लैटी सयाडो भिक्षु लेटी सयाडो का जन्म सन् १८४६ में पिता ऊठुनथा और माता डौच्यौं के यहाँ वर्मा के ग्वेवो जिले में हुआ। इन्होंने किशार अवस्था में ही प्र्व्राज्या ग्रहण की और बीस वर्ष की युवावस्था में उपसंपदा ग्रहण कर ऊभान के नाम से भिक्षु हो गए। इनकी सारी शिक्षा दीक्षा बौद्ध विहारों में ही हुई। इन्होंने बौद्ध धर्म की उच्चतम शिक्षा पंचम बौद्ध संगायन के व्यवस्थापक बर्मी नरेश भिडोन् के धर्मगुरु सांजांऊँसयाडो से प्राप्त की थी। मिंगेन और उसके उत्तराधिकारी तीबों के राज्यकाल में ये मांडले के सांजाऊँबिहार में अध्ययन अध्यापन करते रहे। परंतु सन् १८८७ में अंग्रेजों द्वारा तीबों नरेश के बंदी बना लिए जाने पर यह मांडले छोड़कर उत्तर की ओर मनेवा नगर के समीप लैटी टोया विहार की स्थापना कर वहीं रहने लगे। तब से ये लैटी सयाडो के नाम से प्रख्यात हुए। यहीं इन्होंने बौद्ध धर्म दर्शन का अध्यापन आरंभ किया।
विद्यार्थी जीवन से ही ये अत्यंत प्रतिभासंपन्न और प्रखरबुद्धि थे। इन्हीं दिनों 'पारमीदीपनी' नामक इनकी प्रथम रचना प्रकाशित हुई। लैटी विहार में रहते हुए इन्होंने 'परमात्थ डीपनी' का प्रणयन किया जो कि इस विषय की अद्वितीय रचना है। अब वे वर्मा के नगर नगर, गाँव गाँव में चारिका करते हुए अभिधम्म की शिक्षाशालाएँ और विपश्यना के ध्यानकेंद्र स्थापित करने लगे। इन्हीं दिनों इन्होंने बर्मी और पाली में बहुत से पद, निबंध, टीकाएँ और पत्र लिखे जो बौद्ध साहित्य की अनमोल निधियाँ हैं। इनकी कुल रचनाएँ ७६ हैं। इनकी लेखनशैली अत्यंत रोचक और अभिव्यंजना अत्यंत स्पष्ट थी। अभिधम्म जैसे गंभीर विषय का विश्लेषण इन्होंने अत्यंत सुबोध और सरल ढंग से किया है।
इनके पांडित्य से प्रभावित होकर तत्कालीन भारत सरकार ने सन् १९११ में इन्हें 'अग्र महापंडित' की उपाधि से विभूषित किया। तत्पश्चात् रंगून विश्वविद्यालय ने इन्हें डी.लिट्. की मानद डिग्री और 'पिटकत्रय पारगू' की उपाधि प्रदान की। सन् १९२३ में ७७ वर्ष की परिपक्व अवस्था में इन्होंने स्वर्गारोहण किया। यह लेटी सयाडो का ही पुण्य प्रताप है कि अभिधम्म और विपश्यना क्षेत्र में आज बर्मा समग्र बौद्ध जगत् का नेतृत्व कर रहा है। (सत्यनारायण गोयनका बर्मा)