विद्यार्थी, गणेशशंकर का जन्म आश्विन शुक्ल १४, रविवार सं. १९४७ (१८९० ई.) को अपने ननिहाल, इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में श्रीवास्तव (दूसरे) कायस्थ परिवार में हुआ। इनके पिता मुंशी जयनारायण हथगाँव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। माता का नाम गोमती देवी था। पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। वहीं विद्यार्थी जी का बाल्यकाल बीता तथा शिक्षादीक्षा हुई। विद्यारंभ उर्दू से हुआ ओर १९०५ ई. में भेलसा से अँगरेजी मिडिल परीक्षा पास की। १९०७ ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में भर्ती हुए। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और इलाहाबाद के हिंदी साप्ताहिक 'कर्मयोगी' के संपादन में सयेग देने लगे। लगभग एक वर्ष कालेज में पढ़ने के बाद १९०८ ई. में कानपुर के करेंसी आफिस में ३० रु. मासिक की नौकरी की। परंतु अंग्रेज अफसर से झगड़ा हो जाने के कारण उसे छोड़कर पृथ्वीनाथ हाई स्कूल, कानपुर में १९१० ई. तक अध्यापकी की। इसी अवधि में 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य' (उर्दू) तथा 'हितवार्ता' (कलकत्ता) में समय समय पर लेख लिख्ने लगे।

१९११ में विद्यार्थी जी सरस्वती में पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद 'सरस्वती' छोड़कर 'अभ्युदय' में सहायक संपादक हुए। यहाँ सितंबर, १९१३ तक रहे। दो ही महीने बाद ९ नवंबर, १९१३ को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक 'प्रताप' के नाम से निकाला। इसी समय से विद्यार्थी जी का राजनीतिक, सामाजिक और प्रौढ़ साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। पहले इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद आप उनके अनन्य भक्त हो गए। श्रीमती एनीं बेसेंट के होमरूल आंदोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से काम किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के एक छात्र नेता हो गए। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर 'प्रताप' में लेख लिखने के संबंध में ये ५ बार जेल गए और 'प्रताप' से कई बार जमानत माँगी गई। कुछ ही वर्षों में वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्तप्रात) के चोटी के कांग्रेस नेता हो गए। १९२५ ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागतसमिति के प्रधान मंत्री हुए तथा १९३० ई. में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुए। इसी नाते सन् १९३० ई. के सत्याग्रह आंदोलन के अपने प्रदेश के सर्वप्रथम 'डिक्टेटर' नियुक्त हुए।

साप्ताहिक 'प्रताप' के प्रकाशन के ७ वर्ष बाद १९२० ई. में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया और 'प्रभा' नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासि पत्रिका भी अपने प्रेस से निकाली। 'प्रताप' किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। उसमें देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे। 'चिट्ठी पत्री' स्तंभ 'प्रताप' की निजी विशेषता थी। विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी। ये 'प्रताप' में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे। फलत: सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिए हुए चुस्त हिंद की एक नई शैली का इन्होंने प्रवर्तन किया। कई उपनामों से भी ये प्रताप तथा अन्य पत्रों में लेख लिखा करते थे।

अपने जेल जीवन में इन्होंने विक्टर ह्यूगो के दा उपन्यासों, 'ला मिजरेबिल्स' तथा 'नाइंटी थ्री' का अनुवाद किया। हिंदी साहित्यसम्मलेन के १९ वें (गोरखपुर) अधिवेशन के ये सभापति चुने गए। विद्यार्थी जी बड़े सुधारवादी किंतु साथ ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त थे। व्याख्याता भी बहुत प्रभावपूर्ण और उच्च कोटि के थे। स्वभाव के अत्यंत सरल, किंतु क्रोधी और हठी भी थे। कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में २५ मार्च, १९३१ ई. को धर्मोन्मादी मुसलमान गुंडों के हाथों इनकी हत्या हुई। (बलभद्रप्रसाद मिश्र.)