लोकसंपर्क लोकसंपर्क का अर्थ बड़ा ही व्यापक और प्रभावकारी है। लोकतंत्र के आधार पर स्थापित लाकसत्ता के परिचालन के लिए ही नहीं बल्कि राजतंत्र और अधिनायकतंत्र के सफल संचालन के लिए भी लोकसंपर्क आवश्यक माना जाता है। कृषि, उद्योग, व्यापार, जनसेवा और लोकरुचि के विस्तार तथा परिष्कार के लिए भी लोकसंपर्क की आवश्यकता है। लोकसंपर्क का शाब्दिक अर्थ है जनसधारण से अधिकाधिक निकट संबंध। प्राचीन काल में लोकमत को जानने अथवा लोकरुचि को सँवारने के लिए जिन साधनों का प्रयोग किया जाता था वे आज के वैज्ञानिक युग में अधिक उपयोगी नहीं रह गए हैं। एक युग था जब राजा लोकरुचि को जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था पर पूर्णत: आश्रित रहता था तथा अपने निदेशों, मंतव्यों और विचारों को वह शिलाखंडों, प्रस्तरमूर्तियों, ताम्रपत्रों आदि पर अंकित कराकर प्रसारित किया करता था। भोजपत्रों पर अंकित आदेश जनसाधारण के मध्य प्रसारित कराए जाते थे। राज्यादेशों की मुनादी कराई जाती थी। धर्मग्रंथों और उपदेशों के द्वारा जनरुचि का परिष्कार किया जाता था। आज भी विक्रमादित्य, अशोक, हर्षवर्धन आदि राजाओं के समय के जो शिलालेख मिलते हैं उनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में लोकसंपर्क का मार्ग कितना जटिल और दुरूह था। धीरे धीरे सभ्यता का विकास होने से साधनों का भी विकास होता गया और अब ऐसा समय आ गया है जब लोकसंपर्क के लिए समाचारपत्र, मुद्रित ग्रंथ, लघु पुस्तक-पुस्तिकाएँ, प्रसारण यंत्र (रेडियो, टेलीविजन), चलचित्र, ध्वनिविस्तारक यंत्र आदि अनेक साधन उपलब्ध हैं। इन साधनों का व्यापक उपयोग राज्यसत्ता, औद्योगिक और व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के द्वारा होता है।

वर्तमान युग में लोकसंपर्क के सर्वोत्तम माध्यम का कार्य समाचारपत्र करते हैं। इसके बाद रेडियों, टेलीविजन और चलचित्रों का स्थान है। नाट्य, संगीत, भजन, कीर्तन, धर्मोपदेश आदि के द्वारा भी लोकसंपर्क का कार्य होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जुलूस, सभा, संगठन, प्रदर्शन आदि की जो सुविधाएँ हैं उनका उपयोग भी राजनीतिक दलों की ओर से लोकसंपर्क के लिए किया जाता है। डाक, तार, टेलीफोन, रेल, वायुयान, मोटरकार, जलपोत और यातायात तथा परिवहन के अन्यान्य साधन भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संपर्क के लिए व्यवहृत किए जाते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि भी लोकसत्ता और लोकमत के मध्य लाकसंपर्क की महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं। लोकसंपर्क की महत्ता बताते हुए सन् १७८७ ईसवी में अमरीका के राष्ट्रपति टामस जेफर्सन ने लिखा था - ''हमारी सत्ताओं का आधार लोकमत है। अत: हमारा प्रथम उद्देश्य होना चाहिए लोकमत को ठीक रखना। अगर मुझसे पूछा जाए कि मैं समाचारपत्रों से विहीन सरकार चाहता हूँ अथवा सरकार से रहित समाचारपत्रों को पढ़ना चाहता हूँ तो मैं नि:संकोच उत्तर दूँगा कि शासनसत्ता से रहित समाचारपत्रों का प्रकाशन ही मुझे स्वीकार है। पर मैं चाहूँगा कि ये समाचारपत्र हर व्यक्ति तक पहुँचें और वे उन्हें पढ़ने में सक्षम हों। जहाँ समाचारपत्र स्वतंत्र हैं और हर व्यक्ति पढ़ने को योग्यता रखता है वहाँ सब कुछ सुरक्षित है।'' मेकाले ने सन् १८२८ में लिखा ''संसद् की जिस दीर्घां में समाचारपत्रों के प्रतिनिधि बैठते हैं वही सत्ता का चतुर्थ वर्ग है''। इसके बाद एडमंड बर्क ने लिखा - ''संसद् में सत्ता के तीन वर्ग हैं किंतु पत्रप्रतिनिधियों का कक्ष चतुर्थ वर्ग है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।'' इसी प्रकार सन् १८४० में कार्लाइल ने योग्य संपादकों की परिभाषा बताते हुए लिखा - ''मुद्रण का कार्य अनिवार्यत: लेखन के बाद होता है। अत: मैं कहता हूँ कि लेखन और मुद्रण लोकतंत्र के स्तंभ हैं। लिखो और लोकतंत्र अनिवार्य है।''

लोकसंपर्क की दृष्टि से समाचारपत्रों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए भारत के प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था - ''मेरे ख्याल से दीर्घ काल तक प्रेस लोकसंपर्क का माध्यम बना रहेगा। यद्यपि भारत में आज भी मौखिक वार्तावहन का विशेष महत्व है, तथापि गाँवों में भी अब धीरे धीरे परिवर्तन हो रहा है तथा समाचारपत्र वहाँ पहुँचने लगे हैं।'' अब यह स्पष्ट है कि लोकसंपर्क की दृष्टि से वर्तमान युग में समाचारपत्रों, संवाद समितियों, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म तथा इसी प्रकार से अन्य साधनों का विशेष महत्व है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं है बल्कि, विदेशों में है। लोकसंपर्क की दृष्टि से वहाँ इन साधनों का खूब उपयोग किया जाता है। इंगलैंड, अमरीका, फ्रांस, सोवियत रूस, जापान, जर्मनी तथा अन्यान्य कई देशों में जनसाधारण तक पहुंचने के लिए सर्वोत्तम माध्यम का कार्य समाचारपत्र करते हैं। इन देशों में समाचारपत्रों की बिक्रीसंख्या लाखों में है।

जनसाधारण तक पहुँचने के लिए इसी प्रकार रेडियो, टेलीविजन और चलचित्रों का उपयोग भी अधिक किया जाता है। भारतवर्ष में लोकसंपर्क की दृष्टि से समाचारपत्रों का प्रथम प्रकाशन सन् १७८० से आरंभ हुआ। कहा जाता है, २९ जनवरी, १७८० को भारत का पहला पत्र ''बंगाल गजट'' प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सन् १७८४ में कलकत्ता गजट का प्रकाशन हुआ। सन् १७८५ में मद्रास से कूरियर निकला, फिर बंबई हेरल्ड, बंबई कूरियर और बंबई गजट जैसे पत्रों का अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ। इससे बहुत पहले इंग्लैंड, जर्मनी, इटली और फ्राँस से समाचारपत्र प्रकाशित हो रहे थे। इंग्लैंड का प्रथम पत्र आक्सफोर्ड गजट सन् १६६५ में प्रकाशित हुआ था। लंडन का टाइम्स नामक पत्र सन् १७८८ में निकला था। मुद्रण यंत्र के आविष्कार से पहले चीन से किंगयाड और कियल 'तथा रोम से' 'रोमन एक्टा डायरना' नामक पत्र निकले थे।

भारत में पत्रों के प्रकाशन का क्रम सन् १८१६ में प्रारंभ हुआ। बंगाल गजट के बाद जान बुलइन, तथा ''दि ईस्ट'' का प्रकाशन हुआ। इंगलिशमैन १८३६ में प्रकाशित हुआ। १८३८ में बंबई से बंबई टाइम्स और बाद में 'टाइम्स आफ इंडिया' का प्रकाशन हुआ। १८३५ से १८५७ के मध्य दिल्ली, आगरा, मेरठ, ग्वालियर और लाहौर से कई पत्र प्रकाशित हुए इस समय तक १९ ऐंग्लो इंडियन और २५ भारतीय पत्र प्रकाशित होने लगे थे किंतु जनता के मध्य उनका प्रचार बहुत ही कम था। सन् १८५७ के विद्रोह के बाद 'टाइम्स आफ इंडिया', 'पायोनियर', 'मद्रास मेल', 'अमृतबाजार पत्रिका', 'स्टेट्समैन', 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' और 'हिंदू' जैसे प्रभावशाली समाचारपत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। बिहार से बिहार हेरल्ड, बिहार टाइम्स और बिहार एक्सप्रेस नामक पत्र प्रकाशित हुए। भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होनेवाला प्रथम पत्र समाचारदर्पण सन् १८१८ में श्रीरामपुर से बँगला में प्रकाशित हुआ। सन् १८२२ में बंबई समाचार, गुजराती भाषा में प्रकाशित हुआ। उर्दू में 'कोहेनूर', 'अवध अखबार' और 'अखबारे आम' नामक कई पत्र निकले।

हिंदी का प्रथम समाचारपत्र 'उदंत मार्तंड' था, जिसके संपादक श्री युगलकिशोर शुक्ल थे। दूसरा पत्र 'बनारस अखबार' राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने सन् १८४५ में प्रकाशित कराया था। इसके संपादक एक मराठी सज्जन श्री गोविंद रघुनाथ भत्ते थे। सन् १८६८ में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 'कवि वचन सुधा' नामक मासिक पत्रिका निकाली। पीछे इसे पाक्षिक और साप्ताहिक संस्करण भी निकले। १८७१ में 'अल्मोड़ा समाचार' नामक साप्ताहिक प्रकाशित हुआ। सन् १८७२ में पटना से 'बिहार बंधु' नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाश्न में पंडित केशोराम भट्ट का प्रमुख हाथ था। सन् १८७४ में दिल्ली से सदादर्श, और सन् १८७९ में अलीगढ़ से 'भारत बंधु' नामक पत्र निकले। ज्यों ज्यों समाचारपत्रों की संख्या बढ़ती गई त्यों त्यों उनके नियंत्रण और नियमन के लिए कानून भी बनाते गए। राष्ट्रीय जागरण के फलस्वरूप देश में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासि आदि पत्रों का प्रकाशन अधिक होने लगा। समाचारपत्रों के पठनपाठन के प्रति जनता में अधिक अभिरुचि जाग्रत हुई। १५ अगस्त, १९४७ का जब देश स्वतंत्र हुआ तो प्राय: सभी बड़े नगरों से समाचारपत्रों काप्रकाशन होता था। स्वतंत्र भारत के लिए जब सविधान बना तो पहली बार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को मान्यता दी गई। समाचारपत्रों का स्तर उन्नत बनाने के लिए एक आयोग का गठन किया गया। सन् १९६० में १७ शृंखलाबद्ध, ११५ समूहबद्ध और २३ बहुविध समाचारपत्र प्रकाशित होते थे। ४४.६ प्रतिशत समाचारपत्र वैयक्तिक स्वामित्व के अंतर्गत थे। राजनीतिक दलों द्वारा संचालित समाचारपत्रों में २४ पत्र साम्यवादी दल के थे। सन् १९६० में कुल ८०२६ पत्रपत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें अंग्रेजी की पत्रपत्रिकाओं की संख्या १६४७ और हिंदी की १५३२ थी। मलयालम में १९९, पंजाबी में १३५, उर्दूं में ६८०, बंगला में ५२६, गुजराती में ५१९, मराठी में ४०४, तमिल में ३७७, तेलगु में २५६, कन्नड़ में २१९, उड़िया में ७६, असमिया में १६, संस्कृत में १२ और अन्य भाषाओं में १२५ पत्रपत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं। ८२५ पत्रपत्रिकाएँ द्विभाषी और ४८७ पत्रपत्रिकाएँ बहुभाषाओं की थीं। सम्पूर्ण देश में समाचारपत्रों की बिक्रीसंख्या कुल मिलाकर १ करोड़ ७२ लाख २ हजार है (१९६०)।

भाषा के आधार पर इसका विवरण इस प्रकार है

समाचारपत्रों की प्रचार संख्या (१९६०)

पत्र संख्या

अंग्रेजी ४१४७०००

हिंदी ३५८३०००

तमिल २४८६०००

गुजराती १२०२०००

मलयालम ११३००००

मराठी १०७१०००

उर्दू १०५५०००

बंगला ९३९०००

तेलुगू ६३१०००

कन्नड़ ४४९०००

पंजाबी २०३०००

उड़िया १३४०००

असमिया ५२०००

संस्कृत ७०००

अन्य ११३०००

१८२१९०००

ऊपर जो आँकड़े प्रस्तुत किए गए हैं उनसे पता चलता है कि पत्रपत्रिकाएँ लोकसंपर्क के लिए समुचित माध्यम का कर्य करती हैं। इनके अतिरिक्त पुस्तकों का प्रकाशन भी लोकसंपर्क का उपयुक्त माध्यम है। भारतवर्ष में पुस्तकप्रकाशन का अधिकांश कार्य निजी प्रतिष्ठानों के द्वारा होता रहा है किंतु स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद से भारत सरकार और राज्य सरकारों के प्रकाशन विभागों के अंतर्गत बहुसंख्यक पुस्तकपुस्तिकाएँ पत्रपत्रिकाएँ प्रकाशित की जा रही हें। उने माध्यम से जनसाधरण को विभिन्न विषयों की जानकारी दी जाती है। केवल मार्च, १९६० में इस विभाग के द्वारा प्रकाशित पुस्तक पुस्तिकाओं और पत्रपित्रिकाओं की ४ लाख ७३ हजार प्रतियाँ बेची गई तथा ५ लाख ३३ हजार प्रतियाँ नि:शुल्क वितरित की गई। लगभग १२००० शिक्षण संस्थाओं और अनुसंधानकेंद्रों में २८०० एजेंटों के माध्यम से ये प्रतियाँ पहुँचती हैं। भारत की प्राय: सभी भाषाओं में दर्जनों पत्रपत्रिकाएँ और पुस्तकपुस्तिकाएँ प्रकाशित की जाती हैं जो देश की विभिन्न प्रवृत्तियों और गतिविधियों से जनता को अवगत रखती हैं। बालकों के लिए भी उपयोगी साहित्य का प्रकाशन किया जाता है। नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी, ललितकला अकादमी, आदि संगठनों द्वारा प्रकाशित पुस्तकें भी लोकसंपर्क के माध्यम का कार्य करती हैं।

रेडियो, टेलीविजन - लोकसंपर्क की दृष्टि से समाचारपत्रों के बाद दूसरा स्थान रेडियो और टेलीविजन का आता है। टेलीविजन अभी हमार दश में बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ है, किंतु सीमित रूप में इसका प्रयोग किया जा रहा है। जहाँ तक रेडियो का प्रश्न है, लोकसंपर्क की दृष्टि से उसका व्यापक प्रभाव है। ३० सितंबर १९६० तक सारे देश में कुल १९ लाख ६१ हजार ९५६ रेडियो लाइसेंस जारी किए गए थे किंतु दिसंबर, १९६७ तक देश में इनकी संख्या ७५ लाख, ७९ हजार, ४६ हो गई। १९६५ और १९६६ में लगभग १०,००,००० रेडियो लाइसेंस बढ़े थे। रेडिये के अधिकाधिक प्रसार के लिए सस्ते मूल्य के रेडियों सेट जारी किए गए हैं। आकाशवाणी केंद्रों से २० भाषाओं में प्रतिदिन कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। औद्योगिक केंद्रों, विद्यालयों, ग्रामीण अंचलों, महिलाओं, बच्चें और किसानों के लिए भिन्न-भिन्न कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। परिवारनियोजन पर भी आकाशवाणी केंद्रों का संचालन पूर्णत: केंद्र सरकार के नियंत्रण में है और उनके द्वारा लोकरुचि के अनेकानेक कार्यक्रम प्रसारित हाते हैं। विदेशों के लिए जो कार्यक्रम प्रसारित होते है वे भी विशेष महत्व रखते हैं। मार्च, १९६८ तक सारे देश में आल इंडिया रेडियो के ३६ मुख्य स्टेशन तथा २२ सहायक स्टेशन स्थापित किए जा चुके हैं। इनके अतिरिक्त आल इंडिया रेडियो के चार स्टेशनों से प्रतिबंधित समय के लिए कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। विविधभारती कार्यक्रम अब आल इंडिया के ३२ स्टेशनों से सुना जा सकता है। १२६ मीडियम और शार्ट वेव ट्रांसमिटर तथा एक टेलीविजन सेंटर की स्थापना की जा चुकी है। नाटक, संगीत, कविता, वार्ता, लोकगीत, हास्य निबंध, कथा, रूपक, विचारविमर्श (विचारगोष्ठी) आदि से संबंधित जो कार्यक्रम प्रसारित होते हैं उनसे लोकरुचि के निर्माण में विशेष सहायता मिलती है। संसद् की कार्यवाही, खेलकूद का विवरण और राज्यविधान-मंडलों की कार्यवाहियाँ भी रेड़ियों केंद्रों से प्रसारित होती रहती हैं। सामुदायिक केंद्रो में लोग बहुत बड़ी संख्या में रेडियो कार्यक्रम सुनते हैं। १५ सितंबर, १९५९ को टेलीविजन का कार्यक्रम प्रयोगात्मक रूप में प्रस्तुत हुआ और इस समय सप्ताह में प्रत्येक दिन, रविवार को छोड़कर दिल्ली के आसपास ३० किलोमीटर के लिए यह कार्यक्रम डेढ़ घंटे प्रकारित होता है। रविवार को यह कार्यक्रम २ घंटे प्रसारित होता है। किसानों, स्कूलों व टेलीक्लबों के लिए भी विशेष कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। इस समय करीब ६००० व्यक्तिगत टेलीविजन सेट हैं। (अद्यावधिक आँकड़े भारत सरकार के सूचना विभाग से प्राप्त)।

इस प्रकार लोकसंपर्क की दृष्टि से रेडियो और टेलीविजन का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है कि समाचारपत्रों के अतिरिक्त जनसाधारण तक पहुँचने का उपयुक्त माध्यम रेडियो ही है। साहित्य, काव्य, नाटक, संगीत, प्रहसन, समाचार और प्रशासकीय विचारों के प्रचार और प्रसार में रेडियो का प्रमुख हाथ है। रेडियो जनसाधारण तक पहुँचने का उत्तम माध्यम है।

चलचित्र - लोकसंपर्क की दृष्टि से समाचारपत्रों और रेडियों की तरह चलचित्रों का भी अपना महत्व है। यद्यपि चलचित्रों का निर्माण मुख्यत: लोकरंजन और लोकरुचि के परिष्कार के लिए होता है तथापि इनके द्वारा लोकसंपर्क और लोकशिक्षा का कार्य भी होता है। भारत में पहले जो चलचित्र बनते थे वे सवाक् चित्र नहीं होते थे। वस्तुत: वे मूक चित्र होते थे। चलचित्रों के निर्माण का प्रथम कार्य दादा साहब फडके ने प्रारंभ किया। अब तो विभिन्न दृश्यावलियों और कथानकों के साथ सवाक् चित्र भी भारी संख्या में बनने लगे हैं। व्यवसाय और मनोरंजन की दृष्टि से जो चित्र बनते हैं उनका लोकसंपर्क की दृष्टि से भले ही अधिक महत्व न हो किंतु डाकूमेंट्री और वृत्तचित्रों का तो लोकसंपर्क की दृष्टि से महत्व है ही। केंद्र और राज्य की सरकारों की ओर से जो डाकूमेंट्री चित्र बनाए जाते हैं उनका उद्देश्य लोकभावना को जाग्रत करना ही होता है। इन चित्रों में राष्ट्रनिर्माण की गतिविधियाँ तो होती ही हैं, ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्व के स्थानों और दृश्यावलियों का भी परिदर्शन होता है। इस प्रकार के चित्र विदेशी दूतावासों की ओर से भी प्रदर्शित किए जाते हैं। सन् १९६० में ऐसे ३२४ फीचर फिल्म बनाए गए थे जिन्हें फिल्म सेंसर बोर्ड ने जनता के मध्य प्रदर्शित किए जाने के लिए प्रमाणपत्र दिया था। ये ३२४ फीचर फिल्म हिंदी, तमिल, तेलुगू, बँगला, मराठी, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, पंजाबी, गुजराती, उर्दू, सिंधी और अंग्रेंजी भाषाओं में प्रस्तुत किए गए थे। बच्चों के लिए उपदेशात्मक चित्र बनाए जाते हैं। जनसाधारण की जानकारी और शिक्षण के लिए जो वृत्तचित्र और संवादचित्र बनाए जाते हैं उन्हें प्रस्तुत और वितरित करने के लिए भारत सरकार का फिल्म डिवीजन उत्तरदायी है। लोकसंपर्क की दृष्टि से चित्रों का कितना महत्व है, यह बताने के लिए केवल एक दृष्टांत का उल्लेख पर्याप्त है। भारत सरकार के प्रचार विभाग ने योजनाओं के प्रचार के लिए १ जनवरी, १९६० से ३१ मार्च, १९६१ के मध्य ४६५५ प्रदर्शनों का जो आयोजन किया उसे ५३ लाख व्यक्तियों ने देखा। प्रत्येक प्रदर्शन् में छह से दस फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इस अवधि में ६१२७ सभाओं का आयोजन किया गया तथा ३९३ नाटक दिखलाए गए। कविसंम्मेलन, मुशायरा, हरिकथा और बड़कथा आदि के आयोजन भी संपन्न हुए। केवल १९६० में योजना और विकास से संबंधित २० हजार फिल्म और २ लाख वृत्तचित्र प्राय: २ करोड़ व्यक्तियों के समक्ष प्रदर्शित हुए। लोकसंपर्क की दृष्टि से मेला, प्रदर्शनी, सभा, जुलूस आदि का आयोजन किया गया। स्पष्ट है कि फिल्मों के माध्यम से इस समय लोकसंपर्क का काम अधिक तेजी से हो रहा है। एक समय था जब मेले, प्रदर्शनी, तीर्थस्थान और सभाओं के जरिए ही लोकसंपर्क होता था किंतु विज्ञान के इस युग में रेडियों, समाचारपत्रों, फिल्मों, रेलगाड़ियों, वायुयानों, ट्रकों, चलती फिरती गाड़ियों, ध्वनिविस्तारक यंत्रों तथा अन्यान्य साधनों का उपयोग भी लोकसंपर्क के लिए किया जाने लगा है। किसानों, विद्यार्थियों, शिक्षकों, मजदूरों और अन्य भ्रमणकारियों के दल संगठित होते हैं और उन्हें देशविदेश का दर्शन कराया जाता है। इस प्रकार लोकसंपर्क के साधनों का बहुत तेजी से विस्तार हो रहा है। विज्ञापन और प्रचार के इस युग में लोकसंपर्क के जो नए नए साधनआविष्कृत हुए हैं उन्होंने मानव जीवन का विशेष रूप से प्रभावित किया है। (अभय सिन्हा)