वात्तो अंत्वान (१६८३-१७२१) फ्रांसीसी चित्रकार। जन्मस्थान वालेनसीयेन् (फ्रांस और बेल्जियम की सीमा पर स्थित एक फ्रांसीसी गाँव) था। इसकी पिता बढ़ई का काम किया करता था। बचपन में अंत्वान को बड़ा दु:ख उठाना पड़ा। गेरँ (Guerin) नामक चित्रकार इन दिनों में वालेन्सीयेन-नगर पालिका में काम किया करता था। अंत्वान उसका शिष्य बना। दुर्भाग्यवशात् गेरँ की मृत्यु हो गई (१७०२) और उन्नीस साल का अपक्व अंत्वान पेरिस जा पहुँचा। वहाँ कुछ दिन तक नाटकों के लिए पार्श्वभूमि चित्रण (scene painting) करता रहा। अन्न, वस्त्रादि के कष्टों से अंत्वान का स्वास्थ्य गिरता गया। बिक्री के लिए दिन रात काम करते रहना और संतोषी रहकर दिन यापन करना इसी तरह दिन बीतते गए। फिर भी चित्रकला में उसकी रुचि बढ़ती गई।

प्रसंगवशात् फ्रांसीसी अकादमी के एक सदस्य द ला फॉस अंत्वान की उदीयमान कला से प्रभावित हुए। उसके चित्रों में एक विशेष ताजगी और रंगवैभव था जिससे फॉस अतिशय मुग्ध हुए। उन्होंने अंत्वान वात्तो को अकादमी का सदस्य बनवा लिया। इस घटना के बाद वात्तो की ख्याति बढ़ने लगी। उसकी एक तस्वीर 'सिथेर की ओर प्रयाण'-लुब्र संग्रहालय में रखी गई है : इसमें हम चित्रकला के इतिहास में प्रथम बार प्रकाशमय रंगसंगति का परिचय पाते हैं। यह पद्धति डेढ़ सौ साल के बाद पुन: फ्रांस में प्रचलित हुई थी। इसका शास्त्रीय विधि से अभ्यास किया गया और माने मोने पिसारो, सिसले सोरा आदि ने उसको (iimpressionism) के नाम से प्रचलित किया। 'सिथेर की ओर प्रयाण' चित्र में एक स्वप्नमय वातावरण है। किसी अद्भुत प्रेमद्वीप की ओर युवक वृंद यात्रा शुरु कर रहे हैं। इस चित्र में रंगों का (Vibration) तूली के अनुपमेय चित्रण से बँध गया है। प्रथम रंगों का वैपुल्य कॅनवस पर उडेलने के बाद बारीक रूपों का (suggestion) चंद रेखाओं से दृष्टिगोचर हो जाता है। इसके चित्रण में एक विशेष अप्रतिहत प्रवाह, सहज भाव और रंगवैभव है।

उसका स्वास्थ्य उत्तरोत्तर बिगड़ता गया। कुछ दिन वह लंदन में भी रहा। चित्र भी बनाता रहा जो वहाँ के कलारसिकों को अतिशय प्रिय लगे। अंत में अनेक दु:खों और पीड़ाओं के बाद गरसाँ (Gersaint) नामक चित्रविक्रेता की गोद में १७२१ में उसका देहांत हुआ, जब उसकी आयु केवल सैंतीस साल की थी। (दिनकर कौशिक)