वातिल परिवहन और प्रेषण - वायु के प्रवाह में निहित शक्ति का उपयोग पवनचक्की आदि चलाने के लिए उपकरण तो बहुत प्राचीन काल से ही होता आया है लेकिन अन्य प्रकार के हल्के ठोस और द्रव पदार्थों के संवाहन की विधियों का विकास अधिकतर १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ। संपीडित हवा अथवा निंर्वात के द्वारा नाना प्रकार के उपकरणों के संचालन का विवरण 'वातिल उपकरण' शीर्षक लेख में दिया जा चुका है। इस लेख में हम वायु द्वारा संवाहन संबंधी अन्य प्रयोगों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे।
वातिल परिवाहक (Pneumatic conveyors) - अनाज आदि ढोनेवाले व्यापारी जहाजों के तहखानों में तटवर्ती गोदामों से अनाज भरने की क्रिया, तो पट्टा तथा डोलची युक्त वाहकों एवं संवाहक नलों द्वारा, गुरुत्वाकर्षण तथा यांत्रिक शक्ति की सहायता से सरलतापूर्वक हो ही जाती है लेकिन आज आदि को जहाज के तहखानों से तटवर्ती गोदाम में पहुँचाने अर्थात् नीचे से ऊपर की तरफ खाली करने का काम कुछ जटिल होता है, क्योंकि जहाजों के भीतर जब भी जहाँ चाहें वहाँ परिवाहक आदि सरलता से नहीं लगाए जा सकते हैं। जहाजों में संपीडित हवा तैयार करने तथा निर्वात करने के यंत्र तो लगे ही रहते हैं और लचीले रबर होज की पहुँच भी सब जगह सरलता से हो सकती है, अत: जहाज के जिस भी तहखाने को अनाज आदि पदार्थ से खाली करना होता है उसमें रबर के होज पाइप, का शुडाकार तुड (nozzle) युक्त सिरा अनाज की ढेरी में घुसेड़ दिया जाता है और ऊपर डेक पर लगे एक शक्तिशाली निर्वात यंत्र से, होज के दूसरे सिरे में से हवा खींची जाती है (देखें चित्र १.)। इसका नतीजा यह होता है कि निचले सिरे के शुंड में अनाज अथवा कोयले का चूरा हवा के साथ प्रविष्ट होकर, होज मे ऊपर को चढ़ता है। ऊपर के सिरे पर पहुँचकर विक्षेपक जाली की टक्कर से, ऊर्ध्वाधर शाखा में गुरुत्वाकर्षण के कारण अनाज आदि तो उस कोठो में गिर जाता है जिससे उसे भरना है और हवा प्रसारित होकर, निर्वात पंखे की अक्षीय अथवा स्पर्शरेखीय दिशा में निकल जाती है। यह युक्ति डकहैम (Duckham) प्रणाली के नाम से १९वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बनाई गई थी। इसके बाद
वातिल चालित अनेक प्रकार के परिवाहकों का आविष्कार हुआ, जो आधुनिक कारखानों में, अनाज, आटा, पार्थिव बुकनियाँ (चूर्ण), छोटा कोयला, रासायनिक चूर्ण, राख, आलू, युद्धोपयोगी गोलियों की खोलें (shells) और यहाँ तक कि लाल गरम की हुई रिवटें भी इस प्रकार के परिवहन के द्वारा स्थानांतरित की जाती हैं। अन्य प्रकार की यंत्रचालित वाहिकाओं की अपेक्षा वातिल परिवाहकों का सबसे बड़ा गुण यह होता है कि इनमें कोई चालू पुर्जे नहीं होते जिनके खराब हो जाने का डर हो। दूसरे, इनके द्वारा स्थानांतरित भोज्य पदार्थ स्वास्थ्यकर अवस्था में ही रहते हैं, क्योंकि उनका संपर्क मशीनी तेल आदि से नहीं होने पाता। लेकिन इन प्रकार के परिवहन में यह दोष है कि सामान्य मात्रा के पदार्थों को स्थानांतरित करने के लिए निर्वात अथवा वायु संपीडन करने में बहुत अधिक शक्ति खर्च करना पड़ता है। यांत्रिक परिवाहकों में वास्तविक संवहन कार्य तथा यंत्र की क्षमता के अनुसार ही शक्ति खर्च होती है।
वातिल पत्र प्रेपण विधि
- संपीडित वायु
अथवा निर्वात के, पहले उपयोग से सर्वथा भिन्न दूसरे प्रकार
के इस उपयोग का आविष्कार १८५३ ई. में जे. एल. क्लार्क ने
किया। इसने लंदन के इलेक्ट्रिक और इंटरनैशनल टेलीआफ
कंपनी के सेंट्रल और स्टॉक एक्सचेंज स्टेशनों के बीच डाक भेजने
की व्यवस्था की थी। फिर कई लोगों ने इसमें अनेक सुधार
भी किए, जिसके फलस्वरूप इंग्लैंड के कई बड़े बड़े डाक और
तारघरों तथा दफ्तरों में एक कमरे से दूसरे कमरे में तथा
एक भवन से दूसरे भवन में भी छोटे छोटे कागज भेजने का
काम इसी युक्ति द्वारा किया जाने लगा। कुछ वर्ष पहले तक
कलकत्ते के डाक और तारघर में भी इस युक्ति का उपयोग होता
था और एक मंजिल से दूसरी में भी पत्रादि प्रेषित किए जाते
थे। इस युक्ति में श्अथवा
३�� भीतरी व्यास की
पीतल की नलियों का उपयोग होता है, जिन्हें ए कमरे से दूसरे
कमरे या भवन तक लगा दिया जाता है। इन नलियों की भीतरी
सतह बहुत ही चिकनी तथा सर्वत्र समान व्यास की होती है।
चिट्ठियाँ अथवा कागज रखने के लिए गटापारचा की बनी लगभग
एक फुट लंबी बेलनाकार डिबियाएँ होती हैं, जिनपर फेल्ट मढ़ा
रहता है तथा उनके मुँह पर भी फेल्ट की ही डाट लगी होती
है, जो ठोकर भी सह सकती है।
श्व्यास
की डिबिया में ५,
श्व्यास
की डिबिया में २० और ३��
व्यास की डिबिया में ५० कागजों तक का पुलंदा रबर की डोरी
से लपेटकर रखा जा सकता है। इन डिबियाओं में कागज भरकर,
उपर्युक्त लंबी नलियों के मुँह में घुसेड़कर, नलियों के मुँह
का ढक्कन बंद कर दिया जाता है फिर विद्युत् चालित किसी हवा
देनेवाली धौंकनी (blower) को चलाकर लंबी नली
में हवा प्रविष्ट कराई जाती है, जिसके जोर से वह डिबिया
सरककर दूसरे कमरे या भवन में चली जाती है और वहाँ घंटी
का संकेत मिलने पर उस डिबिया को निकाल लिया जाता है और
इधर धौंकनी स्वत: ही बंद हो जाती है। जहाँ डिबियों के
निकलकर गिरने का प्रबंध होता है, वहाँ नली में हवा की दाब
कम होते ही धौंकनी स्वत: बंद हो जाती है और डिबिया सुविधानुसार
उठा ली जाती है। इसी के समांतर एक नली और लगी होती
है, जिससे डिबियाएँ वापस लौट आती हैं। कई जगहों पर
धौंकनी से हवा देने के बदले निर्वात पंखों का प्रबंध होत
है। इनमें एक सिरे पर डिबिया को भरकर रखने के बाद नली
का ढक्कन बंद करते ही, दूसरे सिरे का पंखा विद्युतयुक्ति से
स्वयं चलकर चूषण द्वारा डिबिंयों को खींच लेता है और फिर
स्वत: बंद हो जाता है। कई बड़े कार्यालयों में किसी केंद्रीय
स्थान पर एक वायु संपीडक इंजन भी लगा दिया जाता है, जिसमें
एक बड़े ढोल (reservoir)
में लगभग २० पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब की हवा भरी रहती
है। इसी ढोल में से वायुवाहिनी नलियाँ, जहाँ जहाँ वातिल
प्रेषण उपकरण काम करता है, उपर्युक्त पीतल की नलियों के
समांतर लग दी जाती है और उनको स्थान स्थान पर, जहाँ से
चिट्ठियाँ डाली या निकली जाती हैं, एक बारीक छेद की टोंटी
द्वारा संबंधित कर देते हैं। कागज भरी डिबिंया प्रेषकनली में
रखने के बाद ढक्कन बंद करके, वह टोंटी खोल दी जाती है
जिसमें से संपीड़ित हवा आकर उन डिबियाओं को ढकेल देती
है। अंतिम छोर तक जाते जाते प्रसारित होने पर भी हवा की
दाब लगभग एक पाउंड प्रति वर्ग इंच रह जाती है। इस प्रेषक
नली की लंबाई के हिसाब से ही टोंटी के छेद का व्यास निश्चित
किया जाता है। संपीडित हवा के ढोल में एक सेफ्टी वाल्व भी
लगा होता है, जो नियत दाब से ऊपर हवा की दाब नहीं बढ़ने
देता। दाब की सीमा पहुँचने पर यदि वायु खर्च नहीं होती,
तो एक विद्युत् चालित रिले युक्ति के द्वारा इंजन बंद हो
जाता है और वायु खर्च होना आरंभ होते ही फिर स्वत: चालू
हो जाता है, अथवा वातिल संचायकों (pneumatic accumulators) का उपयोग किया जाता है। अमरीका के न्यूयार्क
आदि शहरों में एक बैचलर प्रणाली का उपयोग किया जाता है,
जिसमें ६��,
८�� और १०�� व्यास तक की वाहकनलियों
का उपयोग किया जाता है। इन नलियों को ढले लोहे की बनाकर
इनके भीतरी भाग को बहुत सही तथा चिकना बोर (bore) कर दिया जाता है। ८�� व्यास की नली
में ७�� व्यास की और
२१�� लंबी इस्पात
की बनी डिबियाँ रखी जाती हैं, जिन्हें वाहक नली में वायुरुद्ध
(airtight)
रखने के लिए ग्रैफाइट आदि से चिकनी की हुई पैकिंग रिंगें
भी लगाई जाती हैं, जैसी पिस्टनों में लगाते हैं। इस प्रकार
की एक डिबिया में ८ पाउंड के लगभग कागज भरे जा सकते हैं
और उनके चलने की रफ्तार लगभग २५-३० मील प्रति घंटा होती
है।
जलप्रेषण - संपीडित वायु का तीसरा एक बड़ा ही महत्वपूर्ण उपयोग, बहुत गहरे कुओं से पानी को खींचकर बहुत ऊँचाई और दूरी पर प्रेषित करना है। चित्र २. में इस विधि से हवा और जलप्रदाय के नल लगाने की चार विधियाँ, आकृति क. ख. ग. और घ. के रूप में दिखाई गई हैं। इस प्रकार के जलप्रेषण कार्य के लिए एक स्वतंत्र नली द्वारा संपीडित हवा नलकूप के पेंदे तक पहुँचाई जाती हैं, जहाँ वह, पानी में मिश्रित होकर उसे नलकूप के बाहर भरे रहनेवाली पानी की अपेक्षा हलका कर देती है। नलकूप वास्तव में जलप्रदाय नल का भी काम देता है। जब नलकूप के पानी में संपीडित हवा बलात् मिश्रित होती है, तब उस पानी की दाब
चट्टानों की दरारों और स्रोतों में भरे पानी से, जो वायुमंडल की दाब से प्रभावित है, नलकूप के पेदे में बाहर के पानी की अपेक्षा प्रति वर्ग इंच कम हो जाती है। इसके कारण बाहर के स्रोतों द्वारा पानी आ-आकर प्रदाय नल (नलकूप) में चढ़ने लगता है। संपीडित हवा खोलने के पहले तक तो प्रदाय नल और उसके बाहर के पानी की सतह एक ही रहती है, लेकिन प्रदाय नल में हवा के मिश्रित होते ही पानी हलका होकर, शांतिपूर्वक, बिना किसी झटके या आवाज के ऊपर चढ़कर बाहर निकलने लगता है। जहाँ पर पानी को अपने निर्दिष्ट लक्ष्य स्थान पर पहुँचने के पहले काफी ऊँचाई पर चढ़ना अथवा दूर जाना होता है, वहाँ इस काम के लिए अतिरिक्त शक्ति खर्च होती ही है, अत: अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रदाय नल के ऊपरी मुंह पर एक बड़ा हवाबंद प्रकोष्ठ लगाकर, उसमें पानी छोड़ा जाता है और उस समय उस पानी के बहाव के वेग और उसमें मिश्रित हवा की दाब का सदुपयोग कर, उपर्युक्त कार्य के लिए कुछ ऊर्जा संग्रह कर ली जाती है। इसके लिए ज्यों ही पानी उपर्युक्त प्रकोष्ठ में गिरता है, उसमें की पूर्वमिश्रित संपीड़ित हवा स्वतंत्र होकर प्रकोष्ठ के ऊपरी भाग में इकट्ठी होने लगती है और उसमें तेजी से भरता हुआ पानी अपनी गत्यात्मक ऊर्जा और प्रकोष्ठ में प्रवर्धनशील आयतन के द्वारा उस हवा को पुन: संपीडित कराता है, जिससे हवा भी इस पानी को प्रकोष्ठ में दबाकर आगे की तरफ प्रेषित करती है। इस प्रकोष्ठ के ऊपर अचल भारयुक्त, अथवा कमानी युक्त, एक सुरक्षावाल्व भी लगा होता है, जो प्रकोष्ठ में हवा की दाब को एक नियत मात्राा स अधिक नहीं बढ़ने देता। पंप की अपेक्षा इस विधि में सुविधा यह है कि इसमें कोई ऐसे चालू पुर्जें, यथा पिस्टन और वाल्व आदि, नहीं होते, जिनके टूट जाने, या घिस जाने का डर हो।
सं. ग्रं. - मैक्ग्रा हिल बुक कं. : १. मैटीरियल हैंडलिंग; २. पंप। (ओंकारनाथ शर्मा)