विजयनगर राज्य दक्षिण भारत के नरेश इस्लाम के प्रवाह के सम्मुख झुक न सके। मुसलमान उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजयपताका फहराने में असमर्थ रहे। इस्लाम के प्रभुत्व को मिटाकर विजयनगर के सम्राटों ने पुन: हिंदू धर्म को जाग्रत किया। यही कारण है कि दक्षिणपथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया गया है।

दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर उसकी गोद में पला। उसी के किनारे प्रधान नगरी हंपी स्थित रही। विजयनगर के पूर्वगामी होयसल नरेशों का प्रधान स्थान यहीं था। दक्षिण का पठार दुर्गम है इसलिए उत्तर के महान् सम्राट् भी दक्षिण में विजय करने का संकल्प अधिकतर पूरा न कर सके।

द्वारसमुद्र के शासक वीर वल्लाल तृतीय ने दिल्ली सुल्तान द्वारा नियुक्त कंपिलि के शासक मलिक मुहम्म्द के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। ऐसी परिस्थिति में दिल्ली के सुल्तान ने मलिक मुहम्मद की सहायता के लिए दो (हिंदू) कर्मचारियों को नियुक्त किया जिनके नाम हरिहर तथा बुक्क थे। इन्हीं दोनों भाइयों ने स्वतंत्र विजयनगर राज्य की स्थापना की। सन् १३३६ ई. में हरिहर ने वैदिक रीति से राज्याभिषेक संपन्न किया और तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर नामक नगर का निर्माण किया।

विजयनगर राज्य में चार विभिन्न वंशों ने शासन किया। प्रत्येक वंश में प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेशों की कमी न थी। युद्धप्रिय होने के अतिरिक्त, सभी हिंदू संस्कृति के रक्षक थे। स्वयं कवि तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। हरिहर तथा बुक्क संगम नामक व्यक्ति के पुत्र थे अतएव उन्होंने संगम सम्राट् के नाम से शासन किया। विजयनगर राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम ने थोड़े समय के पश्चात् अपने वरिष्ठ तथा योग्य बंधु को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। संगम वंश के तीसरे प्रतापी नरेश हरिहर द्वितीय ने विजयनगर राज्य को दक्षिण का एक विस्तृत, शक्तिशाली तथा सुदृढ़ साम्राज्य बना दिया। हरिहर द्वितीय के समय में सायण तथा माधव ने वेद तथा धर्मशास्त्र पर निबंधरचना की। उनके वंशजों में द्वितीय देवराय का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपने राज्याभिषेक के पश्चात् संगम राज्य को उन्नति का चरम सीमा पर पहुँचा दिया। मुसलमानी रियासतों से युद्ध करते हुए, देबराय प्रजापालन में संलग्न रहा। राज्य की सुरक्षा के निमित्त तुर्की घुड़सवार नियुक्त कर सेना की वृद्धि की। उसके समय में अनेक नवीन मंदिर तथा भवन बने।

दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के संस्थापक सालुब नरसिंह ने १४८५ से १४९० ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम शासक माना गया है। उसने १४९० से १५०३ ई. तक शासन किया और दक्षिण में कावेरी के सुदूर भाग पर भी विजयदुंदुभी बजाई। तुलुब वंशज कृष्णदेव राय का नाम गर्व से लिया जाता है। उसने १५०९ से १५३९ ई. तक शासन किया। वह महान् प्रतापी, शक्तिशाली, शांतिस्थापक, सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक था। उसने नायक लोगों को दबाया, उड़ीसा पर आक्रमण किया और दक्षिण के भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंने कृष्णदेव राय से व्यापारिक संधि की जिससे विजयनगर राज्य की श्रीवृद्धि हुई। तुलुव वंश का अंतिम राजा सदाशिव परंपरा को कायम न रख सका। सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था। सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा दिया अतएव सन् १५६५ ई. में तलिकोट के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है। उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट् में पारस्परिक युद्ध होने के कारण वह मुसलमानी आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया।

हिंदू संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते रहे, परंतु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में र्को परिवर्तन नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मंदिरों का निर्माण दो ऐसे ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं।

विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबंध का संचालन करते थे। केंद्रीय मंत्रिमंडल की समस्त मंत्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबंध के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामंत वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुंदर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है।

विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक् पृथक् कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक दंड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल संबंधी कार्यों में व्यय किया जाता था।

भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्य बहुमुख प्रतिभा के पंडित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र संबंधी क्रमश: जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नाक ग्रंथों की रचना की थी उसी के भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिंदू संस्कृति के आदि ग्रंथ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं। विजयनगर के राजाओं के सय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं।

बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म भी पल्लवित होते रहे। विजयनगर की कला धार्मिक प्रवृत्तियों के कारण जटिल हो गई। मंदिरों के विशाल गोपुरम् तथा सुंदर, खचित स्तंभयुक्त मंडप इस युग की विशेषता हैं। विजयनगर शैली की वास्तुकला के नमूने उसके मंदिरों में आज भी शासकों की कीर्ति का गान कर रहे हैं।

सं.ग्रं. - एपिग्राफिया इंडिका; एपिग्राफिया करनाटिका; कृष्णस्वामी : सोर्सेज ऑव विजयनगर हिस्ट्री; सेवेल : ए फॉरगॉटन इंपायर; कैंब्रिज हिस्ट्री भा. ३; सालेटोर : सोशल-पोलिटिकल साइफ इन विजयनगर इंपायर; विजयनगर स्मारक ग्रंथ (मराठी)। (वासुदेव उपाध्याय)