विद्यापति को लोग महाकवि विद्यापति तथा मैथिल कोकिल विद्यापति भी कहते हैं। इनका जन्म विसपी नामक ग्राम में हुआ था। यह ग्राम कमतौल रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पर दरभंगा जिला में है। इनका जन्म विक्रम संवत् के पंद्रहवें शतक में हुआ था, यद्यपि इनके आविर्भाव अथवा निधन का वर्ष ज्ञात नहीं है। हाँ, विथिला के राजा शिवसिंह के ये दरबारी कवि थे - यह निश्चित है। अंग्रेजी के किसी कवि के विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि उन्हें दो दूरस्थ नगरों के निवासी अपने में एक समझते थे। पर प्राय: विद्यापति ही एक ऐसे कवि है जिन्हें हिंदी, मैथिली एवं बँगला इन तीन भाषाओं के बोलनेवाले समान रूप से अपना मानते हैं। साथ साथ इनका वैशिष्ट्य यह है कि इनकी प्रौढ़ रचनाएँ संस्कृत, अपभ्रंश तथा मैथिली इन तीन भाषाओं में मिलती हैं। इनके कार्यों से पता चलता है कि ये व्यवस्थापक, मंत्री, कवि, धर्मशास्त्री, निबंधलेखक तथा इतिहासवेत्ता समान रूप से थे।
इनकी रचनाओं में ये प्रसिद्ध हैं -
संस्कृत - पुरुषपरीक्षा, दुर्गाभक्तितरंगिणी, शैवसर्वस्वसार, भूपरिक्रमा, विभागसार, इत्यादि।
अपभ्रंश अथवा अवहट्ठ - कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका।
मैथिली - अनेकों गीत तथा मणिमंजरी नाटक जिसमें संस्कृत, प्राकृत तथा मैथिली इन तीनों भाषाओं का प्राय: प्रयोग हुआ था। इनके अतिरिक्त महाकवि ने स्वयं श्रीमद्भागवत की एक प्रतिलिपि की थी।
साहित्यिक दृष्टि से पुरुषपरीक्षा का बड़ा महत्व है। यह ग्रंथ नीतिशिक्षा के लिए लिखा गया था। पंचतंत्र तथा हितोपदेश के समान इसमें अनेक कथाएँ है पर अंतर इतना ही है कि पुरुषपरीक्षा के पात्र समाज के विभिन्न स्तरों से लिए गए मनुष्य हैं, पशु नहीं।
कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका, ये दो ग्रंथ इतिहास की दृष्टि से भी प्रसिद्ध है। इनसे हमें समसामयिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है।
महाकवि विद्यापति के संप्रदाय के संबंध में विभिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ व्यक्ति इन्हें वैष्णव मानते हैं तो कुछ इन्हें शैव कहते हैं। इस विषय को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। पर असल बात तो यह है कि इनमें सांप्रदायिक कट्टरता नहीं थी। इन्होंने विष्णु, शक्ति, शंकर, गंगा, गणेश आदि की आराधना में रचनाएँ की हैं। यदि इनके पदों में राधा कृष्ण का उल्लेख है तो इनकी अनेक नचारियों से इनकी शिवभक्ति की सूचना हमें मिलती है। इन्होंने भागवत के साथ साथ शैवसर्वस्वसार लिखा। इन्होंने वाणेश्वर शिवलिंग की पूजा की थी तथा भवानीपुर नामक ग्राम में उग्रनाथ नामक शिवलिंग की पूजा की थी तथा भवानीपुर नामक ग्राम में उग्रनाथ नामक शिवलिंग का स्थापन किया था और वाजितपुर नामक स्थान पर, गंगातट पर जहाँ इनका दाहसंस्कार किया गया था, वहाँ शिवलिंग की प्रतिष्ठा की गई थी। यदि ये कट्टर वैष्णव होते तो कभी भी शिव के साथ इनका संपर्क नहीं रहता। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ये एक कर्मनिष्ठ स्मार्त ब्राह्मण थे।
विद्यापति की गणना आधुनिक भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ कवियों में की जाती है। कई दृष्टियों से इनकी रचनाएँ उत्कृष्ट समझी जाती है। इसके कई कारण हैं। सर्वप्रथम इनकी रचनाएँ व्यंजनाप्रधान है, जहाँ तुलसीदास, सूरदास आदि महाकवियों की रचनाओं में व्यंजना का उतना प्राधान्य नहीं है। यदि राधाकृष्णपरक गीतों की रचना कर विद्यापति ने पूर्व भारत के वैष्णव समाज की भावी पीढ़ियों के हेतु रचना का साँचा उपस्थित किया तो शिव तथा विष्णु की समान रूप से आराधना कर इन्होंने महाकवि तुलसीदास की रामायण की कथाशैली का एक प्रकार से पूर्वरूप प्रस्तुत किया था। अंतर इतना ही है कि विद्यापति पहले कवि थे, तब उपदेशक, जहाँ तुलसीदास पहले उपदेशक हैं तब है वे कवि।
यद्यपि राधाकृष्ण विषयक गीतों में प्राय: वैसे भाव मिलते हैं जैसे गीतगोविंद में, तथापि अपने भावों को सरल रूप में जिस प्रकार विद्यापति ने रखा, अपनी उक्तियों का समर्थन दृष्टांतों द्वारा जिस प्रकार किया वह जयदेव की रचनाओं में नहीं देखा जाता।
इनकी सबसे अधिक प्रसिद्धि मैथिली में लिखित गीतों द्वारा हुई है जिन्हें लोग पद्य भी कहा करते हैं। इन गीतों की संख्या क्या है, इसका निर्णय आज तक हो नहीं सका है। इनके जो संग्रह आज तक प्रकाशित हुए हैं उनमें एक भी सर्वथा प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। अभी तक पाठों के निर्णय के हेतु बहुत ही कम सामग्री उपलब्ध हो सकी है। पर खेद का विषय यह है कि जहाँ प्राचीन वैष्णव भजन संग्रहों में अनेक अन्य कवियों की रचनाएँ विद्यापतिरचित कही जा रही है वहाँ बिहार-राष्ट्र-भाषा द्वारा प्रकाशित संस्करण में संदिग्ध पाठों का भी सन्निवेश किया जा रहा है। विद्यापति की रचनाओं के विभिन्न प्रकार के अर्थ लगाए जा रहे हैं।
विद्यापति की रचनाओं से पूर्वोत्तर भारत के अनेक कवियों की रचनाएँ अनुप्रेरित हैं। इनसे ब्रजबुली साहित्य की सृष्टि असम, बंगाल तथा उत्कल में हुई। वर्तमान समय में भी रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस कृत्रिम मैथिली भाषा में कुछ रचनाएँ प्रकाशित की थी जिन्हें उन्होंने ''भानुसिंहेर पदावली'' नाम दिया था। (सुभद्रा झा)