विद्युत् (Electricity) ईसा से लगभग ६०० वर्ष पूर्व यूनान निवासी थेलीज़ इस बात से परिचित थे कि कुछ वस्तुएँ रगड़ने के पश्चात हलकी वस्तुआं को आकर्षित करती हैं। इसका उल्लेख थीआफ्रैस्टस (Theophrastus) ने ३२१ ई.पू. में तथा प्लिनि (Pliny) ने सन् ७० में किया था। इस आकर्षण शक्ति का अध्ययन १६ वीं शताब्दी में विलियम गिलबर्ट (१५४०-१६०३ ई.) द्वारा हुआ तथा उन्होंने इसे 'इलेक्ट्रिक' कहा। आधुनिक शब्द 'इलेक्ट्रॉन' का उपयेग यूनानी भाषा में अंबर के लिए किया जाता है। 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का उपयोग सन् १६५० में वाल्टर शार्ल्टन (Walter Charlton) ने किया। इसी समय राबर्ट बायल (१६२७-१६९१ ई.) ने पता लगाया कि विद्युन्मय वस्तुएँ हल्की वस्तुओं को शून्य में भी आकर्षित करती हैं, अर्थांत् विद्युत् के प्रभाव के लिए हवा का माध्यम होना आवश्यक नहीं है। सन् १७२९ में स्टीफ़न ग्रे (Stephen Gray, सन् १६९६-१७३६) ने अपने प्रयोगों के आधार पर कहा कि यह आकर्षण शक्ति किसी वस्तु के एक भाग से दूसरे भाग को संचारित की जा सकती है। ऐसी वस्तुओं को देसाग्युलियर्स (Desaguliers, १६८३-१७४४) ने चालक (Conductor) कहा। सभी प्रकार की धातुएँ इस श्रेणी में आती हैं। वे वस्तुएँ जिनमें इस शक्ति को संचारित नहीं किया जा सकता, विद्युतरोधी (Insulator) कहलाती हैं। इस श्रेणी में अंबर, मोम, सूखी हवा, सूखा काँच, रबर, लाख इत्यादि हैं। वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत् दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे। सन् १७३७ में डूफे (Du Fay, १६९९-१७३९) ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं। १७४५ में क्लाइस्ट (Kleist) ने क्यूमिन (Kummin) में, मसेनब्रूक (Musschen brock) ने लाइडेन (Leyden) में, तथा विलियम वाटसन (William Watson) ने लंदन में कहा कि विद्युत् का संचय भी किया जा सकता है, इनके प्रयोगों तथा विचारों ने प्रसिद्ध संचायक लीडेन जार (Leydenjar) को जन्म दिया। लगभग इसी समय विद्युत् को पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करने के प्रयत्न भी जारी थे तथा विभिन्न प्रकार के विद्युद्यंत्रों का आविष्कार हुआ। विलिय वटसन का विचार था कि विद्युत् एक प्रकार का प्रत्यास्थ तरल (Elastic fluid) होती है। विद्युत् प्रत्येक वस्तु में विद्यमान होती है। आवेशविहीन वस्तुओं में यह सधरण मात्रा में होती है। आवेशविहीन वस्तुओं में यह साधारण मात्रा में होती है अत: इसका निरीक्षण नहीं किया जा सकता। वाटसन के तरल सिद्धांत के अनुसार विद्युत् एक वस्तु से दूसरी वस्तु में चली जाती है। अमरीकन वैज्ञानिक तथा राजनीतिज्ञ बेंजामिन फ्रैंकलिन (Benjamin Franklin, सन् १७०६-१७९०) ने इस सिद्धांत का समर्थन कर, विस्तार किया। फ्रैंकलिन ने कहा कि विद्युत् न तो उत्पन्न की जा सकती है, न नष्ट ही। फ्रैंकलिन ने लीडेन जार का अध्ययन कर उसकी क्रिया को समझाने की चेष्टा की। पर फ्रैंकलिन का सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण वह प्रयोग था, सिमें उन्होंने मेघों से मेघगर्जन के समय विद्युत् तथा साधारण विद्युत् के गुण समान हैं, उन्होंने यह भी कहा कि विद्युत् के कण एक दूसरे पर बल डालते हैं। फ्रैंकलिन के पश्चात् एपीनुस (Aepinus, सन् १७२४-१८०२) ने इन विचारों को लिया तथा इसका आभास दिया कि दो वस्तुओं का बल उनके बीच की दूरी बढ़ाने पर घट जाता है। इस सिद्धांत का विस्तार जाजेफ प्रीस्टलि (Joseph Priestley, सन् १७३३-१८०४) तथा हेनरी कैवेंडिश (Hernry Cavendish, सन् १७३१-१८१०) ने किया। फिर कूलॉम (Coulomb, सन् १७३६-१८०६) ने खोज की कि दो आवेशों के बीच का बल, उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युतक्रमानुपाती तथा आवेशों के गुणनफल के समानुपाती होता है। विद्युत् का यह मूल नियम अब भी 'कूलॉम का बलनियम' कहा जाता है। सन् १८३७ में फैराडे (Faraday, सन् १७९१-१८६७) ने किन्हीं दो आवेशित वस्तुओं के बीच के विद्युत् बल पर माध्यम के प्रभाव का अध्ययन किया तथा पता लगाया कि यदि माध्यम हवा के स्थान पर काई और विद्युतरोधी हो तो विद्युत् बल घट जाता है, विद्युत्रोधी के इस गुण को उन्होंने विशिष्ट पारवैद्युतता (Specific Inductive capacity) अथवा पराविद्युत (Dielectric) कहा उन्होंने अपने बर्फ के बरतनवाले प्रसिद्ध प्रयोग (icepile experiment) द्वारा दर्शाया कि यदि किसी आवेशित चालक का एक बरतन में लाया जाए, तो बरतन के अंदर की ओर विजातीय आवेश प्रेरित होता है तथा बाहर की ओर सजातीय अवेश। फैराडे ने पराविद्युत् का गहन अध्ययन किया तथा उनके विभिन्न प्रभावों को समझाने के लिए विद्युत् बल रेखाओं का विचार उपस्थित किया तथा आवेशित वस्तुओं के बीच के खाली स्थान को 'क्षेत्र' कहा। फैराडे के क्षेत्र सिद्धांत को गणित की सहायता से गाउस (Gauss) ने आग्रे बढ़ाया।
अठ्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में आवेशों के चलन (अर्थात् विद्युत् प्रवाह) के संबंध में कई प्रयोग तथा सिद्धांत प्रकाश में आने लगे थे। सन् १७८० में इटजी के ल्युगी गैलवानी (Luigi Galvani, सन् १७३७-१७९८) ने मेढक के उपर विद्युत् प्रवाह के कई प्रयोग किए। सन् १८०० में वोल्टा (Volta, सन् १७४५-१८२७) ने तनुअम्ल अथवा लवण विलयन से भीगी हुई दो असमान धातुओं में विद्युत् प्रभाव पाए तथा उनसे विद्युद्धारा प्राप्त की। इस विद्युत् प्रवाह को कई गुना करने के लिए उन्होंने ऐसी कई असमान धातुओं के जोड़ों को लेकर एक पुंज बनाया जिसे वोल्टीय पुंज (Volta's pile) कहते हैं। वोल्टा द्वारा इन प्रयोगों के अनुसार विद्युद्धारा प्राप्त करने के लिए 'वोल्टीय सेल' की रचना हुई। उसी वर्ष इंग्लैंड में निकल्सन (Nicholson) तथा कार्लाइल (Carlisle) ने इस बात का पता लगाया कि यदि पानी में विद्युत्धारा प्रवाहित की जाए तो पानी के हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में अपघटन को जाता है। ऐसे अपघटन को वैद्युत् अपघटन (Electrolysis) कहते हैं। क्रुकशैक (Cruick shank, १७४५-१८००) ने पता लगाया कि विलयन के धातुलवण भी इसी प्रकार अपघटित किए जा सकते हैं। इसके पश्चात् फैराडे ने इस क्रिया का नियमित अध्ययन किया तथा फैराडे के नियमों की स्थापना की। इन नियमों अथवा इनसे संबंधित प्रयोगों के आधार पर विद्युद्धारा उत्पादन करनेवाले विभिन्न प्रकार के सेल तथा संचायकों की रचना की गई है।
सन् १८२० में हैंस क्रिश्चियन अरस्टेड (Hans Christian Oersted, सन् १७७१-१८५१) ने खोज किया कि एक तार में प्रवाहित विद्युत् धारा के साथ उससे संबंधित एक चुंबकीय क्षेत्र भी होता है। इस महत्वपूर्ण खोज को किप्रो (Biot, सन् १७७४-१८६२) तथा सावार (Savart, सन् १७९१-१८४१) ने और ऐंपियर (Ampere, सन् १७७५-१८३६) ने गणित एवं प्रयोगों की सहायता से आगे बढ़ाया। ऐंपियर ने यह दिखाया कि दो समांतर तारों में विद्युत् धारा की दिशा समान होने पर आकर्षण तथा विपरीत होने पर प्रतिकर्षण होता है। आरस्टेड के सिद्धांतों को फैराडे ने विकसित किया तथा विद्युत्-चुंबकीय प्रेरण के नियमों की स्थापना की। प्रेरण का अध्ययन बाद में नाइमन (Neumann) तथा वेबर (Weber) ने भी किया परंतु प्ररेणा संबंधी विचारों का महत्वपूर्ण उपयोग क्लार्क मैक्सवेल (Clerk Maxwell, सन् १८३१-१८७९) ने सन् १८५१ में किया तथा 'मैक्सवेल समीकरणों की स्थापना कर विद्युच्चुंबकीय सिद्धांतों को गणित की सहायता से एक सुलझा हुआ रूप दिया। आधुनिक भौतिकी में इन समीकरणों का विशेष स्थान है।
सन् १८२२ में जेबेक (Seebeck, सन् १७७०-१८३१) ने देखा कि यदि एक परिपथ में दो असमान धातुओं को जोड़ दिया जाए और एक जोड़ को गरम किया जाए तो परिपथ में विद्युत् प्रवाहित होती है। ऐसी विद्युत् को 'ऊष्मा विद्युत्' कहते हैं।
सन् १८२६ में जार्ज साइमन ओम (George Simon ohm, सन् १७८७-१८५४) ने प्रसिद्ध ओम के नियम की स्थापना की। सन् १८४१ में जूल (Joule) ने विद्युत् के ऊष्मा प्रभाव का अध्ययन किया तथा बतलाया कि किसी सेल की रासायनिक ऊर्जा, जो परिपथ में धारा प्रवाहित करती है, उस परिपथ में उत्पादित ऊष्मा उर्जा के बराबर होती है। हेल्म होल्टज़ (Helm holtz, सन् १८२१-१८९४), विलियम टॉमसन, केलविन, लार्डं, (William Thomson, Kelvin Lord, सन् १८४७-१८५३) आदि ने विद्युत् ऊर्जा संबंधी अन्य सिद्धांतों का विकास किया। सन् १८४८ में किर्खहाफ़ (Kirchoff, सन् १८२४-१८८७) ने विद्युद्धारा संबंधी नियमों को प्रस्तुत किया। सन् १८५१ में लार्ड केलविन ने ऊष्मा विद्युत् का ऊष्मागतिकी के सिद्धातों द्वारा विश्लेषण किया। सन् १८५५ में मैक्सवेल द्वारा विद्युत् तथा प्रकोशतरंग संबंधी विचारों की नींव पड़ी। सन् १८८४ में जॉन हेनरी पांइटिंग (John HenryPoynting) ने विद्युत् चुंबकीय क्षेत्र में ऊर्जा प्रवाह का अध्ययन किया। सन् १८८६ में हाइन्रिख हेर्ट्स (Heinrich Hertz, १८५७-१८९४) की सहायता से मैक्सवेल के सिद्धांतों को प्रायोगिक समर्थन मिला। इसके पश्चात् विद्युच्चुंबकीय तरंगों के विषय में कई वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हुआ। मारकोनी ने सन् १८९६ में इनका प्रयोग संदेश भेजने में किया। इसी समय के लगभग भारत के जगदीशचंद्र बसु, (१८५८-१९३७) ने उच्च आवृत्तिवाली विद्युच्चंबकीय तरंगों का जनन किया तथा इनके गुणों को प्रकाश के सिद्धांतों से समझाने की चेष्टा की। इसके पश्चात् इस विषय की पर्याप्त प्रगति हुई जिसे फलस्वरूप रेडियो, टेलिविजन तथा 'इलेक्ट्रॉनिकी' का क्षेत्र विकसित हुआ।
हेर्ट्स के अन्य प्रयोगों ने 'प्रकाशविद्युत्' की भी खोज की जिसको आइंसटीन (Einstein) ने क्वांटम सिद्धांतों द्वारा सन् १९०५ में समझाया। सन् १८९५ में तथा उसी समय के लगभग भौतिकी के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी आंदोलन आया। सन् १८९५ में रंटगेन (Roentgen) ने 'एक्सरे' का, १८९६ में बेक्रेल ने (Becquerel) ने रेडियोएक्टिवता (Radio activity) का तथा १८९७ में सर जे.जे. टॉमसन (Sir J.J. Thomson) ने 'इलेक्ट्रान' का आविष्कार किया। टामसन् ने गैसों में से विद्युद्विसर्जन के विषय का भी अध्ययन किया। इस विषय में इनसे पहले, आरंभ में (सन् १८५० एवं उसके बाद) गाइसलर (Geissler), प्लकर (Plucker), हिटॉर्फ (Hitlorf), गोल्डस्टीन (Goldstein) आदि ने कार्य किया था।
बाद के वैज्ञानिकों में से प्रमुख हैं जे.एस. टाउनसेंड (J.S. Townsend) तथा उनके साथी। सन् १९०२ में रिचर्डसन् (Richardson) ने 'तापायनिक' विषय की नींव डाली। 'तापायन धारा' के सिद्धांत पर रेडियो वाल्व तथा इलेक्ट्रॉनिकी के अन्य वाल्वों की रचना हुई है। बीसवीं शताब्दी में एक के पश्चात् एक महत्वपूर्ण खोजों का ताँता बँध गया जिनके परिणाम स्वरूप हैं, आज के हाइड्रोजन बंब, संगलन ऊर्जा (Fusion energy), 'स्पुतनिक' तथा अन्य उपग्रह इत्यादि। इनके पनपने में किसी न किसी रूप में विद्युत् के सिद्धांतों का उपयोग हुआ है।
विद्युत् के विषय का मुख्य विभाजन 'स्थिरवैद्युत्' एवं 'धारा विद्युत्' में किया जा सकता है। 'स्थिर वैद्युत' में सबसे प्रथम है कूलॉम का मूल नियम जो दो बिंदु आवेशों, q व q�, के बीच आकर्षण एवं प्रतिकर्षण के बल F, तथा उनके बीच की दूरी r के सबंध का व्यक्त करता है :
�.
. . . . . . . . . . (१)
K एक नियतांक है जो माध्यम तथा इकाइयों के चुनाव पर निर्भर करता है। यदि बल डाइन में हो तथा दूरी सेमी में तो आवेश की इकाई सी.जी.एस. पद्धति में स्थिर वैद्युत मात्रक अथवा स्टेट कूलॉम कहलाती है। शून्य माध्यम के लिए, इस पद्धति में K=१ होता है। आजकल प्राय: सभी विद्युत की पुस्तकों में एम.के.एस. मात्रक (मीटर-किलोग्राम-सेकंड, M.K.S. Units) का प्रयोग होता है। इस पद्धति में K का मान इकाई न होकर, 1/4p�0 के बराबर होता है, जहाँ
तथा आवेश कूलॉम में मापा जाता है। इसलिए
श्न्यूटन
. . . . . . . . . . . (२)
अथवा
श्डाइन
एक इकाई धन अवेश का अनंत दूरी से एक बिंदू तक लाने में जितने कार्य की आवश्यकता होती है उसे 'विभव' कहते हैं तथा एक इकाई धन अवेश को एक (निम्न विभव) बिंदु से दूसरे (उच्च विभव) बिंदु तक ले जाने में जितने कार्य की आवश्यकता होती है, वह विभवांतर कहलाता है। यदि कार्य W जूल है तो,
श्वोल्ट
. . . . . . . . . . . (३)
सी.जी.एस. पद्धति में V की इकाई 'स्टेट वोल्ट' होती है। एक स्टेट बोल्ट ३०० वोल्ट के बराबर होता है।
'विद्युत् क्षेत्र' किसी एक बिंदु पर स्थित इकाई धन आवेश के विद्युत् बल के मान तथा उसकी दिशा को इंगित करता है, इसको 'विद्युत् तीव्रता' भी कहते हैं।
विद्युत्
क्षेत्र,
अर्थात् q कूलॉम के आवेश पर बल F का सदिश समीकरण है
F = q E . . . . . . . . . . . (४)
क्षेत्र E का विभवांतर V से संबंध, परिभाषा से इस प्रकार भी लिख सकते हैं,
. . . . . . .
. . . . (५)
जहाँ
- (VA
> VB) तथा श्इकाई
आवेश को B से A
तक ले जाने का कार्य है। (E
की दिशा विस्थापन dx के विपरीत है) 'आवेश
के लिए गाउस का नियम' निम्नलिखित है:
गाउस के प्रमेय को हम गणित की भाषा में इस प्रकार लिखते हैं,
. . . . . . .
. . . . (६)
जहाँ, En क्षेत्र का अभिलंब भाग है तथा s एक बंद तल है। यह समीकरण निर्वत के लिए है। यदि हम कल्पना करें कि एक
चित्र १.
बिंदु आवेश, तल s द्वारा घिरा हुआ है, तथा एक कोन (cone) तल का क्षेत्रफल d A काट रहा है जिससे इस क्षेत्रफल द्वारा O पर एक घनाकृति कोण dw बन रहा है तो घनाकृति कोण की परिभाषा से r2� dw = d A cosq, (देखिए चित्र १) तथा यदि क्षेत्र का अभिलंब भाग E cos q हो तो गॉउस के नियम को हम इस प्रकार लिख सकते हैं :
कई
आवेशों के कारण जो क्षेत्र होंगे वे आपस में जुड़ जाएँगे, इसलिए
श्सी.जी.एस.
विद्युत् तीव्रता की परिभाषा इकाई वर्ग क्षेत्र की विद्युत् बल
रेखाओं द्वारा भी की जाती है तथा गाउस के निय को इस प्रकार
कहते हैं : किसी बंद तल पर अभिवाह (flux)
तल के आवेश के 1/�0
गुना होता है। यदि तल में कोई आवेश न हो तो यह रेखा
प्रवाहशून्य होती है, गाउस के नियम का उपयोग आवेशवितरण
का विश्लेषण करने में होता है। आवेश वितरण कई प्रकार
से हो सकता है, गोलाकार, अथवा समतल। इनके लिए विद्युत
तीव्रता ज्ञात करने के लिए गॉउस के नियम का उपयोग होता
हैं। उदाहरणार्थ, विचार कीजिए कि दो संकेंद्री गोले हैं जिनमें
से अंदरवाले गोले (त्रिज्या r1) पर +q
आवेश का वितरण है तथा बाहरी गोले (त्रिज्या r2)
के तल पर -q
का वितरण है तो गाउस के निय द्वारा, जब r
< r1 अथवा r > r2,
इस आघूर्ण को विद्युतरोधी माध्यम का ध्रुवण, P, कहते हैं। यह एक सदिश है जिसकी दिशा क्षेत्र E की दशा में होती है। किसी भी विद्युतरोधी (अथवा पराविद्युत्) तल पर, जो P के अभिलंब हो, प्रेरित तल आवेश का घनत्व, s, संख्यात्मक रूप में P के बराबर होता है। यदि P, की दिशा तल की ओर हो, तो यह घनात्मक तथा यदि P, की दिशा तल की ओर न हो, तो यह ऋणात्मक होता है। विस्थापन (displacement), D,श् की परिभाषा इस प्रकार दी जाती है :
D = �0 E + P (२१)
D तथा P दोनों क्षेत्र के समानुपाती होते हैं।
(क) P = Xe �0 E = k E (ख) D = ke �0 E =� E इसलिए � E=�0 E + k E,
और Ke = �/�0 = 1 + k/�0= 1 + Xe, (२२)
Ke, माध्यम का परावैद्युत् गुणांक (Dielectric coefficient) तथा Xe,श् वैद्युत् प्रवृत्ति (Susceptibility) कहलाते हैं। � माध्यम की विद्युत्शीलता (Permittivity) तथा �0 निर्वात की विद्युतशीलता कहलाती है।
यदि कोई विद्युतरोधी समस्त जगह में भरा हुआ है, तो कूलॉम के नियम को इस तरह हम लिखते हैं :
श्तथा
(२३)
तथा
विस्थापन
(२४)
गाउस के नियम को भी दुबारा, इस प्रकार लिखा जा सकता है।
(२५)
हम
पहले लिख चुके हैं कि एक संधारित्र की कुल स्थिरवैद्युत ऊर्जा
n =
�C
V2,
परंतु यदि संधारित्र की पत्तियों की दूरी d
हो, तो V = E d तथा चूँकि माध्यम में
धारिता C = Ke �0
, है अत: किसी विद्युतरोधी माध्यम में इकाई
आयतन की स्थिरवैद्युत् उर्जा
n = �� E. E
अथवा
n = DE =
�[�0 E2
+ P E]����������������������������������������
(२६)
(निर्वात
में उर्जा घनत्व n
=
��0
E2�
)
वैद्युत आवेशों को उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के यंत्र प्रयोग में लाए जाते हैं। (देखें विद्युत् यंत्र, साइक्लोट्रोन)
विद्युद्धारा - विद्युद्धारा की उत्पत्ति किसी चालक अथवा चालकीय माध्यम में आवेशों की गति के कारण होती है। ये चालक धातु में स्वतंत्र (free) इलेक्ट्रॉन वैद्युत बल के प्रभाव से विद्युद्धारा प्रवाहित करते हैं। विद्युतरोधी में इलेक्ट्रॉन अपने स्थान से केवल तनिक सा खिसक भर सकते हैं परंतु धारा नहीं प्रवाहित कर सकते।
श्(ऐंपियर) (२७)
सी.जी.एस. पद्धति में धारा की स्थिरवैद्युत इकाई स्टेट ऐंपियर कहलाती है। १ ऐंपियर = ३�१०९ स्टेट ऐंपियर। किन्हीं भी दो बिंदुओं के बीच में यदि विभवांतर हो, तो आवेश उच्च विभव बिंदु से निम्न विभव बिंदु की ओर बहने का प्रयत्न करते हैं तथा जब तक दोनों बिंदुओं का विभव बराबर न हो जाए, स्थानीय रूप में आवेश बहते रहते हैं, अर्थात् विद्युद्धारा प्रवाति होती है। किसी परिपथ में धारा प्रवाहित करने की युक्ति को विद्युद्वाहक बल का स्रोत (source) कहते हैं। साधारणतया जब कोई धाराप्रवाह नहीं होता है, तो विद्युद्वाहक बल, विभवांतर के बराबर होता है।
ओम का नियम, प्रतिरोध तथा जूल का नियम - यदि एक चालक, जिसके सिरों पर विभवांतर V हो, में से धारा i बह रही हो, तो एक नियत भौतिक स्थिति पर V, i के समानुपाती होता है।
V � i अथवा V = i R (२८)
यह ओम का नियम है। नियतांक R प्रतिरोध कहलाता है। यदि किसी तार की लंबाई १ हो तथा अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल A,
हो
तो
(२९)
नियतांक
r चालक की प्रतिरोधकता
तथा श्चालक की
चालकता कहलाते हैं। प्रतिरोधकता ताप तथा पदार्थ की प्रकृति
पर निर्भर होती है। यदि किसी चालक की प्रतिरोधकता ३०� सें. पर P80
हो तो, किसी अन्य ताप पर उसकी प्रतिरोधकता को इस प्रकार
लिखा जाता है:
rt=r80 [1 + a (t - 30) ],
a प्रतिरोधकता का तापगुणांक कहलाता है। यदि तापीय प्रसार के कारण विस्तार (dimension) में कोई परिवर्तन न हो तो
Rt = R80 [1 + a (t - 30)] (३०)
अधिकतर धातुओं तथा मिश्र धातुओं की प्रतिरोधकता कमरे के ताप पर लगभग १०-६ से १०-८ ओम मीटर होती है परंतु विद्युतरोधियों, उदाहरणार्थ अंबर, अभ्रक, कागज, काँच, इत्यादि की १०१४ ओममीटर के लगभग होती है। चालक धातुओं तथा विद्युतरोधियों के मध्य हम अर्धचालकों (semi conductors) को रख सकते हैं। इनकी प्रतिरोधकता का ताप गुणांक ऋणात्मक होता है तथा इनमें बहुत थोड़े से चालक इलेक्ट्रॉन होने के कारण इतनी अधिक प्रतिरोधकता होती है। कुछ धातु तथा मिश्रधातु अत्यधिक ताप कम करने पर लगभग प्रतिरोधहीन हो जाती हैं, अर्थात् अतिचालकता (super conductivity) का प्रदर्शन करती हैं (देखें चालकता)। प्रतिरोध की इकाई ओम है। प्रतिरोधों में यदि श्रेणीसंबंधन किया जाए तो
R = R1 + R2 + R3 + ..... (कुल प्रतिरोध) और यदि पार्श्व संबंधन में तो (३१)
श्(कुल
प्रतिरोध)-१
प्रतिरोध को मापने की सबसे सरल तथा प्रचलित विधि है व्हीटस्टोन
सेतु का सिद्धांत जिसका प्रयोग बहुत सी विद्युत् उपकर्णिकाओं
में होता है। सेतु के विभिन्न परिपथों में धारा तथा प्रतिरोध
का विश्लेषण किर्खहॉफ के नियमों (Kirchhoffs
rules) द्वारा किया जाता है : (१) किसी भी विद्युत् परिपथ
में विभिन्न धाराओं का जोड़ एक संधि पर शून्य होता है, (� i=o)
तथा (२) किसी बंद पपिथ में प्रत्येक भाग की धारा तथा प्रतिरोध
का गुणन परिपथ के कुल विद्युद्वाहक बल के बराबर होता है।
(e
= � i R)।
व्हीटस्टोन
चित्र २. व्हीटस्टोनसेतु
सेतु (चित्र २) के B तथा D बिंदुओं पर समान विभव होने की दशा में, गैल्वैनोमीटर में से कोई धारा नहीं बहेगी तथा ऐसी अवस्था में
(३२)
किसी अज्ञात प्रतिरोधी की हम इस समीकरण द्वारा, शेष तीन प्रतिरोध ज्ञात होने पर, गणना कर सकते हैं।
गैल्वेनोमीटर वह यंत्र है जिसके गतिशील भाग धारा प्रवाहित होने पर विक्षेप का प्रदर्शन करते हैं। धारा अंशांकीत (calibrated) गैल्वेनोमीटर द्वारा मापी जाती है। आवेश की मात्रा का अनुमान विक्षेपी गैल्वेनोमीटर द्वारा किया जाता है। विभवांतर को विभवमापी (potentiometer) द्वारा मापा जाता है।
किसी प्रतिरोधवाले तार में से कुछ समय के लिए धरा प्रवाहित करने पर विद्युतीय कार्य होता है तथा विद्युत् शक्ति ऊष्मा शक्ति में परिवर्तित हो जाती है। एक तार, जिसके सिरों पर विभवांतर V है, में से i ऐंपियर धारा प्रवाहित हो रही है, तो प्रति सेकंड i V जूल ऊर्जा अथवा i V वाट शक्ति परिवर्तित हो रही है।
W = i V वाट
जहाँ १ वाट = १०७ अर्ग प्रति सेकंड =१ जूल प्रति सेकंड तथा ओम के नियम से
W = i2 R वाट (३३)
यह जूल का नियम कहलाता है।
जब एक विद्युद्धारा किसी विलयन में से प्रवाहित होती है, तो वह विलेय के अणुओं को विघटित कर देती है और दो भाग विपरीत दिशा में इलेक्ट्रोडों की ओर चलने लगते हैं। यह क्रिया विद्युत् अपघटन कहलाती है। विद्युत् अवघट्य के घना वेशित अयन ऋणात्मक इल्केट्रोड तथा ऋणावेशित अयन घनात्मक इलेक्ट्रोढ की ओर जाते हैं। फैराडे के विद्युत अपघटन नियम ये हैं -
(१)�� विद्युत अपघटन क्रिया में मुक्त अयनों की मात्रा समय t तथा धारा i के समानुपाती होती है :
m � q � i t
(२)�� एक ही परिमाण को विद्युत् द्वारा मुक्त, विभिन्न वस्तुओं के अयनों की मात्रा अपने रासायनिक तुल्यांकों (W) के समानुपाती होती है :
m � W
दोनों नियमों को मिलाकर हम लिख सकते हैं,
m=Z i t
जहाँ Z = K W, K समीकरण का नियतांक है। Z को विद्युत रासायनिक तुल्यांक कहते हैं। विद्युद्विश्लेषण का उपयोग विद्युल्लेपन (Electroplating), विद्युत मुद्रण, शुद्ध धातुओं का उत्पादन, वैद्युद्विश्लेषिक संघारित्र आदि में होता है। (देखें विद्युल्लेपन, विद्युत्रसायन)
विद्युद्धारा के चुंबकीय प्रभाव - ऑरस्टेड (Oersted) ने इस बात की खोज की थी कि विद्युद्धारा के साथ साथ एक चुंबकीय क्षेत्र भी होता है। विद्युद्धारा आवेशों के पुंज की गति के कारण प्रवाहित होती है। ये गतिशील आवेश चुंबकीय क्षेत्र की स्थापना करते हैं। आवेश, आकाश में घूमते हुए स्वतंत्र, किसी तार में बहते हुए, परमाणु में अपने नाभिक के चारों ओर कक्ष में घूमते हुए हो सकते हैं। एक आवेश पर दो प्रकार के बल होते हैं : विद्युत् बल तथा चुंबक बल। आकाश (space) के प्रत्येक बिंदु पर हम दो सदिशों की परिभाषा कर सकते हैं, E विद्युत् तीव्रता, तथा B चुंबक प्रेरण, तकि v वेग से चलते हुए q कूलॉम के आवेश पर बल
F = q (E + v � B), (३४)
जहाँ आवेश q एक इलेक्ट्रॉन के आवेश e = 1.6 � 10-19 कूलॉम का पूर्ण गुणनफल है तथा E वोल्ट प्रति मीटर, v मीटर प्रति सेकंड, तथा B वेबर प्रति वर्ग मीटर; १ वेबर प्रति व.मी. = १०,००० गाउस आवेश q से r दूरी पर चुंबक प्रेरण का समीकरण है :
अथवा सदिश पद्धति में,
(३५)
जहाँ m० = ४p � १०-७ हेनरी/मीटर अथवा वेबर/ऐंपियर मीटर। इस समीकरण को बिओ (Biot) और सावार (Savart) का नियम कहते हैं, इस नियम से हम एक लंबे चालक के बाहर R दूरी पर स्थित किस बिंदु के लिए लिख सकते हैं :
(३६)
यदि हम एक चालक तार के लंबाई अवयव ds में से i धारा प्रवाहित करें, तो q n = i d s
अथवा dF = [i d s � B] तथा तार के अवयव द्वारा स्थापित चुंबक प्रेरण :
(३७)
यदि हम एक दूसरे चालक के लंबाई अवयव ds� में से i� धारा प्रवाहित करें तथा दोनों धाराएँ एक ही दिशा में तथा समांतर हों, तो
(३८)
इस समीकरण से हमें ऐंपियर की परिभाषा मिलती है। इकाई लंबाई तथा इकाई दूरी के लिए यदि बल १०-७ न्यूटन हो तो m० = ४p � १०-७ तथा धारा की इकाई ऐंपियर कहलाती है। इस स्थान पर हम एक नई इकाई पद्धति भी प्रस्तुत करते हैं - विद्युच्चुंबकीय सी.जी.एस. पद्धति जिसमें m०/४p = १, r सेमी. में तथा बल डाइन में मापा जाता है, अर्थात्
इकाई धारा वह है जो एक सेंमी. लंबे तार में से बहते हुए, एक सेंमी. दूरी पर स्थित, समान धारा पर १ डाइन का बल लगाए। इसे लाप्लास (Laplace) का नियम भी कहते हैं।
ऐंपिनर का परिपथ नियम - एक अनंत, सीधे चालक के ईदगिर्द किसी भी वृत्ताकार पथ में (त्रिज्या r) संपूर्ण चुंबक प्रेरण का समीकरण है :
(३९)
(Bt, B का स्पज्या भाग है)।
निर्वात में चुंबक तीव्रता, H की परिभाषा है, B = m0 H इसलिए
Ht
ds = i
(४०)
अर्थात् किसी भी बंद परिपथ में चुंबक क्षेत्र के स्पर्शज्या भाग, Ht का समाकलन परिपथ के संगबँधी (Linked) धारा के बराबर होता है। यह ऐंपियर का परिपथ नियम (Ampere's circuit law) है। इसके विपरीत, एक विद्युत् क्षेत्र के स्पर्शज्या भाग Et का समाकलन एक बंद पथ में शून्य के बराबर होता है,
Et
ds = 0 (४१)
विद्युच्चुंबकीय सी.जी.एस. पद्धति तथा स्थिरवैद्युत् सी.जी.एस. पद्धति से संबंध -
१ वि.चु. इकाई पारा = २.९९८ � १०१० स्थि.वै. इकाई धारा। विद्युच्चुंबकीय पद्धति में भिन्न राशियाँ एब-के कही जाती है; उदाहरणार्थ, एब-कूलॉम, एब-वोल्ट, एब-ऐंपियर, एब-ओम आदि।
विद्युच्चुंबकीय प्रेरण का नियम - यदि हम किसी प्रकार चुंबक-बल-रेखाओं की संख्या में परिवर्तन करें तो एक प्रेरित वि.वा. (विद्युद्वावक) बल की स्थापना हाती है। यह परिवर्तन तार के एक कुंडल तथा एक चुंबक के बीच आपेक्षिक गति के कारण, अथवा दो समीपस्थ परिपथों (एक में बैटरी और दूसरे में गैल्वैनोमीटर) में बैटरी वाले परिपथ को बंद करने एवं तोड़ने, धारा को बढ़ाने एवं घटाने अथवा उसे समीप के परिपथ से दूर ले जाने या पास लाने के कारण किया जा सकता है। प्रेरित वि.वा. बल परिपथ से संबंधित अभिववाह (flux) के परिवर्तन की दर के समानुपाती होता है तथा सकी दिशा सदा उस परिवर्तन के विपरीत होती है जो उसकी स्थापना कर रहा है। यदि किसी कुंडल में n चक्कर हैं और N संबंधित अभिवाह है तो
वि.वा.बल
(४२)
यह फैराडे का प्रेरण नियम कहलाता है।
इकाई
आवेश को एक परिपथ के चारों ओर ले जाने में जितना कार्य
संपन्न होता है, उससे भी परिपथ के वि.वा. बल की परिभाषा
होती है, अर्थात् e = Et
d s जो स्थिर वैद्युत् में
शून्य होता है (समीकरण ४१)। इसके अतिरिक्त किसी तल पर
चुंबक प्रेरण B के अभिलंब भाग का समाकलन, संबंधित
अभिवाह (flux) के बराबर होता है,
N =� Bn
d A अब हम फ़ैराडे के नियम को इस प्रकार लिखते हैं,
Et
d s =
Bn.
d A (४३)
जहाँ n=1 तथा Et क्षेत्र E का स्पर्शरेखीय घटक (tangential component) है। समीकरण ४३, फैराडे के नियम का समाकलन रूप है। इसका अवकलन रूप है :
कर्ल
(Curl) E=
(४४)
किसी एक परिपथ में से प्रवाहित होनेवाली धारा में कोई परिवर्तन उससे संबंधित अभिवाह में भी प्रेरण के नियमानुसार परिवर्तन उत्पन्न करेगा तथा हम यह मान सकते हैं कि किसी कुंडल से संबंधित अभिवाह कुंडल में प्रवाहित हो रही धारा के समानुपाती है। इससे वि.वा.बल
(४५)
L समीकरण का नियतांक है तथा कुंडल का स्वप्रेरकत्व (self inductance) कहलाता है। इसकी इकाई हेनरी होती है :
१
हेनरी =
१ श्=१०९ वि.चु.
इकाई यदि हमारे पास एक के स्थान पर दो कुंडल हैं, तो
पहले में परिवर्तित होती हुई धारा दूसरे में एक वि.वा.
बल की स्थापना करेगी।
(४६)
तथा यदि पहले में धारा अचर रखी जाए तथा दूसरे कुंडल की धारा में परिवर्तन किया जाए, तो पहले कुंडल में वि.वा. बल की स्थापना होगी।
(४७)
M अन्योन्य-प्रेरकत्व (Mutual Inductance) कहलाता है। इसकी इकाई भी हेनरी है।
विद्युत् क्षेत्र की भाँति चुंबक क्षेत्र में भी ऊर्जा संग्रह होती है।
चित्र ३.
इकाई
आयतन की ऊर्जा H B अथवा
m०
H2
होती है तथा किसी परिपथ की कुल ऊर्जा को हम इस प्रकार
लिख सकते हैं :
(४८)
(देखें चुंबकत्व तथा प्रेरण) प्रेरण के सिद्धांतों का उपयोग विद्युत् मोटर, विद्युत् जनित्र, परिणामित्र, चोक कुंडल (Choke coil) आदि में होता है।
मैक्सवेल (Maxwell) के विद्युच्चुंबकीय समीकरण -
समीकरण (४०) का सदिश की भाषा में अवकलन रूप है,
कर्ल H=J (४९)
जहाँ
J सदिश एक सतत चालक के प्रति १ वर्ग मीटर
में बहते हुए ऐंपियरों की संख्या है, मैक्सवेल ने इस समीकरण
में, 'विस्थापन धारा' श्को भी सम्मिलित
किया, अर्थात्
कर्ल
(५०)
विद्युत् तथा चुंबक क्षेत्रों के संबंधों को दर्शाते हुए यह समीकरण प्रस्तुत किया :
फ़ैराडे का नियम (देखें समीकरण ४४):
(१)�
कर्ल
ऐंपियर का नियम (देखें समीकरण ४०, ४९ तथा ५०):
(२)�
कर्ल
गाउस के नियम :
(३)� div D = r (देखें समी. १४ अ)
(४)� div B = o
इनके साथ के दूसरे समीकरण हैं, (१) D = � E (२) B = m H तथा (३) J = s E (जहाँ s चालकता है)। (१) और (२) को हम पहले भी लिख चुके हैं। कुछ पुस्तकों में आप इन्हें गाउस पद्धति में पाइएगा। गाउस पद्धति में B तथा H के लिए वि.चुं. इकाई का प्रयोग होता है तथा आवेश, धारा इत्यादि के लिए स्थि.वै. इकाई का। इसमें स्थिर वैद्युत समीकरण उसी प्रकार रहते हैं परंतु विद्युच्चुंबकीय समीकरण बदल जाते हैं। स्थिर वैद्युत के �0 तथा चुंबकत्व के m0 का संबंध इस प्रकार से है,
प्रकाश कव वेग
(५१)
गाउस पद्धति में �० = १, m० = १
गाउस पद्धति में हम मैसवेल के समीकरण इस प्रकार लिखते हैं वि.चु. इकाई तथा स्थिर वै. इकाई के परस्पर संबंध की सहायता से :
(१)�
कर्ल
(२)�
कर्ल
(३)� div D = 4 pr
(४)� div B = o
मैसवेल के समीकरणों का आज के भौतिक विज्ञान में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है तथा संपूर्ण विद्युच्चुंबकीय सिद्धांतों की व्याख्या उनकी सहायता से होती है (देखें विद्युत् तरंगे तथा विद्युत् चुंबकीय तरंगें)।
विद्युद्धारा की वृद्धि - प्रतिरोध R तथा प्रेरकत्व L वाले एक परिपथ में, कुंजी K (देखें चित्र ४) दबाने पर धारा एक शून्य
चित्र ४.
मान से महत्तम मान io की ओर बढ़ने लगती है परंतु प्रेरकत्व L के कारण एक प्रेरित वि.वा. बल इस वृद्धि का विरोध करता है। इसका समीकरण गणित की भाषा में, हम इस प्रकार लिखते हैं :
E = i R + L di/dt (५२)
इस समीकरण का हल,
श्होगा, (५३)
जहाँ io = E/R तथा L/R=T (मान लीजिए)। T को समयांक (Time constant) भी कहते हैं। परिपथ तोड़ने पर E=0 और
(५४)
कालांक वह समय है, जिसमें धारा वृद्धि महत्तम मान की दो तिहाई तक हो जाती है। बिल्कुल इसी तरह हम उस परिपथ की भी व्याख्या कर सकते हैं जिसमें प्रतिरोध R तथा धारिता C हो, अथवा R, L प्रतिरोध तथा C धारिता है। R और C वाले परिपथ में कालांक T=RC होता है। R, L, C परिपथ की वह दशा प्रमुख है, जब E=o और संधारित्र का विसर्ज़न हो रहा है। ऐसी अवस्था में संधारित्र का विसर्जन दोलकीय (Oscillatory) होता है। इस परिपथ के लिए संमीकरण है :
चित्र ५.
यदि
हम मान लें कि R/2 L=b और 1/LC=
(५५)
इस समीकरण की दो मुख्य अवस्थाएँ हैं :
(१)�� जब b > K आवेश धीरे धीरे कम होकर शून्य हो जाएगा।
(२)�� जब b < K आवेश का विसर्जन दोलकीय होगा। समीकरण (५५) का हल करने पर
(५६)
जहाँ
tan q =
श्तथा
(५७)
आवेश तथा धारा दोनों के समीकरणों में cosine अथवा sine हैं, संघारित्र का विसर्जन दोलकीय होगा तथा दोलनकाल
(५८)
तथा यदि परिपथ प्रतिरोध विहीन है तो
(५९)
और आवृत्ति
(६०)
प्रत्यावर्ती धारा (Alternating Current)-
यदि वि.वा. बल आवर्ती परिणामी हो तो एक प्रत्यावर्ती धारा की स्थापना होती है। प्रत्यावर्ती धारा को हम इस प्रकार लिख सकते हैं,
i = io sin wt = io sin 2p f t (६१)
तथा L, R परिपथ का समीकरण (५२)
E = io R sin i w t + io w L cos w t (६२)
हो
जाता है। यदि हम w
L=Z
sin q और R=Z
cos q रखें ताकि Z=
हो तो,
= Eo sin (wt + q) (६३)
Z परिपथ की प्रतिवाधा (impedance) है। एक प्रतिरोध में ऊष्मा के रूप में व्यय हुई उर्जा,
W = i2 R दिष्ट धारा
तथा W = i2 Z cos q प्रत्यावर्ती धारा,
जहाँ cos q शक्ति गुणक (Power factor) कहलाता है। एक पूर्ण आवृत्ति (cycle) के लिए प्रत्यावर्ती वि.वा. बल का मध्यमान शून्य होगा, चूँकि यह दोनों परिणामी हो रहे हैं, परंतु i2 अथवा E2 का माध्यमान शून्य नहीं होगा। इससे प्रत्यावर्ती धारा एवं वि.वा. बल को इस प्रकार लिखते हैं,
(६४)
तथा
(६५)
Erms तथा irms वर्ग-मध्य-मूल (root meen square) मान हैं।
धारा का दूसरा भाग io sin q कार्य करने की औसत दर में कोई सहयोग नहीं देता। इस भाग को बेकार या वाटहीन धारा (Wattless current) कहते हैं। यदि wL > R तो cos q � o धारा पूर्णतया वाटहीन कहा लाती हैं, अर्थात् केवल प्रेरकत्ववाले परिपथ में काई ऊर्जा व्यय नहीं होता। प्रत्यावर्ती वि.वा. बल के लिए LRC परिपथ में समीकरण इस प्रकार का होगा,
(६६)
यदि हम E = E cosmt लिखें तो इस समीकरण का हल करने पर
(६७)
तथा
यदि
तथा
Z का मान R
के बराबर होता है। यह अनुनाद की अवस्था कहलाती है। इसमें
धारा का मान अधिकतम होता है। साधारणतया w L
= xL तथा श्लिखे
जाते हैं, जहाँ xL परिपथ का प्रेरण प्रतिघात
(Inductive reactance) तथा xL
धारिता प्रतिघात (Capacitive reactance) कहलाते हैं।
परिपथ में यदि केवल xL हो, तो यह आवृत्ति
w
के समानुपाती होने के कारण बढ़ता है, इसी प्रकार xc
घटता है। जब हमें केवल निश्चित आवृत्तिवाली धारा अथवा केवल
दिष्ट धारा चाहिए तो इस गुण का उपयोग छनना (filter)
बनाने में किया जाता है। प्रत्यावर्ती धारा संबंधी इन फलों
को प्रयोग इलेक्ट्रॉनिकी (electronics) के परिपथो, रेडियों,
रेडियो संग्राही, तार यंत्र, बेतारी तार, परिणामित्र आदि में
होता है। (देखें संबंधित शीर्षक)। रेडियो में हमें किसी दूर
स्थान से आते हुए संकेत विद्युच्चुंबकीय तरंगों द्वारा प्राप्त होते
हैं।
किसी चालक में से बहती धारा के मान में यदि कोई परिवर्तन हो, तो उससे संबंधित चुंबक क्षेत्र में भी पविर्तन होगा। यदि हम प्रत्यावर्ती धारा लें तो, परिणामी चुंबक क्षेत्र, के कारण एक परिणामी विद्युत् क्षेत्र भी होगा तथा हमें विद्युत् तरंग और चुंबकीय तरंग प्राप्त होंगी जिनका वेग प्रकाश के वेग के बराबर होगा। 'विद्युत् तरंग' तथा 'चुंबकीय तरंग' परस्पर अभिलंब दिशा में प्रचारित होगी। तरंगों के इस प्रकार प्रचारण को विद्युच्चुंबकीय तरंगों द्वारा ऊर्जा दिक् (Space) में एक स्थान से दूसरे स्थान को संचारित होती है। हेर्ट्स (Hertz) ने एक दोलक की सहायता से कुछ दूरी तक विद्युच्चुंबकीय तरंगे भेजीं। उसके पश्चात् मारकोनी, जगदीशचंद्र बोस तथा अन्य वैज्ञानिकों न इस संबंध में प्रयोग किए और विषय का विस्तार किया। इन तरंगों के गुणों के अध्ययन से मैक्सवेल के समीकरणों की पुष्टि हुई। किसी स्थान में उर्जा बहाव को व्यक्त करने की सबस सरल विधि है, प्यॉइंटिंग (Poynting) के सदिश द्वारा। प्वॉइंटिंग सदिश की दिशा ऊर्जा बहाव की दिशा का संकेत करती है तथा उसका मान यह बतलाता है कि सदिश के अभिलंब इकाई क्षेत्र में से प्रति सेकंड कितनी ऊर्जा जा रही है। इस सदिश को हम इस प्रकार लिखते हैं :
(६८)
मैक्सवेल के समीकरणों की सहायता से हम विद्युत् तथा चुंबक क्षेत्रों के लिए यह तरंग समीकरण प्राप्त कर सकते हैं :
तथा उसके अभिलंब
और उनके प्रचारण का वेग
प्रकाश के वेग
के बराबर होगा।
निर्वात्
में, ३�१०८
मीटर प्रति सेकंड विभिन्न आवृत्तिवाली तरंगों के लिए हमें भिन्न
भिन्न वाल्वों की आवश्यकता पड़ती है, उदाहरणार्थ रेडियो तरंगों
के लिए साधारण रेडियो वाल्व तथा बहुत अधिक आवृत्तिवाली
सूक्ष्म तरंगों (microwaves)
के लिए क्लाइसट्रॉन (Klystron) तथा मैगनेट्रॉन (Magnetron)
आदि। आज सूक्ष्म तरंगों का क्षेत्र बहुत अधिक बढ़ गया है तथा
विभिन्न शोध कार्यों, रेडार, स्पेक्ट्रमदर्शी आदि में उनका उपयोग
हो रहा है। (देखें 'विद्युत् तरंगें', 'विद्युच्चुंबकीय
तरंगें', 'रेडार', 'सूक्ष्म तरंग स्पेक्ट्रमदर्शी', 'रेडियो',
'रेडियो संग्राही')।
गतिशील इलेक्ट्रॉन - किसी द्रव्य के परमाणु में से इलेक्ट्रॉन निकाल देने पर परमाणु का आयनन हो जाता है। इलेक्ट्रॉन की संहति (mass) लगभग ९.१�१०-३१ किलोग्राम तथा ऋण आवेश (e) १.६७�१०-१९ कूलॉम के बराबर होता है। परमाणु समस्याओं के लिए एक नई उर्जा इकाई का उपयोग किया जाता है - इलेक्ट्रॉन वोल्ट (eV)। एक इलेक्ट्रॉन का विभव इकाई वोल्ट बढ़ाने के लिए जितने कार्य की आवश्यकता होती है उसे इलेक्ट्रॉन वोल्ट कहते हैं।
1 e V = १.६ � १०-१९ जूल = १.६ � १०-१२ अर्ग
यदि कोई इलेक्ट्रॉन v सेमी. प्रति से. (cm/sec) के वेग से चल रहा है, तो उसकी गतिज उर्जा,
श्अर्ग
श्अर्ग
जहाँ mo = इलेक्ट्रॉन की स्थिर संहति (rest mass)
=९.१�१०-२८ ग्राम
तथा c प्रकाश का वेग जो लगभग ३�१०१० सेमी. प्रति से. है। कोई भी गैस विद्युतरोधी होती है। दो इलेक्ट्रीडों के बच एक विद्युत क्षेत्र की स्थापना होने पर भी कोई धारा प्रवाह नहीं होती, परंतु साधारणतया कास्मिक किरण, रेडियोऐक्टिव वस्तुओं आदि की गैस की परमाणु पर क्रिया के कारण कुछ ऐसे आवेश उत्पन्न होते हैं, जो विद्युत् क्षेत्र के प्रभाव से गतिमान हो सकते हैं। एक निम्नमान का विद्युत् बल लगाने पर वायुमंडलीय दबाव पर आयनों की संख्या कम होने के कारण गैसों में से बहुत ही कम धारा का चलन होता है, परंतु यदि हम बल कई गुना बढ़ा दें, तो एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब गैस पूर्णतया चालक हो जाती हैं। तड़ित् दमक (lightning flash) इसी प्रकार उत्पन्न की जाती हैं। अब यदि हम गैस का दबाव घटाते जाएँ तो गैस विद्युत् विसर्जन के लिए विद्युत् बल का मान भी घटता जाता है तथा लगभग एक मिमी. हो जाने पर मान फिर बढ़ जाता है। दबाव और कम करने पर, (लगभग १०-२ मिमी.) कैथोड के तल के अभिलंब तीव्र गति स एक आवेशपुंज निकलता है जो विद्युत् तथा चुंबक क्षेत्रों में विक्षेप प्रदर्शन करता है। इस आवेशपुंज में इलेक्ट्रॉन होते हैं (देखें विद्युत् चालन)। तीव्र गति से चलते हुए इन इलेक्ट्रॉनों के पथ में किसी प्रकार की रुकावट डालने पर ऐक्स-किरण की उत्पत्ति होती है। जिस समय सन् १८९५ में रंटगेन (Roentgen) ने ऐक्स-किरण का अविष्कार किया। इसी उत्पत्ति कांच की नली की दीवार पर आवेशपुँज के पड़ने से हुई थी, तथा विभिन्न वैज्ञानिकी ने सोचा कि इन किरणों का कारण काँच की प्रतिदीप्ति (fluorescence of glass) है, परंतु बाद में एक धातु लक्ष्य (metal target) को पथ में रखने से भी ऐक्स-किरण निकलीं। ऐक्स-किरण की प्रकृति तथा गुणों का उपयोग, अध्ययन, शोध, चिकित्सा तथा अन्य क्षेत्रों में, आधुनिक विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। (देखें ऐक्स किरण)।
ताप विद्युत् - यदि दो भिन्न भिन्न धातुओं के तारों के सिरों को जोड़ा जाए तथा एक जोड़ को गरम किया जाए तो परिपथ में विद्युत् धारा प्रवाहित हो जाती है। इस धारा को ताप-विद्युत् धारा कहते हैं तथा धातुआं के जोड़े को 'तापीय युग्म' कहते हैं। (देखें ताप विद्युत्)।
इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन तथा तापायनिक धारा (Thermionic current) - साधारण ताप पर एक धातु के स्वतंत्र इलेक्ट्रॉन (free electrons) धातु तल से छूट नहीं सकते परंतु धातु का ताप बढ़ाने पर इन इलेक्ट्रॉनों की गतिज ऊर्जा बढ़ जाती है तथा कुछ इलेक्ट्रॉन जिनकी ऊर्जा अधिक होती है, धातुतल की विभव सीमा पार करके तल से बाहर आ जाते हैं। इस प्रकार निकले हुए इलेक्ट्रॉन एक धारा की स्थापना करते हैं जिसे 'ऊष्मा धारा' कहते हैं तथा इस क्रिया में जितने कार्य की आवश्यकता होती है उसे तापयन कार्य फलन (Thermionic work function) कहते हैं। धारा का f मान रिचर्डसन के प्रसिद्ध समीकरण द्वारा दिया जाता है, जो इस प्रकार है,
i
= A T2 - f /KT
जहाँ k बोल्टजमान नियतांक (Boltzmann constant), T ताप (�A) तथा A एक दूसरा नियतांक है। रेडियो वाल्व की क्रिया मुख्यतया इस 'तापायनिक धारा' पर निर्भर होती है।
प्रकाश विद्युत् - यदि धातुतलों (metallic surfaces) को उचित आवृत्ति वाले प्रकाश द्वारा प्रकाशित किया जाए तो इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन होता है। इस प्रकार उत्पादित विद्युत् धारा को प्रकाश विद्युत् धारा कहते हैं।
पीज़ो विद्युत् (Piezo electricity) - सन् १८८० में जे. तथा पी. क्यूरी ने पता लगाया कि क्रिस्टल उदाहरण के लिए स्फटिक टूरमैलीन (Tourmaline), अथवा रोशेल लवण (Rochelle salt) इत्यादि में यह गुण होता है कि उनपर यांत्रिक प्रतिबल द्वारा एक विद्युद्वाहक बल लगाया जाए, तो वे यांत्रिक विकृतियों का प्रदर्शन करते हैं। यांत्रिक एवं विद्युत् बलों का यह परस्पर परिवर्तन 'पीज़ो विद्युत्' कहलाता है। क्रिस्टल को प्रयोग करने से पहले एक विशेष प्रकार से काटा जाता है।
तथा उसके दो समांतर फलकों (faces) पर समतल चालक इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं। ऐसी दशा में वह एक संधारित्र की भाँति होता है। यदि क्रिस्टल को एक आयताकार प्लेट के रूप में काटा जाए तो (चित्र ६) उसका X भुजाक्ष 'ध्रुव भुजाक्ष', Y यांत्रिक भुजाक्ष तथा Z प्रकाशीय अथवा उदासीन भुजाक्ष कहलाता है। Z
चित्र ६.
भुजाक्ष की दिशा में कोई पीज़ो विद्युत् प्रभाव नहीं होता। X भुजाक्ष तथा Y भुजाक्ष की दिशा में क्रमश: दाब और तनाव X भुजाक्ष के अभिलंब तलों को आवेशित करेंगे (सीधा पीज़ो प्रभाव)। इसके विपरीत यदि ध्रुव भुजाक्ष की दिशा में हम विद्युत् बल लगाएँ तो क्रिस्टल की X तथा Y भुजाक्ष की दिशा में प्रसरण तथा संकुंचन होगा (विलोमत: पीज़ो प्रभाव)। पीज़ो विद्युत् का प्रयोग क्रिस्टल माइक्रोफ़ोन अति उच्च आवृत्तिवाली ध्वनि तरंगों को उत्पन्न करने में तथा विद्युत् ऊर्जा को यांत्रिक उर्जा में अथवा यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तन करने वाली अन्य कई उपकरणों में होता है।
विद्युत् शक्ति का उत्पादन एवं प्रेषण -
१.����� विद्युत् मोटर
२.����� प्रकाश प्रजनन, कृत्रिम प्रकाश आदि।
३.����� ऐक्स किरण नली (Tube); ऐक्स किरण विज्ञान
४.����� घरेलू उपयोग, उदाहरणार्थ इस्तरी, पंखा, मशीन (सिलाई), खाना पकाने की भट्ठी, रेफ्रजरेटर (Refrigerator), लिफ्ट, रेडियो, वातानुकूलन टेलीविजन (Television) इत्यादि।
५.����� विद्युल्लेपन, वैद्युत् मुद्रण
६.����� विभिन्न प्रकार की स्वचालित मशीने (देखिए सं. शीर्षक)
७.����� विद्युत प्रदाय (गाँव तथा नगर में) (देखें विद्युतन (ग्रामीण), विद्युत प्रदाय प्राविधिक तथा वाणिज्य दृष्टिकोण से)।
८.����� रेल तथा ट्राम गाड़ियाँ।
९.����� उद्योग में विद्युत् शक्ति का उपयोग, राष्ट्र की प्रगति में विद्युत् शक्ति का स्थान (देखे विद्युत् शक्ति, राष्ट्रीय और प्रांतीय योजनाएँ)।
१०.� गणना यंत्र, सारणीयन यंत्र तथा विद्युत् मस्तिष्क।
११.� चिकित्सा विज्ञान में विद्युत्, ऐक्स-किरण अवरक्त चिकित्सा, हृदय की दशा का अध्ययन, चिकित्सा विज्ञान में काम आनेवाली विभिन्न उपकर्णिकाएँ।
आज के प्राविधिक युग में विद्युत् शक्ति का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है तथा प्राय: सभी क्षेत्रों में इसका किसी न किसी रूप में उपयोग हो रहा है। ऊपर १ से ११ तक इन उपयोगां का आभास मात्र दिया गया है। विस्तृत विवरण के लिए संबंधित शीर्षकों के संदर्भ ग्रंथ देखिए।
(नोट - �� एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं)।
सं.ग्रं. - एन.एच. फ्रैंक : इंट्रोडक्शन टु इलेक्ट्रिसिटी ऐंड ऑपटिक्स (१९५०); एस.जी. स्टारलिंग : 'इलेक्ट्रिसिटी ऐंड मैगनेटिज़्म' (१९५३); आर.डब्ल्यू. हचींसन : ऐंडवांस्ड टेक्सट बुक ऑव इलेक्ट्रिसिटी ऐंड मैगनेटिज़्म (१९५२); खरे ऐंड श्रीवास्तव : 'ए टैक्स्ट बुक ऑव इलेक्ट्रिसिटी ऐंड मैगनेटिज्म (१९५९), जी.पी. हार्नवूल : प्रिंसिपल्स ऑव इलेक्ट्रिसिटी ऐंड इलेक्ट्रोमैगनेटिज़्म (१९४९); डब्ल्यू.आर. स्माईद : स्टेटिक ऐंड डाइनेमिक इलेक्ट्रिसिटी (१९५०); (म.प्र.म.)