लूथर, मार्टिन (सन् १४८२-१५४६ ई.)। लूथर का जन्म जर्मनी की आइसलेवन नामक नगरी में हुआ था। उनके पिता हैंस लूथर खान के मजदूर थे, जिनके परिवार में कुल मिलाकर आठ बच्चे थे और मार्टिन उसकी दूसरी संतान थे। अट्ठारह वर्ष की अवस्था में मार्टिन लूथर एरफुर्ट के नए विश्वविद्यालय में भरती हुए और सन् १५०५ में उन्हें एम.ए. की उपाधि मिली। इसके बाद वह अपने पिता के इच्छानुसार विधि (कानून) का अध्ययन कने लगे किंतु एक भयंकर तूफान में अपने जीवन को जोखिम में समझकर उन्होंने संन्यास लेने की मन्नत की। इसके फल्स्वरूप वह सन् १५०५ में ही संत अगस्तिन के संन्यासियों के धर्मसंघ के सदस्य बने और १५०७ ई. में उन्हें पुरोहित का अभिषेक दिया गया। लूथर के अधिकारी ने उनको अपने संघ का अध्यक्ष बनान के उद्देश्य से उन्हें विट्टेनबर्ग विश्वविद्यालय भेजा जहाँ लूथर को सन् १५१२ ई. में धर्मविज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि मिली। उसी विश्वविद्यालय में वह बाइबिल के प्रोफेसर बने और साथ साथ अपने संघ के प्रांतीय अधिकारी के पद पर भी नियुक्त हुए।

लूथर शीघ्र ही अपने व्याख्यानों में निजी आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर बाइबिल की व्याख्या करने लगे। उस समय उनके अंत:करण में गहरी अशांति व्याप्त थी। ईश्वर द्वारा ठहराए हुए नियमों को सहज रूप से पूरा करने में अपने को असमर्थ पाकर वह सिखलाने लगे कि आदिपाप के कारण मनुष्य का स्वभाव पूर्ण रूप से विकृत हो गया था (दे. आदिपाप)। चर्च की परंपरागत शिक्षा यह थी कि बपतिस्मा (ईसाई दीक्षास्नान) द्वारा मनुष्य आदिपाप से मुक्त हो जाता है किंतु लूथर की धारणा थी कि बपतिस्मा संस्कार के बाद भी मनुष्य पापी ही रह जाता है और धार्मिक कार्यों द्वारा कोई भी पुण्य नहीं अर्जित कर सता अत: उसे ईसा पर भरोसा रखना चाहिए। ईसा के प्रति भरोसापूर्ण आत्मसमर्पण के फलस्वरूप पापी मनुष्य, पापी रहते हुए भी, ईश्वर का कृपापात्र बनता है। ये विचार चर्च की शिक्षा के अनुकूल नहीं थे किंतु सन् १५१७ ई तक लूथर ने खुलमखुल्ला चर्च के प्रति विद्रोह किया।

सन् १५१७ की घटनाओं को समझने के लिए 'दंडमोचन' विषयक धर्मसिद्धांत समझना आवश्यक है। चर्च की तत्संबंधी परंपरागत शिक्षा इस प्रकार है - सच्चे पापस्वीकार द्वारा पाप का अपराध क्षमा किया जाता है (दे. पापस्वीकार) किंतु पाप के सभी परिणाम नष्ट नहीं होते। उसके परिणाम दूर करने के लिए मनुष्य को तपस्या करना अथवा दंड भोगना पड़ता हे। पाप के उन परिणामों को दूर करने के लिए चर्च पापी की सहायता कर सकता है। वह उसके लिए प्रार्थना कर सकता है और ईसा और अपने पुण्य फलों के भंडार में से कुछ अंश पापी को प्रदान कर सकता है। चर्च की उस सहायता को इंडलजंस (Indulgence) अथवा दंडमोचन कहते हैं। पापी कोई 'दंडमोचन' तभी मिल सकता है जब वह पाप स्वीकार करने के बाद पाप के अपराध से मुक्त हो चुका हो तथा उस दंडमोचन के लिए चर्च द्वारा ठहराया हुआ पुण्य का कार्य (प्रार्थना, दान, तीर्थयात्रा आदि) पूरा करे। सन् १५१७ ई. में राम के संत पीटर महामंदिर के निर्माण की आर्थिक सहायता करनेवालों के पक्ष में एक विशेष दंडमोचन की घोषणा हुई। उस दंडमोचन की घोषणा करनेवाले कुछ उपदेशक पाप के लिए पश्चात्ताप करने की आवश्यकता पर कम बल देते थे और रुपया इकट्ठा करने का अधिक ध्यान रखते थे। उसी दंडमोचन को लेकर लूथर ने विद्रोह किया। उन्होंने दंडमोचन विषयक दुरुपयोग की निंदा ही नहीं की, दंडमोचन के सिद्धांत का भी विरोध करते हुए वह खुल्लमखुल्ला सिखलाने लगे कि चर्च अथवा पोप पाप के परिणामों से छुटकारा दे ही नहीं सकते, ईसा मात्र दे सकते हैं। ईसा मनुष्य के किसी पुण्य कार्य के कारण नहीं बलिक अपनी दया से ही पापों से घृणा करनेवाले लोगों को दंडमोचन प्रदान करते हैं।

रोम की ओर से लूथर से अनुरोध हुआ कि वह दंडमोचन के विषय में अपनी शिक्षा वापस ले किंतु लूथर ने ऐसा करने से इनकार किया और तीन नई रचनाओं में अपनी धारणाओं को स्पष्ट कर दिया। उन्होंने रोम के अधिकार का तथा पुरोहितों के अविवाहित रहने की प्रथा का विरोध किया, बाइबिल को छोड़कर ईसाई धर्म ने कोई और आधार नहीं माना तथा केवल तीन संस्कारों का अर्थात् बपतिस्मा, पापस्वीकार तथा यूखारिस्ट को स्वीकार किया। उत्तर में रोम ने सन् १५२० ई. में काथलिक चर्च से लूथर के बहिष्कार की घोषणा की। उस समय से लूथर अपने नए संप्रदाय का नेतृत्व करने लगे। सन् १५२४ ई. में उन्होंने कैथरिन बोरा से विवाह किया। उनका आंदोलन जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से मुक्त नहीं था और उन्हें अधिकांश जर्मन शासकों का समर्थन प्राप्त हुआ। संभवत: इस कारण से उन्होंने अपने संप्रदाय का संगठन जरूरत से अधिक शासकों पर छोड़ दिया। जब काथलिक सम्राट् चार्ल्स पंचम ने लूथरन शासकों से निवेदन किया कि वे अपने-अपने क्षेत्रों के काथलिक ईसाइयों को सार्वजनिक पूजा करने की अनुमति दें तब लूथरन शासकों न उस प्रस्ताव के विरोध में सम्राट् के पास एक तीव्र प्रतिवाद (प्रोटेस्ट) भेज दिया और सम्राट् को झुकना पड़ा। इस प्रतिवाद के कारण उस नए धर्म का नाम प्रोटेस्टैट रखा गया था।

पाश्चात्य ईसाई धर्म के इतिहास में लूथर का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। रोमन काथलिक चर्च के प्रति उनके विद्रोह के फलस्वरूप यद्यपि पाश्चात्य ईसाई संप्रदाय की एकता शताब्दियों के लिए छिन्न भिन्न हो गई थी और आज तक ऐसी ही है किंतु इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि लूथर असाधारण प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे जिन्होंने सच्चे धार्मिक भावों से प्रेरित होकर विद्रोह की आवाज उठाई थी। भाषा के क्षेत्र में भी लूथर का महत्व अद्वितीय है। उन्होंने जर्मन भाषा में बहुत से भावपूर्ण भजनों की रचना की तथा बाइबिल का जर्मन अनुवाद भी प्रस्तुत किया जिससे आधुनिक जर्मन भाषा पर लूथर की अमिट छाप है।

काथलिक चर्च से अलग हो जाने के बाद लूथर ने अपना अधिकांश जीवन विट्टेनवर्ग में बिता दिया जहाँ वह विश्वविद्यालय में अपने व्याख्यान देते रहे और धर्मविज्ञान तथा बाइबिल के विषय में अपनी बहुसंख्यक रचनाओं की सृष्टि करते रहे। सन् १५४६ ई. में वह किसी विवाद का समाधान करने के उद्देश्य से मैंसफेल्ड गए थे और वहाँ से लौटते हुए वह अपने जन्मस्थान आइसलेबन में ही चल बसे। उनके देहांत के समय वेस्टफेलिया, राइनलैड और बावेरिया को छोड़कर समस्त जर्मनी लूथरन शासकों के हाथ में थी। इसके अतिरिक्त लूथरवाद जर्मनी के निकटवर्ती देशों में भी फैल गया तथा स्कैनडिनेविया के समस्त ईसाई लूथरन बन गए थे।

आजकल ऐंग्लिकन समुदाय को मिलाकर सभी प्रोटेस्टैट धर्मावलंबियों के उनतीस प्रतिशत लूथरन है। लूथरवाद का प्रधान केंद्र जर्मनी ही है जहाँ बावन प्रतिशत लोग लूथरन हैं। स्कैनडिनेवियन देशों में नब्बे से अधिक प्रतिशत लोग उसी धर्म के अनुयायी हैं जर्मनी के अन्य निकटवर्ती देशों में लगभग एक करोड़ लूथरन हैं, उत्तर अमरीका में उनकी संख्या छियासी लाख है। इसके अतिरिक्त लूथरनों ने ब्रेजिल, छोटानागपुर आदि कई मिशन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक अपने मत का प्रचार किया है।

सन् १९४७ ई. में प्रमुख लूथरन समुदायों ने मिलकर एक लूथरन विश्वसंघ (लूथरन वर्ल्ड फेडरेशन) की स्थापना की, उसका मुख्य कार्यालय जनीवा में है और 'बलंद्र कौंसिल ऑव चर्च्स' से उसका निकट संबंध है। लूथरन विश्वसंघ का अधिवेशन पाँच वर्ष के बाद होता है। इसके द्वितीय अधिवेशन के अवसर पर तीन नए संगठन स्थापित किए गए थे, अर्थात् (१) लूथरन विश्वसेवा परिषद्, इसका उद्देश्य है विस्थापितों का पुनर्वास, आवश्यकतानुसार भाइयों को आर्थिक सहायता तथा गिरजाघरों का निर्माण, (२) मिशन परिषद, विभिन्न लूथरन समुदायों के धर्मप्रचार के कार्यों का विनियोजन इसका उद्देश्य है, (३) धर्मविज्ञान परिषद् जिसके द्वारा लूथरन चर्च्स के धर्मविज्ञान विषयक अनुसंधान का समन्वय किया जाएगा।

सं.ग्रं. - जे.एम.रोड : मार्टिन लूथर, लंदन १९६४, जे. लोत्से दी रेफोरमा शियोन इन दूत्सलैंड १९५२। (कामिल बुल्के)