीनों में से किसी भी प्रभाव को विद्युद्धारा की उपस्थिति और उसका मान ज्ञात करने के लिए काम में ला सकते हैं, परंतु यथार्थता और सरलता के कारण प्राय: सर्वत्र चुंबकीय प्रभाव ही काम में लाया जाता है। धारामापी दो प्रकार के होते हैं : (१) स्थिरकुंडल चलचुंबक प्रकार के - इनमें जिस कुंडली में धारा प्रवाहित होती है, वह स्थिर रहती है और उसके चुंबकीय प्रभाव से एक स्वतंत्र चुंबक में विक्षेप होता है, (२) स्थिर चुंबक चल कुंडल प्रकार के - इनमें चुंबक स्थिर रहता है, परंतु उसके प्रभाव से विद्युद्धारा ले जानेवाली कुंडली घूम जाती है।
स्पर्शज्या धारामापी (Tangent Galvanometer) - यह सबसे सरल और उपयोगी चलचुंबक धारामापी (moving magnetgalvanometer) है। इसमें किसी अचुंबकीय पदार्थ के ऊर्ध्वाधर ढाँचे पर विद्युतरोधी ताँबे के तार की एक वृत्ताकार कुंडली लगी रहती है। कुंडली में प्राय: ५५२ चक्कर होते हैं, जिसमें २, ५०, और ५०० चक्करों के बाद संयोजक पेंच लगे रहते हैं। इनकी सहायता से आवश्यतानुसार कम या अधिक चक्करों से काम ले सकते हैं। वृत्ताकार कुंडली को ऊर्ध्वाधर अक्ष के चारों ओर घुमाया जा सकता है। कुंडली के केंद्र पर एक चुंबकीय सुई ऊर्ध्वाधर कीलक (pivot) पर सधी रहती है और सुई के लंबरूप एक ऐल्यूमिनियम का लंबा संकेतक लगा रहता है, जो सूई के साथ साथ क्षैतिज वृत्ताकार स्केल पर घूमता है और चुंबकीय सूई का विक्षेप बतलाता है। यह स्केल चार चतुर्थांशों में विभाजित रहता है और प्रत्येक चतुर्थांश में ०� से ९०� तक के चिह्न होते हैं। जब चुंबकीय सूई चुंबकीय याम्योत्तर (meridian) में होती है, तो संकेतक शून्य अंश पर रहता है।
धारा नापने के पूर्व धारामापी के आधार को क्षैतिज कर लेते हैं और कुंडली के समतल को घुमाकर चुंबकीय याम्योत्तर में ले आते हैं। इस दशा में चुंबकीय सुई के बक्स को कुंडली के केंद्र पर क्षैजित स्थिति में रखते हैं और यह भी देख लेते हैं कि संकेतक के दोनों सिरे ०� - ०� पर स्थित है अब धारामापी के दो संयोजक पेंचों को उस परिपथ में संबद्ध कर देते हैं जिसमें धारा का प्रवाह होता है। ऊर्ध्वाधर कुंडली में धारा के प्रवाहित होते ही, एक चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है, जो पार्थिव क्षैतिज चुंबकीय क्षेत्र से समकोण बनाता है। उन दोनों चुंबकीय क्षेत्रों के कारण चुंबकीय सूई पर दो विपरीत दिशा में घुमानेवाले बलयुग्म कार्य करते हैं। सूई विक्षेपित होकर ऐसी दशा में रुक जाती है जहाँ दोनों बलयुग्मों का घूर्ण बराबर होता है। यदि सूई का विक्षेप थ� हो, तो धारा का मान निम्न सूत्र से ज्ञात होता है :
धारा = क स्पज्या थ, (C=K tan Q)
अर्थात् धारामापी में बहनेवाली धारा विक्षेप कोण के स्पर्शज्या के समानुपाती होती है। नियतांक क (K) धारामापी का परिवर्तन गुणक कहलाता है। परिवर्तन गुणक ऐंपियर में नापा जाती है। यह उस विद्युत्धारा के बराबर होता है, जो धारामापी की सूई में ४५� का विक्षेप उत्पन्न कर सकती है। इस प्रकार का सरल स्पर्शज्या धारामापी यथेष्ट रूप से सूक्ष्मग्राही और यथार्थ नहीं होता। विशेष रूप से धारा के कारण चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता चुंबकीय सुई के दोनों ध्रुवों पर एक सी नहीं होती। इस कारण धारामान में त्रुटि हो जाती है, क्योंकि सूत्र इसी पर निर्भर है कि दोनों ध्रुवों पर चुंबकीय क्षेत्र एक सा हो। इसलिए इसी सिद्धांत पर आधारित एक दूसरा धारामापी बना, जिसे हेल्महोल्ट्स गैलवेनोमीटर (Helmholtz galvanometer) कहते हैं। इस धारामापी में यह त्रुटि नहीं होती और यह सरल स्पर्शज्या धारामापी से अधिक सूक्ष्मग्राही होता है। इसमें अचुंबकीय पदार्थ के दो ऊर्ध्वाधर ढाँचों पर वृत्ताकार कुंडलियाँ होती हैं। उनके केंद्रों के बीच की दूरी उनके अर्धव्यास के बराबर होती है। चुंबकीय सूई का बक्स दोनों कुंडिलियों के क्षैतिज अक्ष पर ठीक बीच में रखा जाता है। दोनों कुंडलियों के तार इस प्रकार जोड़ दिए जाते हैं कि जब उनमें धारा प्रवाहित हो तब दोनों से उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र एक ही दिशा में हों। ऐसा होने से चुंबकीय सूई के पास धरा से उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र अधिक तीव्र हो जाता है और यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि इस क्षेत्र की तीव्रता सूई के दोनों सिरों पर एक सी रहती है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप यह धारामापी अधिक सूक्ष्मग्राही और यथार्थ हो जाता है। धारा नापने के पहले सूई के बक्स के समतल को क्षैतिज करना और ऊर्ध्वाधर कुंडलियों को चुंबकीय याम्योत्तर में करना आवश्यक है। इस समंजन के बाद जब धारामापी की कुंडलियों में धारा प्रवाहित की जाती है और चुंबकीय सूई में कोण थ� (Q�) का विक्षेप होता है, तब धारा का मान निम्न सूत्र से ज्ञात होता है :
धा = ग स्पर्शाज्या थ (C=G tan Q)
ग को हेल्महोल्ट्स धारामापी का पविर्तन गुणक कहते हैं। यह धारामापी भी यथेष्ट रूप से सूक्ष्मग्राही नहीं होता। अधिक सूक्ष्मग्राही धारामापी बनाने के लिए एक नया सिद्धांत प्रयोग में लाया जाता है। वह यह है कि यदि पार्थिव चुंबकीय क्षेत्र का प्रभाव चुंबकीय सूई पर कम कर दिया जाए, तो किसी भी धारा के कारण चुंबकीय सूई में पहले से अधिक विक्षेप होगा, अर्थात् यंत्र अधिक सूक्ष्मग्राही हो जाएगा। इसको अस्थैतिक युग्म (astatic pair) का सिद्धांत कहते हैं।
यदि दो लगभग बराबर चुंबकीय घूर्ण वाले चुंबकों को एक दृढ़ छड़ से ऐसा जोड़ा जाए कि वे एक दूसरे के समांतर हों और उनके विपरीत ध्रुव पास पास हों, तो उन्हें अस्थैतिक युग्म कहते हैं। इस युग्म में दोनों चुंबकों के विपरीत ध्रुव पास पास होते हैं, इस कारण पार्थिव चुंबकीय क्षेत्र का प्रभाव इस युग्म पर बहुत कम पड़ता है। तार की कुंडली या कुंडलियाँ एक चुंबक या दोनों चुंबक के चारों ओर इस प्रकार लपेटी जाती हैं कि उनमें धारा बहने पर चुंबकों पर एक ही दिशा में बलयुग्म लगे। इस दशा में यदि कुंडलियों में न्यून धारा भी प्रवहित हा, ता भ चुंबकीय युग्म में अधिक विक्षेप होता है। इस प्रकार के धारामापी अति सूक्ष्मग्राही होते हैं। यदि इस चुंबकीय युग्म को एक ऐंठनरहित लटकन द्वारा लटका दिया जाए और इस लटकन में एक छोटा सा दर्पण लगा दिया जाए, तो प्रकाश किरण द्वारा अति सक्ष्म विक्षेप नापा जा सकता है। प्रकाश की किरणें लैंप से चलकर धारामापी के दर्पण से परावर्तित होकर एक लेंस द्वारा स्केल पर फोकस में आती हैं। जब धारा प्रवाह के कारण चुंबकीय युग्म में विक्षेप होता है और दर्पण कोण थ� द्वारा घूमता है, तो परवर्तित प्रकाश किरणे कोण २थ� में घूमती हैं और स्केल पर प्रकाशबिंदु में स्थानांतरण हो जाता है। इस विधि से सूई का अति सूक्ष्म विक्षेप नापा जा सकता है और इसके फलस्वरूप इस धारामापी से अति सूक्ष्म धारा नापी जा सकती है। अस्थैतिक चुंबकीय युग्म का प्रयोग कई प्रकार से विभिन्न नामों के धारामापियों में किया गया है। केलविन धारामापी (Kelvin's galvanometer), पाशेन (Paschen) धारामापी और ब्रोका (Broca) धारामापी इनके कुछ उदाहरण हैं। इन धारामापियों से १०-१२ ऐंपियर तक की धारा नापी जा सकती है। जलचुंबक धारामापी, विशेष कर अस्थैतिक धारामापी, अत्यं सूक्ष्मग्राही होते हैं, परंतु इनका प्रयोग असुविधाजनक होता है। ये अस्थायी भी होते हैं। यही कारण है कि वे बहुत कम प्रयुक्त होते हैं। अधिकतर चलकुंडल धारामापी (moving coil galvanometer) का ही उपयोग होता है, क्योंकि ये यथेष्ट सूक्ष्मग्राही होने के अतिरिक्त, स्थायी, सरल तथा सुविधाजनक होते हैं।
चलकुंडल धारामापी (Moving Coil Galvanometer) - सन् १८२० ई. में ऐंपियर ने आविष्कार किया कि यदि किसी चालक (तार) को, जिसमें विद्युतधारा प्रवाहित हो, चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाए, तो उसपर एक बल कार्य करता है। इस बल का मान चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता, धारामान और चालक की लंबाई के गुणनफल के बराबर होता है। इस बल की दिशा फ्लेमिंग (Fleming) के बाएँ हाथ वाले नियम से ज्ञात की जाती है। अपने बाएँ हाथ का अँगूठा, उसके पास की उँगली (तर्जनी) और बीच की उँगली मध्यमा का इस प्रकार फैलाएँ कि वे तीनों एक दूसरे के लंबरूप रहें। यदि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में और मध्यमा विद्युत्धारा की दिशा में संकेत करें, तो चालक की गति अँगूठे की दिशा में होगी।
चुंबकीय क्षेत्र में रखी हुई किसी कुंडली में जब विद्युत्धारा प्रवाहित होती है, तो कुंडली पर एक बलयुग्म कार्य करने लगता है, जिसस वह घूमने लगती है। इस सिद्धांत को काम में लाकर जो धारामापी बनाए गए, हैं उन्हें चलकुंडल धारामापी कहते हैं। इसमें एक आयताकार कुंडली होती है, जिसमें पतले और विद्युत्रोधित (insulated) ताँबे के तार के बहुत चक्कर होते हैं। यह कुंडली फास्फार ब्रांज की बहुत पतली पत्ती द्वारा एक पेंच से लटकी रहती है, कुंडली का एक सिरा इसी पत्ती से जुड़ा रहता है और पत्ती का संबंध धारामापी के ए संयोजक पेंच से होता है। इस पत्ती में एक वृत्ताकार समतल या नतोदर दर्पण भी लगा रहता है, जो पत्ती के साथ साथ घूमता है। कुंडली का दूसरा सिरा धातु की एक सर्पिल कमानी से जुड़ा रहता है, जिसका संबंध दूसरे संयोजक पेंच से होता है। यह कुंडली एक शक्तिशाली स्थायी नाल चुंबक के ध्रुवों के बीच में लटकी रहती है। चुंबक के ध्रुव नतोदर बेलनाकार आकृति में कटे रहते हैं। एक नर्म लोहे का छोटा सा बेलन दोनों ध्रुवखंडों के बीच में कुंडली के भीतर एक पेच द्वारा धारामापी की पीठ में कसा रहता है। ये सब वस्तुएँ एक अचुंबकीय बक्स में बंद रखी जाती हैं। बक्स के सामने के भाग में काँच लगा रहता है, जिससे दर्पण का विक्षेप लैंप तथा पैमाना विधि से नापा जा सके। जब कुंडली में विद्युत धारा प्रवाहित होती है, तब कुंडली के दो भुजाओं पर बलयुग्म कार्य करता है और कुंडली को उसकी स्थिरावस्था से घुमा देता है, जिससे फॉस्फॉर ब्रांज की पत्ती और नीचे की सर्पिल कमानी में ऐंठन आ जाती है और ए ऐंठन बल युग्म कुंडली पर विपरीत दिशा में कार्य करने लगता है। जिससे कुंडली शीघ्र ही संतुलन में आ जाती है। यदि कुंडली का विक्षेप कोण थ� हो, तो धारामान निम्न सूत्र से निकलता है :
धा = क थ
अर्थात् धारामान विक्षेप कोण का समानुपाती होता है। ये धारामापी अत्यंत स्थायी और यथेष्ट सुग्रांहक होते हैं। इनसे १०-१० ऐंपियर तक की धारा नापी जा सकती है। चलकुंडल धारामापी मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं : (१) मृत-स्पंद (Dead-beat) (२) प्रक्षेप धारामापी (Ballistic galvanometer)।
मृत-स्पंद धारामापी (Dead-beat Galvanometer) - इसमें कुंडली एक धातु के ढाँचे पर लपेट दी जाती है, जिससे धारा प्रवाहित होने पर कुंडली विक्षेपित हो शीघ्र स्थिर हो जाती है। जैसे ही कुंडली घूमती है, उसमें और उसके धातु के ढांचे में भंवर धाराएँ उत्पन्न होती हैं और कुंडली को रोक देती हैं। कुंडली दोलन नहीं करती, इसी से इस यंत्र को मृत-स्पंद कहते हैं। धारा के हटते ही कुंडली अपनी पूर्व स्थिति में पहुँच जाती है। अतएव धारा का मान कुंडली की पूर्वस्थिति तथा धारा प्रवाहित होने पर की स्थिति के ज्ञान से बड़ी सरलता से ज्ञात किया जा सकता है।
प्रक्षेप धारामापी (Ballistic Galvanometer) - इस धारामापी में कुंडली एक अचालक ढाँचे पर बँधी रहती है और इस कारण उसमें भंवर धारा नहीं उत्पन्न होती। अत: कुंडली के विक्षेप में बहुत कम प्रतिरोध पड़ता है। कुंडली धातु के ढाँचे पर आविष्ट न होने से धारा प्रवाहित किए जाने पर, अपनी विक्षेपस्थिति के दोनों ओर दोलन करती है। यह अति सूक्ष्मग्राही होता है और क्षणिक आवेश को भी बड़ी सुगमतापूर्व इससे हम ज्ञात कर सकते हैं।
नर्म लोह धारामापी (Soft Iron Galvanometer) - ये दो प्रकार के होते हैं : आकर्षणवाले तथा प्रतिकर्षणवाले।
(क) आकर्षण प्ररूप (Soft iron, Attraction type) : विद्युत्रोधी तारों की एक स्थिर कुंडली से यदि विद्युत्धारा प्रवाहित हो, तो कुंडली के बीच में और आसपास में भी चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। इस कुंडली के पास यदि कच्चे लोहे का एक टुकड़ा लटका दिया जाए, तो वह कुंडली की ओर आकर्षित हो जाता है। इस लोहे के टुकड़े में अगर एक संकेतक लगा हो, तो संकेतक भी विक्षेपित हो जाएगा। यदि कोई ऐसी व्यवस्था हो कि लोहे के टुकड़े पर जो आकर्षण बल है उसके विपरीत बल लगाकर उसे संतुलन में लाया जा सके, तो धारा का मान संकेतक के विक्षेप से पता चल सकेगा। बहुधा एक सर्पिल कमानी द्वारा इस आकर्षणबल का विरोध किया जाता है। आकर्षण बल धारा-मान के वर्ग के समानुपाती होता है। इसलिए संकेतक का विक्षेप भी धारा मान के वर्ग के समानुपाती होगा। इसी कारण यह प्रत्यावर्ती धारा का मान भी ज्ञात कर सकता है।
(ख) प्रतिकर्षण प्ररूप (Soft iron, Repulsion type) - विद्युतरोधी तारों के कई चक्कारों की स्थिर कुंडली के बीच, दो नरम लोहे के पतले छड़ कुंडली के अक्ष के समांतर लगे हैं। एक छड़ तो स्थिर रहता है, दूसरा एक संकेतक से जुड़ा है जो स्वयं एक कील पर लगा है। संकेतक का दूसरा सिरा एक डायल (Dial) पर घूमता है। जब कुंडली में धारा प्रवाहत होती है, तब दोनों छड़ एक ही प्रकार के प्रेरित चुंबक हो जाते हैं। चुंबकीय नियमों के अनुसार उनमें प्रतिकर्षण होतो है और संकेतक से जुड़ा लोहा घूम जाता है, जिससे संकेतक में विक्षेप होता है। इसमें भी विक्षेपणकोण धारामान के वर्ग का समानुपाती होता है। ये यंत्र अत्यंत सरल और सस्ते होते हैं। जब नापने में बहुत यथार्थता की आवश्यकता नहीं होती और अनेक पुष्ट यंत्रों की आवश्यकता होती है, तब इसी सिद्धांत पर बने अमीटर (ammeter) और वोल्टमापी (volmeter) प्रयोग में लाए जाते हैं। बिजली घरों में स्विचबोर्ड पर नर्म लोहे के यंत्रों का ही प्रयोग अधिकतर होता है। प्रेरित चुंबक में आकर्षण या प्रतिकर्षण धाराप्रवाह की दिशा पर निर्भर नहीं होता। बल धारामान के वर्ग का समानुपाती होता है। इस कारण धारा प्रवाह की दिशा कुछ भी हो, बल की दिशा एक ही होती है। इन्हीं कारणों से ये यंत्र दिष्ट धारा अथवा प्रत्यावर्तीं धारा दोनों को नापने के प्रयोग में लाए जाते हैं। कुंडली के प्रेरकत्व के कारण ये उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्तीं धारा के मापनकार्य में नहीं प्रयुक्त किए जा सकते।
तप्त तार धारामापी (Hot Wire Galvanometer) - इस प्रकार के धारामापी विद्युत्धारा के ऊष्मीय प्रभाव पर निर्भर होते हैं। जब धारा किसी चालक से प्रवाहित होती है, तब वह चालक तप्त हो जाता है। उत्पन्न ऊष्मा का मान (धारा)२ � (प्रतिरोध) के समानुपाती होता है। यदि धारा ऐंपियर में और प्रतिरोध ओम में हो, तो ऊष्मा = ०.२४ (घा)२ � (प्रतिरोध) कलोरी प्रति सेकंड। ऊष्मा का मान धारामान के वर्ग के समानुपाती होता है, अर्थात् धारा की दिशा पर निर्भर नहीं हैं। इसलिए ऐसे धारामापी दिष्ट अथवा प्रत्यावर्ती धारा दोनों ही के नापने के प्रयोग में लाए जा सकते हैं। इस प्रभाव का प्रयोग मापनविधि में दो प्रकार से किया गया है : (१) जनित ऊष्मा के कारण तार में प्रसार होता है, जिसके कारण संकेतक में विक्षेप होता है, (२) जनित ऊष्मा से एक तापयग्म का संगम गरम किया जाता है, जिसके कारण तापयुग्म में विद्युत् वाहक बल उत्पन्न होता है और किसी दूसरे दिष्ट धारामापी में धारा प्रवाहित करता है। पहले प्रकार का यंत्र सबसे पहले १८८३ में मेजर कारड्यू (Major Cardew) ने बनाया था। हार्टमान-ब्रॉन (Hartman Braun) ने इसमें सधार किया। तार में धारा बहती है और तप्त होने के कारण उसमें प्रसार होता है। इस समय तार के बीच में जुड़ी हुई कमानी तार को खींचती है और घिरनी प्रसार के अनुसार घूम जाती है। साथ ही साथ घिरनी में लगा संकेतक भी विक्षेपित होता है और धारा का मान डायल पर दर्शित करता है। धारा की अनुपस्थिति में तार ठंढा हो कर सिकुड़ता है और संकेतक फिर अपनी पूर्व दशा में आ जाता है। ऐसे धारामापी सरल और सस्ते होने के कारण बहुत प्रयोग में लाए गए हैं। इनमें कुंडली नहीं होती, इस कारण उनमें प्रेरकत्व नहीं होता और उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्तीं धारा भी नापी जाती है, परंतु ये पर्याप्त रूप से यथार्थ नहीं होते और अधिक मात्रा की धारा को सहन करने में असमर्थ होते हैं। इनसे अधिक सुविधाजनक और यथार्थ तापयुग्म वाले धारामापी होते हैं। आजकल उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा का मापन अधिकतर उन्हीं यंत्रों से होता है। धारा तार से प्रवाहित होकर उसे तप्त करती है। इस तार से जुड़े हुए तांबा कान्सटैंटन तापयुग्म का संगम भी गरम होता है। इस कारण तापयुग्म में ताप के अनुपात में विद्युद्वाहक बल उत्पन्न होता है। यह एक दिष्ट धारामापी में धारा प्रवाहित करता है। इसके डायल (dial) में अंशांकन (caIibration) रहने पर वह पहली प्रत्यावर्ती धारा का मान प्रदर्शित करता है।
विद्यत् डाइनेमोमीटर (देखें डाइनेमोमीटर)।
आइनथोवन का डोर-धारामापी (Einthoven String Galvanometer) - यह यंत्र विशेष रूप से उच्च-आवृत्तिवाली बहुत क्षीण और क्षणिक प्रत्यावर्ती धारा को नापने के प्रयोग में लाया जाता है। इसमें साधारणत: चाँदी चढ़ा हुआ स्फटिक का तार, एक शक्तिशाली विद्युच्चुंबक के बीच तना रहता है। दोनों ध्रुव खंडों में गोल छिद्र बने रहते हैं, जिनसे एक समांतर प्रकाश किरणवलि एक ओर से दूसरी ओर निकलती है। एक ध्रुव खंड की ओर प्रकाश स्रोत और लैंस होता है और दूसरे ध्रुव खंड की ओर या तो दूरदर्शी होता है या फिल्म कैमरा। प्रकाश किरणावलि द्वारा दूरदर्शी की नेत्रिका (eyepiece) या कैमरा के फिल्म पर तने हुए तार की छाया पड़ती है। जब इस तार से कोई भी क्षीण और क्षणिक धारा प्रवाहित होती है, तब फ्लेमिंग (Fleming) के नियम के अनुसार तार पर एक बल कार्य करता है, जिसकी दिशा धारा तथा चुंबकीय क्षेत्र दोनों ही के लंबवत् होती है। इस बल के कारण तार अपनी जगह से हटती है और छाया भी हटती है। जब क्षणिक या प्रत्यावर्ती धारा का अभिलेख लेना होता है, तो कैमरा का फिल्म एक मीटर द्वारा चला दिया जाता है और धारा तार में प्रवाहित की जाती है। फोटो के फिल्म (Photo film) पर धारा का अभिलेख बन जाता है। जब क्षीण दिष्ट धारा नापनी होती है, तब कैमरा की जगह पर सूक्ष्ममापी नेत्रिका लगा दते हैं। दिष्ट धारा जब तार से प्रवाहित होती है, तब तार की छाया एक ओर हट जाती है। सूक्ष्ममापी नेत्रिका से छाया के विस्थापन को नाप लेते हैं जिससे धारा का मान निकल आता है। यह अत्यंत सुग्राही और उपयोगी धारामापी है।
डडेल दोलनलेखी (Duddell Oscillograph) - यह अधिकतर प्रत्यावर्ती विभव, या धारा का तरंग रूप, ज्ञान करने के
प्रयोग में लाया जाता है। वस्तुत: यह एक मृतस्पंद (dead beat) धारामापी है, जिसकी प्राकृतिक दोलन आवृत्ति बहुत अधिक होती है और जिसके चलनशील भागों (moving system) का जड़त्व (intertia) बहुत कम होता है। चित्र १. में ऐसा एक यंत्र दिखाया गया है।
अमीटर (Ammeter) - दिष्ट धारा नापनेवाला अमीटर अधिकतर कोई चलकुंडल धारामापी होता है, जिसके समांतर एक पार्श्ववाही तार जुड़ा रहता है। पार्श्ववाही एक अल्प प्रतिरोधक होता है, इस कारण इस यंत्र का प्रतिरोध बहुत कम होता है और जब यह किसी परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़ा जाता है, तब धारामान को किंचित् भी नहीं बदलता। परिपथ की अधिकांश धारा पार्श्ववाही में होकर बहती है और कुछ थोड़ा भाग धारामापी की कुंडली में से। कुंडली ऐल्युमिनियम के ढाँचे पर बँधी रहती है और ढाँचा कीलक पर इस प्रकार आरोपित रहता है कि कुंडली सुगमता से शक्तिशाली चुंबक के ध्रुवखंडों के बीच घुम सके।
वोल्टमापी (Volmeter) - दिष्ट विभव नापनेवाला वोल्टमापी साधारणत: एक चलकुंडल धारामापी होता है, जिससे एक उच्च प्रतिरोधक श्रेणीबद्ध रहता है। वोल्टमापी किसी परिपथ के दो बिंदुओं के समांतर संबद्ध किया जाता है, इस कारण इसका प्रतिरोध उच्चतम होना आवश्यक है, अन्यथा इसमें अधिक धारा प्रवाहित होगी और बिंदुओं के बीच का विभव बदल जाएगा।
कैथोड किरण-दोलनलेखी - (Chathode Ray Oscillograph) - जब लगभग ३,००० दोलन प्रति सेकंड से अधिक आवृत्तिवाली प्रत्यावर्ती धारा या विभव को नापने की आवश्यकता होती है, तो अन्य धारामापी और उनसे बने हुए दोलनलेखी का प्रयोग
नहीं हो सकता। इस दशा में हमको इलेक्ट्रॉनिक (electronic) यंत्रों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। इस वर्ग के यंत्रों में सबसे अधिक उपयोगी और सरल कैथोड किरण दोलनलेखी (cathode ray oscillograph) है (देखें चित्र २.)।
वोल्टामीटर (Voltameter) - यदि विद्युत्धारा किसी विद्युद्विलेष्य द्रव से प्रवाहित हो, तो उस द्रव में आयनीकरण होता है। इसके फलस्वरूप धन आयन कैथोड पर और ऋण आयन ऐनोड पर अवसादित हो जाते हैं (बैठ जाते हैं)। फैराडे (Faraday) के नियमों के अनुसार आयनीकरण की मात्रा धारामान की समानुपाती होती है।
यहाँ धारा का मान आयनों की मात्रा और धाराप्रवाह के समय पर निर्भर है, जो मौलिक राशियाँ हैं। इसी के आधार पर अंतरराष्ट्रीय समिति ने अंतरराष्ट्रीय एकक की व्याख्या इस प्रकार की है : यदि कोई स्थिर धारा एक प्रामाणिक रजत विश्लेषण धारामापी से एक सेकंड तक प्रवाहित हो और कैथोड पर ०.००१११८ ग्राम चाँदी अवसादित करे तो उस धारा का मान एक अंतरराष्ट्रीय ऐंपियर होगा।
दिष्ट धारा विभवमापी (Directcurrent Potentiometer) यह यंत्र विभवांतर नापने के प्रयोग में तो लाया ही जाता है किंतु साथ ही साथ इससे धारामान एवं प्रतिरोध भी ज्ञात किया जा सकता है। T यदि एक स्थिर धारा एक लंबे और समान तार से प्रवाहित हो और उस तार की एक एक लंबाई का प्रतिरोध प हो, तो तार की एक लंबाई का विभवांतर व = ध � प (ओम के नियम से) तार के एक समान रहने के कारण उस तार की लंबाई ल का विभवांतर = ध � प � ल। अब यदि हम किसी सेल (Cell) को, जिसका विद्युत् वाहक बल ब है, किसी गैलवैनोमीटर से श्रेणीबद्ध करके विभवमापी के बिंदु क और ख के बीच जोड़ दें तो उस धारामापी में कुछ धरा बहेगी और विक्षेप होगा। यह धारा विभवमापी के बिंदुओं के विभवांतर और सल के विभवांतर के अंतर की समानुपाती होगी, क्योंकि दोनों विभव एक दूसरे विपरीत दिशा में धारा भेजने का काम कर रहे हैं। यदि बिंदु ख को तार पर खिसकाया जाए, तो बिंदुओं क और ख के बीच का विभवांतर बद लेगा। इस प्रकार तार की एक ऐसी लंबाई होगी जब विंदुओं क और ख के बीच विभवांतर ठीक सेल के विद्युत वाहक बल क बराबर होगा और उस समय धारामापी में कोई विक्षेप नहीं होगा। यदि उस तार की लंबाई ल१ हो, तो व१ = ध � प � ल१। इसी प्रकार यदि किसी प्रामाणिक सेल से, जिसका विद्युतवाक बल व२ है, प्रयोग किया जाए और गैलवैनोमापी में शून्य विक्षेप के लिए आवश्यक तार की लंबाई ल२ हो तो व२ = ध � प � ल२ अस्तु, यदि धारा दोनों प्रयोगों में स्थिर रहे तो
और अज्ञात विद्युत् वाक बल का विभवांतर
न्यूनतम विभवांतर जो किसी विभवमापी से नप सकता है उस यंत्र की सुग्राहिता कहलाता है और जो उच्चतम विभवांतर नपता है उसे परास (Range) कहते हैं। यदि किसी विभवमापी के १०० सेमी. तार का प्रतिरोध १० ओम हो और उसमें ०.०१ ऐंपियर की धारा प्रवाहित हो तो सार के दोनों सिरों के बीच की वोल्टता ०.१ वोल्ट होगी। उस में तार को नापने योग्य न्यूनतम लंबाई (मान लें एक मिमी.) के सिरों के बीच का विभवांतर ०.०००१ वोल्ट होगा, जिसे विभवमापी की सुग्राहिता कहेंगे। सन् १८८५ में फ्लेमिंग ने एक अत्यंत यथार्थ और सुग्राही विभवमापी का सिद्धांत बताया। उसी सिद्धांत पर क्रांपटन ने एक विभवमापी बनाया जो क्रांपटन विभवमापी के नाम से प्रसिद्ध है। यह अत्यंत यथार्थ और सुग्राही होता है।
प्रत्यावर्ती धाराविभव मापी -(Alternting Current Potentiometer) दिष्ट धारा विभवमापी की भांति ही प्रत्यावर्त्ती धारा विभवमापी भी विभवांतर नापता है। दोनों प्रकार के यंत्रों में, अज्ञात विभावंतर को विभवमापी के मुख्य परिपथ के आंशिक विभवांतर से पूर्णतया संतुलित कर लिया जाता है, किंतु प्रत्यावर्ती धारा का विभवमापी में संतुलन से लाया हुआ विभव केवल परिमाण में ही बराबर नहीं होना चाहिए वरन् प्रावस्था (phase) में विपरीत दिशा में भी होना चाहिए और इसके लिए दो स्वतंत्र समंजन आवश्यक हैं। प्रत्यावर्ती धारा विभवमापी दो वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं जिन्हें हम ध्रुवीय (Polar) और निर्देंशांकी (Coordinate) कहते हैं।
पोस्ट आफिस बक्स (Post Office Box) - प्रतिरोध मापन के कई ढंग प्रयोग में लाए जाते हैं। किंतु अधिकांश ढंग व्हीटस्टोन (Wheatstone) सेतु के सिद्धांत पर ही आधारित हैं। इसमें चार प्रतिरोधक लगे रहते हैं जिनमें से तीन ज्ञात रहते हैं और चौथे को निकालना रहता है। दो प्रतिरोधक एक श्रेणी में और शेष दोनों को एक दूसरी श्रेणी में जोड़कर दोनों श्रेणियों को समांतर क्रम में जोउ दिया जाता है। इसमें एक धारामापी और बैटरी रहते हैं। एक विसर्पी (खिसकनेवाली) कुंजी द्वारा धारामापी का एक ऐसा स्पर्श बिंदु ज्ञात करते हैं जिससे कुंजी का स्पर्श हो जाने पर गैलवैनोमीटर में कोई विक्षेप नहीं होता, अर्थात् उसमें कोई धारा प्रवाहित नहीं होती। ऐसी दशा में उस बिंदु को शून्यविक्षेप स्थिति (null point) कहते हैं और व्हीटस्टोन सेतु संतुलित कहलाता है। यदि तीन प्रतिरोधकों के मान ज्ञात हों तो चौथे के मान का ज्ञात कर सकते हैं।
पोस्ट आफिस बक्स, व्हीटस्टोन (Wheatstone) सेतु का एक रूप है। यह पहले डाकखाने में तारों का प्रतिरोध ज्ञात करने में प्रयुक्त होता था, इसी कारण उसका नाम पोस्ट आफिस (डाकघर) बक्स पड़ गया। प्रत्येक निष्पत्ति भुजाओं में १०,१०० और १००० ओम के प्रतिरोधक श्रेणीक्रम में जुड़े रहते हैं। तीसरी भुजा में १ ओम से लेकर ४००० ओम तक के प्रतिरोधक श्रेणीक्रम में लगे रहते हैं। प्रतिरोधक बाहर से जोड़ा जाता है और बैटरी भी बाहर से ही जोड़ी जाती है। गैलवैनोमीटर और बैटरी परिपथों में एक एक कुंजी (plug key) लगी रहती हैं। अज्ञात प्रतिरोधक का मान निकालने के पहले गैलवेनोमीटर तथा बैटरी को जोड़ देते हैं। इसके उपरांत ऊपर की संगत भुजाओं में १०,१० ओम की प्रतिरोध लगाकर, तीसरी भुजा में से कुछ प्रतिरोध लगाते हैं। फिर बैटरी की कुंजी का दबाकर गैलवेनोमीटर वाली कुंजी को दबाते हैं और गैलवेनोमीटर में विपेक्ष देखते हैं। इस प्रयोग को तीसरी भुजा के प्रतिराध को बढ़ाते हुए बार-बार करते हैं। जिस समय तीसरी भुजा में १ ओम का अंतर करने से गैलवैनोमीटर का विक्षेप एक दिशा से दूसरी दिशा में बदल जाए तो समझ लेना चाहिए कि अज्ञात प्रतिरोधक का मान उन्हीं दोनों मानों के बीच में है। फिर ऊपरवाली संगत भुजाओं में क्रमश: १०० ओम १० ओमवाले अवरोध रखकर प्रयोग करते हैं। जिस दशा में दाब कुंजियों के दबाने पर गैलवैनोमीटर में कोई विक्षेप न हों उस समय सेतु संतुलित होता है और चौथे प्रतिरोध का मान सूत्र से निकाल लेते हैं। व्हीटस्टोन (Wheatstone) सेतु के सिद्धांत पर बने हुए अन्य प्रतिरोधमापी यंत्रों में से कुछ निम्नलिखित हैं :
(१)�� मीटर सेतु (Meter bridge),
(२)�� कैरीफास्टर सेतु; (Careyfoster bridge)
(३)�� कैलेंडर-ग्रिफिथ्स सेतु, (Calender Griffiths bridge)
ओममापी (Ohmmeter) - शीघ्र प्रतिरोध मापन की आवश्यकता पड़ने पर साधारण ओममापी का प्रयोग होता है। इसका सिद्धांत ओम नियम पर आधारित है :
जहाँ प्र. परिपथ का प्रतिरोध ओमों में, धा इसमें प्रवाहित होने वाली धारा ऐंपियर में और वि विभवांतर वोल्ट में है। इस उपकरण की रचना के लिए धारामापी के साथ एक बैटरी और परिवर्तनशील
चित्र ३.
प्रतिरोधक श्रेणीक्रम में जुड़े रहते हैं। चित्र ३. में यदि बिंदु १ और २ को जोड़ दें तो धारामापी में धारा बहने के कारण कुछ विक्षेप होगा। प्रतिरोध को ऐसा समंजित करते हैं कि इस समय पूर्ण विक्षेप हो जाए। अत: जब संयोजक पेचों के बीच शून्य ओम का प्रतिरोध होती है, तब धारामापी में पूर्ण विक्षेप होता है। यदि पेचोंब, १ और २, के बीच अज्ञातप्रतिरोध वाला प्रतिरोधक जोड़ा जाए तो विक्षेप कम हो जाएगा और जितनी ही अधिक बाधा होगी उतना ही कम विक्षेप होगा। अत: धारामापी का विक्षेप प्रतिरोध के प्रतिलोमानुपाती होता है, इस कारण धारामापी के विक्षेप का अंशांकन प्रतिरोध में किया जा सकता है। इस प्रकार से अंशांकित धारामापी ओममापी कहलाता है।
वाटमापी (Wattmeter) - किसी परिपथ में किसी समय जितनी विद्युत् शक्ति व्यय हो रही हो उसे मापनेवाले उपकरण को वाटमापी कहते हैं। विद्युत शक्ति का मान परिपथ के विभवांतर तथा धारामान के गुणनफल के बराबर होता है (१ वाट = १ वोल्ट � १ ऐंपियर)। इन उपकरणों का सिद्धांत विद्युत्-चुंबकीय, स्थिर वैद्युतीय या उष्मीयतापीय होता है। परंतु अधिकतर वाटमापी विद्युत् चुंबकीय सिद्धांत पर ही बनते हैं।
विद्युत संभरण ऊर्जामापी (Electric Supply Energy meter) किसी परिपथ में एक निश्चित समय में कुल कितनी ऊर्जा व्यय हुई है, इसे नापने के लिए ऊर्जामापी का प्रयोग होता है। यह उपकरण अनेक संख्या में प्रयोग होता है। यह मुख्यतया दो प्रकार का होता हैं : (क) मात्रामापी (Quantitymeter) या ऐंपियर घंटामापी (Ampere hourmeter) और (ख) ऊर्जामापी (Energy meter)।
स्थिरविद्युत्दर्शी और विद्युत्मापी (Electroscopoe और Electrometer) - इन उपकरणों का प्रयोग विद्युत् आवेश और विद्युत्विभव के संसूचन और मापन में होता है। विद्युत्दर्शी सबसे प्राचीन विद्युत्उपकरण है। सन् १७८७ के पहले कई प्रकार के विद्युत्दर्शी बने जो मुख्यत: आवेशित पिथ गुट का (सरकंडे के गूदे की गोली के प्रतिकर्षण का उपयोग करते थे। सन् १७८७ में ही ऐब्राहिम बेनेट (Abrahim Benett) ने स्वर्णपत्र विद्युत्दर्शी (Goldleaf electroscope) बनाया जिसका प्रयोग आज तक होता है। एक अत्यंत पतला स्वर्णपत्र पीतल की चपटी छड़ी से लटका रहता है। इस पीतल के छड़ के ऊपरी भाग में एक गोल चकती लगी रहती है। यह स्वर्णपत्र वाला छड़ एक धातु के बक्स में ऐंबर (amber) द्वारा विद्युत्रोधी करके लगा रहता है। यह बक्स पृथ्वी से संबंद्ध रहता है और इसमें एक खिड़की बनी रहती है जिसके द्वारा स्वर्णपत्र का निरीक्षण हो सकता है। यदि चकती को किसी आवेशित वस्तु से छू दिया जाए तो छड़ और स्वर्णपत्र दोनों ही आवेशित हो जाते हैं। पारस्परिक प्रतिकर्षण के कारण स्वर्णपत्र छड़ से दूर हट जाता है। स्वर्णपत्र का विक्षेप अवेश की मात्रा का समानुपाती होता है। स्वर्णपत्र का विक्षेप एक पैमाने पर नापा जा सकता है। विक्षेप के विशुद्ध ज्ञान के लिए सूक्ष्मदर्शी का प्रयोग करते हैं। कुछ विद्युत्दर्शी में पीतल की छड़ के नीचे वाले छोर पर दो स्वर्णपत्र लगे रहते हैं। आवेश तथा विभव निम्नलिखित सूत्र से संबंधित हैं : घारिता = आबेश/विभव। स्वर्णपत्र के विक्षेप से आवेश की मात्रा का मापन हो सकता है और विद्युद्दर्शी की धारिता निश्चित होती है। अत: विभव का भी मापन हो सकता है।
साधारण स्वर्णपत्र विद्युद्दर्शी की धारिता बहुत कम होती है; इस कारण यह विभव के प्रतिकम सुग्राही होती है। उसकी सुग्राहिकता बढ़ाने के लिए केवल एक पत्र और साथ में एक संधारित्र का भी प्रयोग करते हैं। ऐसे विद्युतदर्शी को संघारित्र विद्युत्दर्शी (Condenslng electroscope) कहते हैं।
रेडियो एक्टिवता के अविश्कार के बाद यह पता चला कि कुछ वस्तुओं से ऐसी किरणें निकलती हैं जो किसी आवेशित पिंडों को निरावेशित करती हैं। यदि किसी रेडियोएक्टि तत्व के पास एक आवेशित विद्युद्दर्शी रखा जाए तो वह निरावेशित होने लगेगा और स्वर्णपत्रिका विक्षेप घटने लगेगा। विक्षेप घटने की दर रेडियोएक्टिव किरणों की शक्ति की समानुपाती होगी। इस कारण विद्युत्दर्शी का प्रयोग बहुत होने लगा और अब कई सुधरे प्रकार के विद्युत्दर्शी बनने लगे हैं। उनमें से सी. टी. आर. विल्सन (C. T. R. Wilson) का तिरछा स्वर्णपत्र विद्युत्दर्शी विशेष उल्लेखनीय है।
इसमें एक पट्टिका पर जो सूक्ष्ममापी पेच से आगे पीछे चलाई जा सकती है, २०० वोल्ट का विभव लगाया जाता हैं। एक अत्यंत पतला स्वर्णपत्र, एक पीतल के छड़ के छोर पर लगा रहता है। दोनों ही एक धातु के बक्स में ऐंवर (amber) द्वारा पृथ्क्कृत करके लगाये रहते हैं। यह धातु का बक्स टेढ़ा रखा जाता है और इसमें काँच की एक खिड़की बनी रहती है जिसके द्वारा स्वर्णपत्र का निरीक्षण किया जाता है। पहले स्वर्णंपत्रवाले छड़ को धातु के बक्स से जोड़ दिया जाता है और बक्स को इतना टेढ़ा किया जाता है कि स्वर्णपत्र काँच की खिड़की के सामने आकर सूक्ष्मदर्शी में दिखाई पड़ने लगे। इसके बाद स्वर्णपत्र वाली छड़ को उस आवेशित पिंड से संबद्ध कर दिया जाता है जिसका आवेश, विभव या निरावेश, पिंड से होने की दर ज्ञात करना रहता है। यह उपकरण अत्यंत सुग्राही होता है और इसकी सुग्राहिता बक्स के टेढ़ेपन, बक्स के आयतन, पट्टिका के विभव और उसकी स्वर्णपत्र से दूरी पर निर्भर रहती है। इससे आवेश में १०-१६ कूलॉम प्रति सेकंड परिवर्तन नापा जा सकता है।
आकर्षित पट्टिका विद्युन्मापी (Attracted disc electrometer) या निरपेक्ष विद्युन्मापी (Absolute Electrometer) इस उपकरण से दो आवेशित चालकों के बीच आकर्षण बल के मापन द्वारा आवेश, विभव इत्यादि का मापन होता है। इसमें एक संरक्षक वलय (Guard ring) संधारित्र होता है जिसमें संरक्षक वलय तथा धातु की दो पट्टिकाएँ होती हैं। पहली पट्टिका एक कमानी द्वारा सूक्ष्ममापी पेंच से जुड़ी होती है और ऊपर नीचे चलाई जा सकती है। संरक्षक वलय अपने स्थान पर निश्चित रहता है और दूसरी पट्टिका एक अन्य सूक्ष्ममापी पेंच से ऊपर नीचे चलाई जा सकती है। पहली पट्टिका का पृष्ठ सर्वदा एक सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है। सब पट्टिकाओं को पृथ्वी से संबद्ध कर देने के पश्चात् एक न्यून भार जिसका द्रव्यमान मान लेंप्र है पहली पट्टिका पर रखा जाता है जिसके कारण वह नीचे खिसक जाती है, अब पेंच से इसे ऊपर लाकर संरक्षक वलय के समतल में छोड़ देते हैं। भार को हटाते ही कमानी की लचक के कारण पहली पट्टिका ऊपर चली जाती है। यह स्पष्ट है कि पहली पट्टिका संरक्षक वलव को पहली पट्टिका के समतल में लाने के लिए उतना ही बल नीचे की ओर से लगाना पड़ेगा जितना भार था, अब पहली पट्टिका और संरक्षक वलय को एक बैटरी या डायनेमो से निश्चित विभव देकर उस बिंदु से संबद्ध किया जाता है जिसका विभव ज्ञात करना हो। दोनों पट्टिकाओं में विभवांतर होने के कारण उनमें आकर्षण होता है, जिसका मान दोनों पट्टिकाओं की दूरियाँ बदलकर मात्रा � गुरुत्वीय त्वरण के बराबर किया जाता है तथा सूक्ष्ममापी के पाठ्यांक को पढ़ लिया जाता है।
विभवातर का मूल्य स्थिर वैद्युत मात्रक में नपता है। विभवांतर का मूल्य लंबाई और द्रव्यमान में निकलता है और ये मौलिक राशियाँ हैं। इसी कारण इस उपकरण को निरपेक्ष विद्युन्मापी (Absolute electrometer) कहते हैं।
वृतपाद विद्युन्मापी (Quadrant Electroometer) - केल्विन (Kelvin) ने आकर्षित पट्टिका विद्युन्मापी से भी अधिक सुग्राही एक विद्युन्मापी बनाया जिसे वृत्त पाद-विद्युन्मापी कहते हैं। कुछ दिनों बाद डालेजेलेक (Dolezelk) ने इसमें सुधार किया जिससे इसकी सुग्राहिता और यथार्थता बहुत बए गई। इसमें एक चपटे बेलनाकार धातु के बक्स के चार बराबर वृत्त पाद (वृत चतुर्यांश) लगे रहते हैं। ये पाद खोखले होते हैं और एक आधार पर एबर (amber) या स्फटिक (quartz) द्वारा विद्युत्रोधी बनाकर जड़े रहते हैं। सम्मुख पाद आपस में तार से संबद्ध रहते हैं। एक अत्यंत हल्की और पंखी की आकृति की ऐल्युमिनियम या धातु आवेष्ठित कागज की पत्ती पादों के बीच लटकी रहती है। इस पत्ती को सुई कहते हैं। यह पत्ती एक स्फटिक के सूत्र द्वारा इस प्रकार लटकाई जाती है कि पादों के बीच समांतर रूप से लटकती रे। इस सूत्र में एक गोलीय दर्पण लगा रहता है। जब पत्ती घूमती है तब इस सूत्र में ऐंठन आ जाती है और विक्षेप कोण को इस दर्पण और दीप तथा पैमाना की सहायता से नापा जा सकता है। पूरा उपकरण धातु के एक बक्स में बंद रहता है, इससे वह वाह्य विद्युत् क्षेत्र के प्रभाव से बचा रहता है। इस बक्स में एक खिड़की होती है जिसके द्वारा दर्पण का विक्षेप देखा जा सकता है।
यदि दो वृत्त पादों के बीच कुछ विभवांतर हो और सूई पर एक निश्चित विभव हो तो विद्युत् क्षेत्र के प्रभाव से सूई पर एक बलयुग्म कार्य करता है और सूई को घुमाता है। लटकानेवाले सूत्र में ऐंठन के कारण सूई एक निश्चित विक्षेप के बाद रुक जाती है। विक्षेप पादों के विभवांतर या विभवांतर के वर्ग के समानुपाती होता है। यह विद्युन्मापी दो प्रकार से प्रयोग में लाया जाता है।
(क) सूई और पादजोड़ी में भिन्न विभव हों और सूई का विक्षेप पादों के विभव से बहुत अधिक हो-इस दशा को विषम विभवी (heterostatic) कहते हैं।
(ख) दूसरे प्रकार में सूई दूसरी पादजोड़ी से संबद्ध रहती है, इसका विभव वही होता है जो दूसरी पादजोड़ी का। इस दशा को समविभवी (idiostatic) कहते हैं।
इस दशा में विक्षेप विभवांतर के वर्ग के समानुपाती होता है अत: इससे प्रत्यावर्तीं विभवांतर भी नापा जा सकता है। इसी विद्युन्मापी से आवेश, विभव, धारिता और परावैद्युतांक नियतांक (Dielecrtic Constant) इत्यादि नापे जा सकते हैं।
इलेक्ट्रानिकी विद्युन्मापी और निर्वात नलिका वोल्टमापी - (Electronic Electrometer Vacuum Tube Voltmeter) - जब दो बिंदुओं के बीच का विभवांतर साधारण वोल्टमापी से
नापा जाता है तो उनमें विद्युत्धारा बहती है और बिंदुओं के बीच आंतरिक प्रतिरोध के कारण वोल्टता कम हो जाती है। अत: साधारण वोल्टमापी विभव सर्वदा कम नापेगा। विशेष रूप से तब जब बिंदुओं के बीच उच्च प्रतिरोध हो। यह दोष विद्युन्मापी में नहीं है, परंतु इसका प्रयोग बहुत कठिन है। इससे शीघ्र मापन नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यह उपकरण उच्च आवृत्तिवाले प्रत्यावर्ती विभव को नहीं नाप सकता। इलेक्ट्रानिकी विद्युन्मापी और निर्वात नलिका वोल्टमापी इन सभी दोषों से रहित और अत्यंत सुग्राही होते हैं। इलेक्ट्रॉन नली वोल्टमापी या विद्युन्मापी कई प्रकार के होते हैं, परंतु उनका मूल सिद्धांत ट्रायौड नली को संसूचक (Detector) रूप में प्रयोग करने पर निर्भर है। चित्र ४. में एक साधारण इलेक्ट्रॉन नली वोल्टमापी का रेखाचित्र दिखाया गया है। ट्रायोड नली 'न' का तंतु फिलामेंट अल्प विभव द्वारा गरम किया जाता है। अल्प विभव के ऋणात्मक सिरे से पर्याप्त ऋणात्मक ग्रिड बायस (Grid bias) संबद्ध रहता है। ग्रिडबायस उतना होना चाहिए कि ट्रायोड नली संसूचक का कार्य करे। उच्च विभव और उससे संबंद्ध हुए प्रतिरोधकों को ऐसा समंजित किया जाता है कि दिष्ट धारामापी में शून्य विक्षेप हो। इसके बाद अज्ञात विभव को ग्रिड और तंतु वाले सिरों (input terminal) से संबद्ध करने पर मापी में कुछ विक्षेप होता है। उस विक्षेप के मूल्य से विभव का मूल्य ज्ञात हो जाता है। यथार्थ में मापी के विक्षेप का अंशांकन ज्ञात विभव द्वारा पहले ही कर लिया जाता है। इस उपकरण की निम्न विशेषताएँ हैं : (१) इसका अंशांकन अल्प आवृत्तिवाले प्रत्यावर्त्तीं विभव से हो जाता है और वह अत्यंत उच्च आवृत्ति वाले विभव के लिए भी शुद्ध होता है (२) यह अपना कार्य विभव संभरणों से बिना कुछ धारा प्रवाहित किए करता है। (३) यह दिष्ट विभव से अति उच्च आवृत्ति वाले विभव का मापन कर सकता है और इसका प्रयोग बड़ा सरल है। अधिकतर यह अंशांकित होता है और अंशांकनकार्य बारंबार नहीं करना पड़ता। इलेक्ट्रानिकी उपकरणों का पूर्ण विवरण अन्य स्थान पर मिलेगा।
प्रेरकत्वमापी (Inductance) और धारिता (Capacity) मापी - किसी संघारित्र की धारिता और कुंडली के प्रेरकत्व मापन साधारणतया तुलनात्मक विधियों से होते हैं। तुलना के लिए प्रामाणिक संधारित्र अथवा प्रामाणिक अन्योन्य प्रेरण या स्वप्रेरण कुंडली की आवश्यकता पड़ती है।
धारिता मापन - धारिता कई प्रकार के सेतुओं की सहायता से नापी जाती है। इनमें से वीन का सेतु (Wien's bridge) और शेरिंग का सेतु (Schering's bridge) उल्लेखनीय है।
वीन सेतु (Wien's bridge) - इस सेतु का प्रयोग धारिता नापने में होता है। ह्वीटस्टोन सेतु (Wheatstone's bridge) के सिद्धांत के अनुसार जब परिचायक में कोई धारा नही बहती तब सेतु संतुलित होता है।
सूत्रों से संघारित्र की अज्ञात धारिता और क्षरण (leakage) मालूम हो जाते हैं।
शेरिंग सेतु (Schering bridge) - यह सेतु भी धारिता मापन के लिए प्रयोग में लाया जाता है। अपनी सुग्राहिता के कारण इसका उपयोग आजकल बहुत होने लगा है। इस सेतु में भी जब परिचायक में कोई धारा नहीं बहती तो संतुलित होता है।
दो प्रतिरोधियों के समंजन से हम संधारित्र की अज्ञात धारिता बड़ी सरलता से निकाल सकते हैं।
प्रेरकत्वमापन - धारिता की भाँति ही किसी कुंडली का प्रेरकत्व हम कई प्रकार के सेतुओं की सहायता से ज्ञात कर सकते हैं। इनमें प्रमुख उल्लेखनीय मैक्सवेल-सेतु और हे-सेतु हैं।
मैक्सवेल सेतु -इस सेतु की सहायता से हम प्रेरकत्व बड़ी सरलता से नाप सकते हैं।
संधारित्र और प्रतिरोध के उचित समंजन से प्रेरकत्व का मान बड़ी ही सुगमता से ज्ञात हो जाता है।
हे - सेतु (Hay's bridge) - इस सेतु की विशेषता यह है कि कुंडली के प्रेरकत्व का मूल्य उसके क्रोड की भिन्न भिन्न चुंबकीय दशाओं में निकाला जा सकता है। क्रोड की चुंबकीय दशा बदलने के लिए कुंडली में दिष्ट धारा प्रवाहित की जाती है जिसका मूल्य दिष्ट धारामापी से ज्ञात होता है। जब संसूचक हेडफोन में धारा शून्य हो जाती है तब सेतु संतुलित होता है। प्राय: इन सेतुओं के सिद्धात पर बने बनाए उपकरण मिलते हैं। जिनमें केवल अज्ञात तत्व जोड़ना पड़ता है और आवश्यक घुंडियों को घुमाकर संसूचक की सहायता से सेतु संतुलित कर लिया जाता है। तब अज्ञात तत्वों का मूल्य डायल पर पढ़ लिया जाता है। इस प्रकार के उपकरण में कई सेतु एक ही साथ बने होते हैं जिस कारण एक ही उपकरण से प्रतिरोध, धारिता, और प्रेरकत्व नापे जा सकते हैं।
सं. ग्रं. - डेविड ओवन : ए. सी. मेजरमेंट्स (मेथुएन ऐंड कंपनी); हेग; ए. सी. ब्रिज मेथड्स (मेथुएन ऐंड कंपनी); लेंस : इलेक्ट्रिकल मेजरमेंट्स; ग्लेजब्रुक (संपादक) : डिक्शनरी ऑव अप्लायड फिजिक्स; फ्लेमिंग : हैंडबुक फॉर दि इलेक्ट्रिकल लैबोरेटरी; रैले : इलेक्ट्रिकल मेजरमेंट्स; ड्राइस्डेल और जॉली : इंडिकैटिंग इंस्ट्रूमेंट्स; बोल्टन : इलेक्ट्रिकल मेजरिंग इंस्ट्रूमेंट्स; राइडर: कैथोड रे टयूब ऐट वर्क; देवधर और सिंग्वी : इलेक्ट्रिसिटी ऐंड मैग्नेटिज्म; खरे और श्रीवास्तव : इलेक्ट्रि सिटी ऐंड मैग्नेटिज्म। (कृष्ण जी)