वस्तुविक्रय किसी वस्तु का स्वामित्व धन के बदले में हस्तांतरित करने को विक्रय कहते हैं। वस्तु के स्वामित्व को हस्तांतरित करनेवाला विक्रेता, जिसे वह स्वामित्व प्राप्त होता है उसे क्रयी, क्रैता अथवा क्रयकर्ता तथा उक्त धनराशि को उस वस्तु का मूल्य कहा जाता है। वस्तु का स्वामित्व अन्य प्रकार से भी हस्तांतरित किया जा सकता है, जैसे कोई अपनी वस्तु किसी को उपहारस्वरूप दे दे अथवा किसी वस्तु के बदले में दे दे। इस प्रकार के संपत्तिहस्तांतरण को विक्रय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विक्रय का मूल आधार मूल्य विनिमय ही है। यहाँ उल्लेखनीय है कि अमरीकी, फ्रांसीसी तथा जर्मन विधि में वस्तुविनिमय को भी वस्तुविक्रय की परिधि में माना गया है।

विक्रय शब्द के सामान्य अर्थ के अनुसार विक्रय की जानेवाली वस्तु चल और अचल दोनों प्रकार की संपत्ति हो सकती है। भारत में अचल संपत्ति के विक्रय संबंधी तथा स्वामित्व हस्तांतरण संबंधी नियम संपत्ति-हस्तांतरण-विधि (Transfer of Property Act) में दिए गए हैं। और चल संपत्ति के विक्रय विषयक नियम वस्तु-विक्रय-विधि (१९३०) में उपलब्ध हैं।

संपत्ति-हस्तांतरण-विधि की धारा ५४ के अनुसार यदि अचल संपत्ति की कीमत १०० रुपए से अधिक है तो उसका विक्रय लिखित दस्तावेज द्वारा ही हो सकता है। चल संपत्ति के लिए ऐसी अनिवार्यता नहीं है।

वस्तुविक्रय एक प्रकार का अनुबंध है। अत: बेचनेवाले की ओर से प्रस्ताव तथा दूसरे पक्ष द्वारा उस प्रस्ताव की स्वीकृति और कुछ मूल्यवान् प्रतिदेय आवश्यक है। यह प्रस्ताव और स्वीकृति लिखित रूप में भी हो सकती है, जुबानी भी हो सकती है और तत्संबंधी पक्षों के आचरण द्वारा भी प्रकट की जा सकती है। किसी दुकान में किसी वस्तु का दाम पूछने पर दुकानदार जो मूल्य बताता है वही विक्रेता का प्रस्ताव है और वह मूल्य जो हम उसे देते हैं वही प्रतिदेय तथा हमारी स्वीकृति है। यह प्रस्ताव क्रयकर्ता की ओर से भी आ सकता है।

वस्तुविक्रय में चूँकि वस्तु के स्वामित्व का हस्तांतरण होता है अत: स्पष्ट है कि वस्तुविक्रय वही कर सकता है जिसे विक्रय करने का अधिकार है। वस्तुविक्रय उस वस्तु का स्वामी तो कर ही सकता है, उस स्वामी का अभिकर्ता भी कर सकता है। अचल संपत्ति के विक्रय में तो किसी न किसी पद पर संपत्ति के स्वामी की अथवा उसके अभिकर्ता की (जिसके पास लिखित अधिकारपत्र है) स्वीकृति उपलब्ध होना अनिवार्य है क्योंकि उसका विक्रय लिखित होता है। लेकिन चल संपत्ति के विषय में यह स्थिति अनिवार्य नहीं होती। अनेक प्रकार के व्यापारिक संबंधों में ऐसा हो सकता है कि वस्तु का स्वामी कोई और हो और वह वस्तु अधिकार में किसी दूसरे के हो। यह तथ्य सभी पर प्रकट हो, ऐसा भी आवश्यक नहीं है। इसलिए वस्तु-विक्रय-विधि का यह नियम है कि जब कोई व्यक्ति कोई वस्तु विक्रय करता है तो उसके इस कृत्य का यह प्रतिबंध (condition) है कि उसे उस वस्तु के विक्रय का अधिकार है और यह अध्याभूति (warranty) है कि वह वस्तु किसी प्रभार आदि से मुक्त है तथा क्रयकर्ता उसक शांतिपूर्ण उपयोग कर सकता है।

वस्तुविक्रय के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि विक्रय के समय विक्रेता के पास वस्तु उपलब्ध ही हो। भविष्य में उपलब्ध होनेवाली वस्तु का भी विक्रय अनुबंध हो सकता है। भावी वस्तुविक्रय तथा माल और मेहनत का अनुबंध इन दोनों में अंतर है और उनसे संबंधित विधिनियम भी भिन्न हैं। दोनों पक्षों की मंशा के आधार पर ही यह निश्चय होत है कि वह भावी वस्तुविक्रय है या नहीं।

प्रतिनिवेदन (Representations), प्रतिबंध (conditons) तथ अध्याभूति (warranties) - वस्तुविक्रय के लिए विक्रेता अनेक प्रतिनिवेदन करता है। जिस प्रकार अपने दही को कोई खट्टा नहीं कहता, सभी मीठा कहते हैं, उसी प्रकार उनमें कुछ सही होते हैं कुछ गलत भी होते हैं। सामान्यतया उनका प्रभाव विक्रय अनुबंध की वैधता पर नहीं पड़ता लेकिन अगर विक्रेता के किसी प्रतिनिवेदन से ही क्रयकर्ता प्रेरित हुआ हो और वह प्रतिनिवेदन मिथ्या तथा धोखा देनेवाला हो तो क्रयकर्ता उस विक्रय के अनुबंध से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। साथ ही विक्रेता को अपने प्रतिनिवेदन के विपरीत जाने से रोका जा सकता है।

वस्तु-विक्रय-अनुबंध में अनेक शर्तें या अभिसंवेदन होते हैं। जो अभिसंवेदन विक्रय अनुबंध का सार है और जिसकी पूर्ति न होने से अनुबंध को अस्वीकृत किया जा सकता है, उसे प्रतिबंध (condition) कहते हैं और जो अभिसंवेदन अनुबंध के सार का आनुषंगिक मात्र है तथा जिसकी पूर्ति न होने पर क्षतिपूर्ति की तो माँग की जा सकती है किंतु विक्रय अनुबंध को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, उसे अध्याभूति (warranty) कहते हैं। कौन सा अभिसंवेदन प्रतिबंध है और कौन सा अध्याभूति, इसका निर्णय विक्रय अनुबंध के तथ्यों पर निर्भर होता है और इसका निर्णय करने के सामान्य नियम (यदि अनुबंध में दोनों पक्षों के मत स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं हुए हैं तो) भा. वस्तु-विक्रयविधि की धारा ११ से १८ में दिए गए हैं। उदाहरणार्थ-सामान्य रूप से मूल्य अदायगी का समय निर्धारण विक्रय अनुबंध का सार नहीं है (धारा ११)। जहाँ वस्तु का वर्णन करके विक्रय अनुबंध किया गया हो वहाँ यह ध्वनित प्रतिबंध है कि विक्रय की गई वस्तु उस वर्णन के अनुरूप हो। यदि विक्रय अनुबंध वर्णन ओर नमूने पर आधारित हो तो वहाँ वह वस्तु केवल वर्णन अथवा केवल नमूने के नहीं वरन् दोनों के अनुरू होनी चाहिए (धारा १५)। वस्तुविक्रय में जो परिस्थितियों को छोड़कर इस बात की कोई अध्याभूति अथवा कोई प्रतिबंध नहीं होता कि वह वस्तु किसी विशेष कार्य के अनुकूल होगी अथवा किसी विशेष श्रेणी की होगी (भा. व. वि. वि. धारा १६)। इस नियम का प्रथम अपवाद यह है कि यदि क्रयकर्ता ने अपना उद्देश्य, जिसके लिए वह वस्तु क्रय कर रहा है, बता दिया है तथा विक्रेता के तत्संबंधी विशिष्ट ज्ञान एवं निर्णय पर निर्भर है तब विक्रेता पर (भले ही वह उस वस्तु का स्वयं निर्माता न हो) यह प्रतिबंध है कि वह वस्तु उस उद्देश्य की पूर्ति के अनुरूप हो। लेकि अगर क्रयकर्ता कोई वस्तु उसके पेटेंट अथवा ट्रेड मार्क के नाम से मॅगाता है तब उक्त प्रतिबंध नहीं है।

दूसरा अपवाद है कि जहाँ कोई वस्तु उस वस्तु के सामान्य व्यापारी से क्रय करता है (वह विक्रेता उस वस्तु का निर्माता हो या न हो) वहाँ वह प्रतिबंध है कि वह वस्तु वाणिज्य योग्य श्रेणी की होगी। लेकिन अगर क्रयकर्ता ने उक्त वस्तु की जाँच कर ली हो तो कोई प्रतिबंध नहीं है।

वस्तु-विक्रय-अनुबंध का मूल आधार यद्यपि मूल्य विनिमय है तथापि मूल्य की तुरंत अदायगी अनिवार्य नहीं है। यह परस्पर अनुबंध का विषय है कि पूरा मूल्य वस्तु मिलने के पूर्व अदा कर दिया जाए अथवा वस्तु मिलने पर किया जाए या वस्तु मिलने के बाद भी उसकी अदायगी किस्तों में होती रहे।

इसी प्रकार क्रय की गई वस्तु पर तुंरत अधिकार उपलब्ध होना भी विक्रय की पूर्ति के लिए अनिवार्य नहीं है। यह हो सकता है कि विक्रय करने के बाद भी वह वस्तु विक्रेता के अधिकार में ही रहे अथवा उपनिधान (Bailment) के रूप में वाहक के अधिकार में रहे। वस्तु पर अधिकार किसी का रहे, किंतु विक्रय के बाद वस्तु का स्वामित्व क्रयकर्ता में ही निहित होता है। यदि विक्रय की पूर्ति किन्हीं शर्तों पर निर्भर है तो इन शर्तों की पूर्ति होने पर ही वस्तु की संपत्ति हस्तांतरित होती है (धारा १८ से २६ तक)। जब तक वस्तु का स्वामित्व हस्तांतरित नहीं होता तब तक वस्तु का दायित्व विक्रेता पर ही रहता है (धारा २६)।

वस्तुविक्रय संबंधी अनुबंध में यदि किसी ओर से अनुबंध की शर्तों का पालन नहीं होता तो दूसरे पक्ष को भी अनुबंध की शर्तें अस्वीकृत करने का सापेक्ष अधिकार है। जैसे विक्रेता यदि अनुबंध के विपरीत वस्तु की कुल मात्रा एक बार में न पहुँचाकर किस्तों में पहुंचाए तो क्रयकर्ता उन्हें स्वीकार करने से इन्कार कर सकता है। इसी प्रकार अनुबंध के अनुसार मूल्य की किस्त मिलने पर ही वस्तु की किस्त पहुंचाता है और मूल्य की किस्त अदा नहीं होती तो विक्रेता वस्तु पहुंचाने से इन्कार कर सकता है। क्रय-विक्रय-कर्ताओं के इन परस्पर अधिकारों और उत्तरदायित्वों का उल्लेख वि. वि. की धारा ३१ से ४४ तक में है।

यदि विक्रेता को वस्तु का कुल मूल्य प्राप्त नहीं हुआ हो और उधार खाते की व्यवस्था उक्त अनुबंध में अथवा उन पक्षों के व्यापारिक व्यवहार में न हो तथा वस्तु क्रयकर्ता के अधिकार में न पहुंची हो तो तथा वस्तु क्रयकर्ता के अधिकार में पहुंचने के पहले ही क्रयकर्ता दिवालिया हो गया हो, विक्रेता क्रमश: अपने धारणाधिकार (lien) का अधिकार प्रयोग कर सकता है, वस्तु को रास्ते में रोक सकता है तथा उक्त वस्तु का पुन: विक्रय कर सकता है। इस विषय के नियम धारा ४५ से ५४ तक में उपलब्ध हैं।

क्रयकर्ता तथा विक्रेता द्वारा विक्रय अनुबंध की अवहेलना करने पर दूसरे पक्ष को क्षतिपूर्ति का अथवा अनुबंध को भंग घोषित करने या दावा करने का अधिकार है। उन नियमों का उल्लेख धारा ५५ से ६१ तक में किया गया है। (जी. के. अ.)