लूथरकिंग, मार्टिन अमरीका के अहिंसावादी महान् नीग्रो नेता। इनका जन्म १५ जनवरी १९२९ को हुआ था। १५ वर्ष की उम्र में अटलांटा के मोरहाउस कालेज में इन्होंने हेनरी डेविड थॉरो की 'सविनय अवज्ञा' पढ़ी, जिससे वे बड़े प्रभावित हुए। यों वे बाल्यावस्था से ही अहिंसक प्रदर्शन की प्रवृत्तियों पर बल दिया करते थे। वे शारीरिक दृष्टि से दुर्बल नहीं थे किंतु वे हिंसा का जवाब हिंसा से देना पसंद नहीं करते थे। एक बार विद्यालय के एक दुष्ट विद्यार्थी ने उन्हें पीटा और धक्का देकर सीढ़ी से नीचे गिरा दिया, फिर भी उन्होंने इसे बदले में उसे पीटने से इनकार कर दिया।

अमरीका में हब्शियों के प्रति भेदभाव की घटनाएँ अक्सर होती रहती थीं। एक बार एक बस में गोरों के लिए सुरक्षित स्थान पर बैठ जाने के कारण एक नीग्रो को जब १० डालर का जुर्माना हुआ, तो अलावामा के नीग्रो जनों में बड़ा क्षोभ फैला। प्रतिक्रिया स्वरूप डाक्टर मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में बसों के बहिष्कार का आंदोलन शुरू हुआ जो एक वर्ष तक चलता रहा। बस सेवा बिल्कुल ठप हो गई। निदान अमरीकन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे पूर्ववर्ती आदेश की पुन: पुष्टि की जिसके द्वारा बस यात्रा में भेदभाव पर रोक लगा दी गई थी।

मार्टिन किंग शीघ्र ही हब्शी जनों के महान् उद्धारक नेता माने जाने लगे। उनके जीवन पर घातक हमले होने लगे। १९५६ में उनके घर पर बम फेंका गया। कुछ दिनों बाद न्यूयार्क में उन्हें छुरा भोंका गया तथा शिकागां में उनपर पत्थर फेंके गए किंतु वे अपने पथ से किंचित् भी विचलित नहीं हुए अंत में अप्रैल, १९६८ में उनकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार मानवोचित अधिकारों की रक्षा के अहिंसापूर्ण संघर्ष में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति चढ़ा दी। अपने लक्ष्य के प्रति ऐसी अपूर्व निष्ठा उन्हें अपने मातापिता के धार्मिक जीवन से, अपनी पवित्र आत्मा से और थॉरो के उपदेशों के अतिरिक्त महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन से मिली। इसमें उनकी पत्नी कारेटा का भी पूर्ण सहयोग उन्हें प्राप्त हुआ।

जातीय भेदभाव और संकुचित मनोवृत्तियों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र की एकता और समानता के लिए सतत प्रयत्न करनेवाले इस शांतिवादी महामानव को सन् १९६४ में शांति का नोबेल पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया। इसके पहले सन् १९५६ में उन्हें विश्व की इस महान् विभूतियों में स्थान मिल चुका था और १९६३ में 'टाइम' पत्रिका द्वारा आयोजित वर्ष के 'महानतम व्यक्ति' का पुरस्कार भी उन्हें प्रदान किया गया था। गांधी की तरह वे भी कहा करते थे कि ''व्यक्ति के दुष्कर्मों से घृणा करते हुए भी हमें उससे प्रेम करना है। हम अपनी कष्टसहन की क्षमता से कष्ट पहुँचाने की आपकी शक्ति का मुकाबला करेंगे।'' इस सिद्धांत के अनुपालन में एक उद्धत गोरे की गोली का शिकार होकर वे शहीद हुए, किंतु मृत होकर भी वे अमर हैं। (मुकुंदीलाल श्रीवास्तव)