लोकनाट्य भारत में नाट्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। भरत मुनि ने (ई.पू. तृतीय शताब्दी) अपने नाट्यशास्त्र में इस विषय का विशद वर्णन किया है। इसे अतिरिक्त धनंजयकृत 'दशरूपक' में तथा विश्वनाथ कविराजविरचित 'साहित्यदर्पण' में भी एतत्संबंधी बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध है, परंतु नाट्यशास्त्र ही नाट्यविद्या का सबसे मौलिक तथा स्रोतग्रंथ माना जाता है।
नाट्यशास्त्र में वर्णित एक कथा से पता चलता है, देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने समस्त मानवों के मनोरंजनार्थ नाट्य की रचना की। शूद्रों के लिए वेदों के पठन-पाठन का अधिकार निषिद्ध था अत: पंचम वेद (नाट्य) की रचना अत्यंत आवश्यक प्रतीत हुई। इस प्रकार सभी वर्णों के मनोरंजन के लिए ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर 'नाट्यवेद' की सृष्टि की :
'जग्राह पाठ्यं ऋग्वेदात्, सामभ्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयान्, रसमाथर्वणादपि।। नाट्यशास्त्र १/१७-१८'
वास्तव में नाटकों की 'अपील' सार्वजनीन होती है। इसीलिए कालिदास ने ठीक ही लिखा है कि नाटक विभिन्न प्रकार की रुचि रखनेवाले मनुष्यों के मनोरंजन का अद्वितीय साधन है :
''नाट्यं भिन्नरुचेर्जनस्य,
बहुधाप्येकं समाराधनम्''।
इस देश में मुसलमानी शासन की प्रतिष्ठा के पश्चात् राजनीतिक एकसूत्रता नष्ट हो गई। मुसलमानी शासकों की प्रवृत्ति नाट्यकला की ओर उदासीन थी। फलत: उनके शासन में नाटकरचना तथा उसके अभिनय का ्ह्रास होने लगा। राजाश्रय के अभाव में इसका पतन स्वाभाविक ही था। संस्कृत साहित्य की नाट्यपरंपरा, जो हजारों वर्षों से अबाध गति से चली आ रही थी, सदा के लिए नष्ट हो गई।
उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक गोस्वामी वल्लभाचार्य जी थे। इन्होंने कृष्णभक्ति का प्रचुर प्रचार किया। इनके अनुयायियों ने भागवत के दशम स्कंध की कथा को - जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण के जीवनचरित् का वर्णन किया गया है - अभिनय के माध्यम से जनता के सामने सजीव रूप प्रदान किया। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का अभिनय मंदिरों, मठों तथा अन्य स्थानों में होने लगा, जिसको देखने के लिए श्रद्धालु जनता की भीड़ हजारों की संख्या में जुटने लगी। भगवान् कृष्ण की इसी प्रारंभिक लीला ने आगे चलकर 'रास लीला' का रूप धारण किया जो आज भी मथुरा तथा वृंदावन में बड़े प्रेम से की जाती है (दे. रामलीला)।
भारत के उत्तरी भाग में रामभक्ति के प्रचार का श्रेय स्वामी रामानंद जी को प्राप्त है। परंतु रामभक्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा इनके शिष्य गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा ही हुई। साधारण जनता में कृष्णभक्ति के प्रचार का जो श्रेय महात्मा सूरदास को प्राप्त है, रामभक्ति के प्रचार का उससे कहीं अधिक श्रेय गोस्वामी जी को उपलब्ध है।
उत्तरी भारत में रामलीला का प्रचार गोस्वामी तुलसीदास जी की देन है। गोस्वामी जी ने सर्वप्रथम काशी में रामलीला करानी प्रांरभ की थी। इस प्रकार भक्ति आंदोलन के प्रभाव से उत्तरप्रदेश में दो लोकधर्मी नाट्यपरंपराओं का जन्म हुआ - (१) रासलीला और (२) रामलीला।
इसी समय बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव हुआ जिन्होंने इस प्रांत में कृष्णभक्ति का प्रचुर प्रचार किया। श्री चैतन्य भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति का गान करते समय आत्मविभोर हो जाते थे। वे भगवान् की आराधना करते समय कीर्तन भी किया करते थे। उन्होंने अनेक तीर्थस्थानों की यात्रा की थी जिसमें इनके अनुयायी भी सम्मिलित होते थे। धीरे धीरे इन यात्राओं तथा कीर्तनों ने लाकनाट्य का रूप धारण कर लिया, जिसमें श्रीकृष्ण की लीलाएँ अभिनय के माध्यम से दिखलाई जाने लगीं। आज बंगाल में यात्रा या जात्रा तथा कीर्तन का प्रचुर प्रचार है। इस प्रकार उत्तरी भारत में अनेक लोकनाट्यों का विकास हुआ जिनकी पृष्ठभूमि धार्मिक थी।
विशेषताएँ - लोकनाट्यों का लोकजीवन से अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। यही कारण है कि लोक से संबंधित उत्सवों, अवसरों तथा मांगलिक कार्यों के समय इनका अभिनय किया जाता है। विवाह के अवसर पर अनेक जातियों में यह प्रथा है कि स्त्रियाँ बारात विदा हो जाने पर किसी 'स्वाँग' या 'साँग' का अभिनय प्रस्तुत करती हैं जिसे 'भोजपुरी' प्रदेश में 'डोमकछ' कहते हैं।
लोकनाट्यों की भाषा बड़ी सरल तथा सीधी सादी होती है जिसे कोई भी अनपढ़ व्यक्ति बड़ी आसानी से समझ सकता है। जिस प्रदेश में लोकनाट्यों का अभिनय किया जाता है, नट लोग वहाँ की स्थानीय बोली का ही प्रयोग करते हैं। ये लोग अभिनय के समय गद्य का ही प्रयोग करते हैं। परंतु बीच-बीच में गीत भी गाते जाते हैं। लोकनाट्यों के संवाद बहुत छोटे तथा सरस होते हैं। लंबे कथोपकथनों का इनमें नितांत अभाव होता है। लंबे संवादों को सुनने के लिए ग्रामीण दर्शकों में धैर्य नहीं होता। अत: नाटकीय पात्र संक्षिप्त संवादों का ही प्रयोग करते हैं।
लोकनाट्यों का कथानक प्राय: ऐतिहासिक, पौराणिक, या सामाजिक होता है। धार्मिक कथावस्तु को लेकर भी अनेक नाटक खेले जाते हैं। बंगाल के लोकनाट्य 'जात्रा' और 'कीर्तन' का आधार धार्मिक आख्यान होता है। राजस्थान में अमरसिंह राठौर की ऐतिहासिक गाथा का अभिनय किया जाता है। केरल प्रदेश में प्रचलित 'यक्षगान' नामक लोकनाट्य का कथानक प्राय: पौराणिक होता है। उत्तरप्रदेश की रामलीला और रासलीला की पृष्ठभूमि धार्मिक है। नौटंकी और स्वाँग की कथावस्तु समाज से अधिक संबंध रखती है।
लोकनाट्यों में प्राय: पुरुष ही स्त्री पात्रों का कार्य किया करते हैं परंतु व्यवसायी नाटक मंडलियाँ साधारण जनता को आकृष्ट करने के लिए सुंदर लड़कियों का भी इस कार्य के लिए उपयोग करती हैं। लोकनाट्यों के पात्र अपनी वेशभूषा की अपेक्षा अपने अभिनय द्वारा ही लोगों को आकृष्ट करने की चेष्टा करते हैं। इन नाटकों के अभिनय में किसी विशेष प्रकार के प्रसाधन, अलंकार या बहुमूल्य वस्त्र आदि की आवश्यकता नहीं होती। कोयला, काजल, खड़िया आदि देशी प्रसाधनों से मुख को प्रसाधित कर तथा उपयुक्त वेशभूषा धारण कर पात्र रंगमंच पर आते हैं। कुछ पात्र प्रसाधन के लिए अब पाउडर और क्रीम का भी प्रयोग करने लगे हैं।
लोकनाट्य खुले हुए रंगमंच पर खेले जाते हैं। दर्शकगण मैदान में आकाश के नीचे बैठकर नाटक का अभिनय देखते हैं। किसी मंदिर के सामने का ऊँचा चबूतरा या ऊँचा टीला ही रंगमंच के लिए प्रयुक्त किया जाता है। कहीं कहीं काठ के ऊँचे तख्तों का बिछाकर मंच तैयार किया जाता है। इन रंगमंचों पर परदे नहीं होते। अत: किसी दृश्य की समाप्ति पर कोई परदा नहीं गिरता। नाटक के पात्रगण किस पेड़ या दीवाल की आड़ में बैठकर अपना प्रसाधन किया करते हैं, जो उनके लिए 'ग्रीनरूप' का काम करता है।
कुछ प्रसिद्ध लोकनाट्य - भारत के विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोकनाट्य प्रचलित हैं। उत्तर भारत में प्रचलित रामलीला और रासलीला की चर्चा पहले की जा चुकी है। मध्यप्रदेश, विशेषतया मालवा प्रांत, में 'माँच' नामक लोकनाट्य प्रसिद्ध है। 'माँच' शब्द मंच का अपभ्रंश रूप है। राजस्थान में 'माँच' 'ख्याल' के रूप से प्रचलित है। इसका प्रारंभ १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से माना जाता है। मालवा में माँचों की परंपरा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में नौटंकी का बड़ा प्रचार है। हाथरस की नौटंकी बड़ी प्रसिद्ध है। इसे 'स्वाँग' या 'भगत' भी कहते हैं। आगरा में 'भगत' नामक लोकनाट्य का प्रचुर प्रचार है। ब्रजमंडल में खुले हुए रंगमंच पर नौटंकी के ढंग पर 'भगत' का अभिनय किया जाता है। इस प्रदेश के पूर्वी जिलों में 'बिदेसिया' नाटक बड़ा ही लोकप्रिय है जिसे देखने के लिए हजारों की भीड़ एकत्र हुआ करती है।
बंगाल की 'यात्रा' धार्मिक लोकनाट्य है। 'गंभीरा' लोकनाट्य का दूसरा रूप है जो इस राज्य में प्रचलित है। यह नाटक शैव मतावलंबियों से सबंधित है। महाराष्ट्र में तमाशा, ललित, गोंधल, बहुरूपिया और दशावतार आदि लोकनाट्य मराठी रंगमंच के आधार हैं। तमाशा महाराष्ट्र का प्राचीन लोकनाट््य है। तमाशा करनेवाली मंडली 'फड़' कहलाती है। 'ललित' मध्ययुगीन धार्मिक नाट््य है। यह नवरात्र संबंधी विशिष्ट कीर्तन है, जिसमें भक्तों का 'स्वाँग' आदि दिखलाया जाता है। गोंधल धर्ममूलक लोकनाट्य है। महाराष्ट्र में इसका आनुष्ठानिक महत्व है। विवाह आदि उत्सवों में गोंधल के अभिनय की व्यवस्था की जाती है।
'यक्षगान' दक्षिण भारतीय लोकनाट्य का वह प्रकार है जो तमिल, तेलुगु तथा कन्नड़ भाषा भाषी क्षेत्र की ग्रामीण जनता में प्रचलित है। तेलुगु में इसे 'विथि' या 'विथि भागवतम्' कहते हैं। यक्षगान की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। यह नृत्य नाट्य (डांस ड्रामा) है जिसमें गीतबद्ध संवादों का प्रयोग होता है। इसमें वर्णन का प्राधान्य होता है। इसकी कथावस्तु रामायण, महाभारत और भागवत से ली जाती है।
'विथि नाटकम्' या 'विथि भागवतम्' तेलुगु का लोकनाट्य है। 'विथि नाटकम्' का शाब्दिक अर्थ है वह नाटक जो मार्ग में प्रदर्शित किया जा सके। इस नाटक में एक या दो ही पात्र रंगमंच पर आते हैं। स्त्रियाँ सामूहिक रूप से नृत्य करती हैं। नृत्य और अभिनय के द्वारा कृष्णलीला को 'विथि नाटकम्' का विषय बनाया गया है। इस प्रकार भारत के विभिन्न राज्यों में लोकनाट्य प्रचलित हैं जो बड़े ही लोकप्रिय हैं।
सं.ग्रं. - श्री जगदीशचंद्र माथुर : फोक थिएटर; श्री प्रजेश वनर्जी : फोक डांसेज आफ इंडिया; डा. श्याम परमार : लोकधर्मी नाट्यपंरपरा; बलवंत गार्गी : फोक थिएटर आफ इंडिया। (कृष्णदेव उपाध्याय.)