वामन अलंकार शास्त्र के आचार्यों में उद्भट के बाद वामन का स्थान विशेष महत्वपूर्ण है। ये साहित्यशास्त्र की प्रसिद्ध एवं प्रमुख धारा रीति संप्रदाय के प्रवर्तक हैं। काव्य में अलंकार के स्थान पर रीति की प्रधानता का इन्होंने प्रतिपादन किया है और 'रीतिरात्मा काव्यस्य' इनका प्रमुख सिद्धांत है। रीति की व्याख्या करते हुए रीति मानते हैं और विशिष्ट से उनका अभिप्राय गुणात्मक है। इस प्रकार रचना में माधुर्याद गुणों का समावेश ही उसकी विशेषता है। इस सिद्धांत में गुण और रीति का घनिष्ठ संबंध है, अत: रीति संप्रदाय को गुण संप्रदाय भी कहा जाता है।

'काव्यालंकार सूत्र' वामन का एकमात्र ग्रंथ है जो अलंकार शास्त्र पर सूत्रशैली में लिखा गया है। पाँच अधिकरणों में विभक्त इस ग्रंथ में १२ अध्याय हैं और सूत्रों की संपूर्ण संख्या ३१९ है। ग्रंथ के प्रथम अधिकरण का नाम 'शरीराधिकरण' है जिसके तीन अध्यायों में क्रमश: काव्यप्रयोजन, अधिकारवर्णन, 'रीतिरात्मा काव्यस्य' सिद्धांत का निरूपण, रीति के तीन भेद तथा काव्यप्रकारों का वर्णन है। द्वितीय अधिकरण का नाम 'दोषदर्शनाधिकरण' है, जिसके दो अध्यायों में काव्यदोषों का विवेचन किया गया है। तीसरे 'गुणविवेचनाधिकरण' में दो अध्याय हैं जिनमें काव्य के गुणों का विवेचन तथा गुण और अलंकारों का भेद निरूपण किया गया है। चौथे 'आलंकारिक अधिकरण' के तीन अध्यायों में अलंकार विवेचन है। पाँचवें अधिकरण का नाम प्रायोगाधिकरण है। इसमें दो अध्याय हैं जिनमें शब्दप्रयोग के संबंध में विवेचन किया गया है। ग्रंथ सूत्र, वृत्ति और उदाहरणों के रूप में है जिनमें सूत्र और 'कविप्रिया' नाम की उसकी वृत्ति वामन रचित है और उदाहरणों में कुछ उनके स्वरचित तथा अधिकांश दूसरो के है।

वामन के पूर्ववर्ती उद्भट आदि विद्वान् काव्य में गुण तथा अलंकारों का भेद नहीं मानते। उनके अनुसार लोक में तो शौर्य आदि गुण और हार आदि अलंकारों में यह भेद किया जा सकता है कि गुण समवाय संबंध से और हार आदि संयोग संबंध से शरीर में रहते हैं, किंतु काव्य में ओज, प्रसाद आदि गुण और उपमा आदि अलंकार समवाय संबंध से ही रहते हैं अत: उनमें भेद नहीं किया जा सकता। वामन ने 'काव्यशोभया: कर्तारो धर्मा गुणा:' और 'तदतिशयहेतवस्त्वलंकारा:' के आधार पर गुण तथा अलंकारों का भेद प्रदर्शित करते हुए अलंकारों की अपेक्षा गुणों का विशेष महत्व बताया है।

रीति संप्रदाय ने गुण और अलंकार का भेद स्पष्ट कर साहित्य का बड़ा उपकार किया है। वामन ही प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने इन भेदों का स्पष्ट प्रतिपादन किया है। भामह आदि ने तो रस को अलंकार मानकर उसे काव्य का बहिरंग साधन ही स्वीकारा है किंतु वामन ने कांति गुण के अंदर रस का अंतनिर्देश कर काव्य में रस की महत्ता पर विशेष बल दिया। वामन ध्वनि का अंतर्भाव बझोक्ति में मानते हैं। मम्मट आदि परवर्ती आचार्य रीति का महत्व तो स्वीकार करते हैं, उसे काव्यशरीर के लिए उपयोगी और शोभाधायक भी मानते हैं किंतु 'रतीयोऽवयवसंस्थानविशेषव्' कहकर उसे काव्यशरीर की आत्मा का स्थान नहीं देते। फिर भी अलंकार संप्रदाय की अपेक्षा रीति संप्रदाय का विवेचन कहीं अधिक हृदयंगम तथा व्यापक है।

वामन का समय विभिन्न प्राप्त प्रमाणों के आधार पर निश्चितप्राय है। 'राजतरंगिणी' से ज्ञात होता है कि आचार्य वामन उद्भट के समकालीन एवं सहयोगी थे। कश्मीर नरेश जयादित्य की राजसभा के सभापति के रूप में आचार्य उद्भट और महामात्य के रूप में आचार्य वामन का राजतरंगिणीकार ने सादर उल्लेख किया है। अत: वामन का समय जयादित्य का राजकाल अर्थात् आठवीं शती का अंत और नवीं शती का प्रारंभिक भाग मान्य है। (वि. त्रि.)

वामन २ - विष्णु के अवतार के रूप में वामन का नाम पुराणादि में प्रसिद्ध है। दशावतार सूची में इनका स्थान पाँचवाँ है। गौडीय वैष्णवाचार्यों ने इनको श्री-सौंदर्य-प्रधान अवतार माना है। इन आचार्यों ने यह भी कहा है कि ब्राह्मकल्प में तीन बार इनका आविर्भाव हुआ था। प्रथम स्वायंभुव मन्वंतर में वास्कलि दैत्य के यज्ञ में, वैवस्वत मन्वंतर में धुंधु असुर के यज्ञ में तथा वैवस्वत भन्वंतर के सप्तम चतुर्युंग में बलि के यज्ञ में। यह तृतीय अवतार ही अत्यंत प्रसिद्ध है।

पुराणों में वामन की कथा प्राय: सर्वत्र आई है तथा विवरणों में क्वचित् विभिन्नता भी है। मूल कथा यह है-प्रह्लाद का पौत्र बलि विष्णुभक्त था। वह त्रैलोक्य पर आधिपत्य करना चाहता था। भयभीत देवताओं की प्रार्थना से विष्णु वामन रूप में अदिति और कश्यप के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए और व्रह्मचारीके रूप में उन्होंने यज्ञ में दानकारी बलि के पास जाकर तीन पग भमि को याचना की। बद में त्रिलोक को नापते हुए इन्होंने विराट रूप धारण किया और अंत में इनके द्वारा बलि बद्धावस्था में पाताल को भेज दिया गया, जिससे त्रिलोक का अधिपति बनने की उसकी कामना नष्ट हो गई (दे. बलि)।

वामनावतार का बीज ऋग्वेद के 'इदं विष्णुवचक्रमे (१।२२।१७) मंत्र में दिखाई पड़ता है। निरुक्त (१२ अ) से ज्ञात होता है कि यहाँ विष्णु सूर्य है तथा इसमें सूर्य का विविध अवस्थान उक्त हुआ है। शतपथ ब्राह्मण १।२।५।१५ में भी 'वामनो ह विष्णुरास' कहा गया है। वेद में वामन संबंधी उल्लेख अत्यंत सामान्य है। पुराणकारों ने इस बीज का उपबृंहण किया है जो जनता के लिए उपदेशप्रद है। (रामशंकर भट्टाचार्य)