बली, दक्खिनी इनके नाम के संबंध में कई मत हैं। मीर हसन ने शाह वली अल्लाह लिखा है और मौलाना आजाद ने शाम्स वली अल्लाह। कोई इन्हें गुजराती बतलाते हैं तो कोई औरंगाबादी। औरंगाबाद ही इनका जन्मस्थान है, यह अधिक ठीक माना गया है। इनका जन्म सन् १६६८ ई. में कहा जाता है, और मृत्यु सन् १७४४ ई. में बतलाई जाती है। मौलाना आजाद ने अपनी पुस्तक आबेहयात में इनकी उर्दू का प्रथम दीवान रचयिता कवि माना है, पर कुतुबशाही सुलतानों के दीवानों के प्राप्त हो जाने से यह बात गलत सिद्ध हो गई है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि वली ने उर्दू कविता, विशेषकर उर्दू गजल की नींव खूब दृढ़ की और उसे अच्छी प्रकार बनाया, सँवारा।

औरंगाबाद में शिक्षा समाप्त कर वली अहमदाबाद गए और शाह वजीहुद्दीन के मदरसे में भर्ती हुए। यह उनके शिष्य (मुरीद) भी हो गए और बहुत दिनों तक उनके यहाँ रहकर अपनी जन्मभूमि लौट आए। इन्हें भ्रमण करने का बहुत शौक था और ये कई बार उत्तरी भारत गए। इनकी कविता से इधर के लोग बहुत प्रभावित हुए। इन्होंने भी उत्तरी भारत से बहुत कुछ सीखा। औरंगजेब के राज्यकाल में सन् १७०० ई. में यह एक बार दिल्ली आए और दूसरी बार मुहम्मदशाह के राज्यकाल में। दूसरी बार यह दीवान भी साथ लाए और इनकी कविता की दिल्ली में बड़ी चर्चा रही। वली ने कर्बला के शहीदों (मारे गए वीरों) के संबंध में एक मसनवी लिखी है, जिसका नाम 'देह मज्लिस' है। सूफी रंग में लिखा गया इनका हिंदी का दीवान तथा रिसाला 'नूरुल मारफत' है। इनकी समग्र रचना 'कुल्लियाते वली' के नाम से अंजुमने तरक्कीए उर्दू ने प्रकाशित की है।

वली की भाषा अत्यंत सरल तथा सरस है। उसें प्रवाह, स्वच्छता तथा निर्दोषता सर्वत्र है। शृंगारिकता तथा सूफी रंग इनकी कविता में भरा हुआ है। जीवन संबंधी विचार, नगरों तथा अन्य अनेक दृश्यों के वर्णन और मित्रों के उल्लेख इनकी कविता में हैं पर किसी बादशाह की प्रशंसा इन्होंने नहीं की। (रजिया सज्जाद ज़हीर)