लीला भारतीय धर्म दर्शन की स्थापना है कि परब्रह्म अपने परिकरों के साथ नित्य लीला में संलग्न रहते हैं। राम और कृष्ण के अनन्य उपासकों ने अपने आराध्य को परब्रह्म या उसका अवतार मानकर उनकी समस्त क्रिया क्रीड़ाओं का मुक्त कंठ से गान किया है। राम भक्ति साहित्य में परमेश्वर राम की लीलाओं के तीन प्रकार बताए गए हैं - (१) नित्य, (२) अवतरित (३) अनुकरणात्मक। वैष्णव भक्तों के अनुसार परब्रह्म साकेत धाम में नित्य क्रीड़ा में संलग्न है। यह लीला चिरंतन, शाश्वत, और अविराम परमानंददायिनी है। जीवों का उद्धार करने के सदुद्देश्य से, अवतरित हो भगवान् अपनी पार्थिव लीला से विश्वोपयोगी ऐश्वर्यगुणों को प्रस्तुत करते हैं। इस अवतरित लीला की अति पावन भूमि अयोध्या है : साकेत की नित्य लीला अंतरंग है, अयोध्या की अवतरित बहिरंग। लीला का मूलोद्देश्य मायाबद्ध जीवों को अंतरंग में प्रवेश करा उपास्यानंद में तल्लीन कराता है। रसिक आचार्यों के मतानुसार नित्य लीला ही निर्गुण लीला है, अप्रकट लीला है। और अवतरित लीला सगुण और प्रकट लीला है। वय: दृष्टि से राम की संपूर्ण लीलाओं का बाल्यावस्था, विवाह, वन, रण, राज्याभिषेक संबंधी लीलाओं का समूह कहा जाता है। स्थान की दृष्टि से थल लीला और जल लीला तत्वानुसार तात्विकी और अतात्विकी दो भेद हैं।

लीलानायक राम परब्रह्म के साकार रूप है, परंतु एकपत्नीव्रत न रह कर दक्षिण नायक बन जाते हैं। नायिका सीता आह्लादिनी शक्ति है जो इच्छा, ज्ञान, क्रिया इन तीनो शक्तियों का समन्वय है। राम और सीता का संबंध भक्तों के अनुसार पुरुष और प्रकृति का, परब्रह्म और आह्लादिनी शक्ति का है। परिकर जीवात्मा के रूप में स्वीकृत है। राम द्वारा किए गए सारे क्रियाव्यापारों का उनके भक्त जन अनुकरण करते हैं। यह अनुकरणात्मक लीला ही इन दिनों चलित रामलीला है। (श्रीकृष्ण की लीला के लिए देखिए 'रासलीला')।

रामलीला - आसेतु हिमाचल प्रख्यात रामलीला का आदि प्रवर्तक कौन है, यह विवादास्पद प्रश्न है। भावुक भक्तों की दृष्टि में यह अनादि है। एक किंवदंती का संकेत है कि त्रेता युग में श्री रामचंद्र के वनगमनोपरांत अयोध्यावासियों ने चौदह वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से इसकी परंपरा का प्रचलन हुआ। एक अन्य जनश्रुति से यह प्रमाणित होता है। कि इसके आदि प्रवर्तक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर महल्ले में स्थित फुटहे हनुमान के निकट के निवासी माने जाते हैं, एक बार पुरुषोत्तम रामचंद्र जी ने इन्हें स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया ताकि भक्त जनों को भगवान् के चाक्षुष दर्शन हो सकें। इससे सत्प्रेरणा पाकर इन्होंने रामलीला संपन्न कराई। तत्परिणामस्वरूप ठीक भरत मिलाप के मंगल अवसर पर आराध्य देव ने अपनी झलक देकर इनकी कामना पूर्ण की। कुछ लोगों के मतानुसार रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक गो. तुलसीदास हैं, इन्होंने हिंदी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर इसका श्रीगणेश किया। इनकी प्रेरणा से अयोध्या और काशी के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी।

रामलीला का मूलाधार गो. तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' है लेकिन एकमात्र वही नहीं। श्री राधेश्याम कथावाचक रचित रामायण को भी कहीं कहीं यह गौरव प्राप्त है। ऐसे काशी की सभी रामलीला में गोस्वामी जी विरचित 'मानस' ही प्रतिष्ठित है। इस लोक आयोजन के लिए वर्ष भर दो माह ही अधिक उपयुक्त माने गए हैं - आश्विन और कार्तिक। ऐसे इसका प्रदर्शन कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है। काशी के रामनगर की लीला भाद्रपद शुक्ल चौदह को प्रारंभ होकर शरत्पूर्णिमा को पूर्णता प्राप्त करती है और नक्खीघाट की शिवरात्रि से चैत्र अमावस्या अर्थात् ३३ दिनों तक चलती है। गो. तुलसीदास अयोध्या में प्रतिवर्ष रामनवमी के उपलक्ष्य में इसका आयोजन कराते थे। कहीं दिन के अपराह्न काल में और कहीं रात्रि के पूर्वार्ध में इसका प्रदर्शन होता था। लोकनायक राम की लीला भारत के अनेक क्षेत्रों में होती है। हमारे देश के बाहर के भूखंडों जैसे बाली, जावा, लंका आदि में प्राचीन काल से यह किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है। जिस तरह श्रीकृष्ण की रासलीला का प्रधान केंद्र उनकी लीलाभूमि वृंदावन है उसी तरह रामलीला का स्थल है काशी और अयोध्या। मिथिला, मथुरा, आगरा, अलीगढ़, एटा, इटावा, कानपुर, काशी आदि नगरों या क्षेत्रों में आश्विन माह में अवश्य ही आयोजित होती है लेकिन एक साथ जितनी लीलाएँ नटराज की क्रीड़ाभूमि वाराण्सी में होती है उतनी भारत में अन्यत्र कहीं नहीं। इस दृष्टि से काशी इस दिशा में न्रतृत्व करती प्रतीत होती है। राजपूताना और मालवा आदि भूभागों में यह चैत्रमास में ससमारोह संपन्न होती है। वीर, करुण, अद्भुत, शृंगार आदि रसों से आप्लावित रामलीला अपना रंगमंच संकीर्ण नहीं वरन् उन्मुक्त, विराट, प्रशस्त स्वीकार करती है। कहीं भी किसी मैदान में बाँसों, रस्सियों तारों आदि से घेरकर रंगमंच और प्रेक्षागृह का सहज ही निर्माण कर लिया जाता है।

रंगमंचीय दृष्टि से रामलीला तीन प्रकार की हैं - सचल लीला, अचल लीला तथा स्टेज़ लीला। काशी नगरी के चार स्थानों में अचल लीलाएँ होती हैं। गो. तुलसीदास द्वारा स्थापित रंगमंच की कई विशेषताओं में से एक यह भी है कि स्वाभाविकता, प्रभावोत्पादकता और मनोहरता की सृष्टि के लिए, अयोध्या, जनकपुर, चित्रकूट, लंका आदि अलग अलग स्थान बना दिए गए थे और एक स्थान पर उसी से संबंधित सब लीलाएँ दिखाई जाती थीं। यह ज्ञातव्य है कि रंगशाला खुली होती थी और पात्रों को संवाद जोड़ने घटाने में स्वतंत्रता थी। इस तरह हिंदी रंगमंच की प्रतिष्ठा का श्रेय गो. तुलसीदास को और इनके कार्यक्षेत्र काशी को प्राप्त है।

गोपीगंज आदि में भरतमिलाप के दिन विमान तथा लागें निकाली जाती हैं। इलाहाबाद के दशहरे के अवसर पर रामलीला के सिलसिले में जो विमान और चौकियाँ निकलती है, उनका दृश्य बड़ा भव्य होता है।

लीला के पात्र, किशोर, युवा, प्रौढ़ सभी होते हैं। सीता या सखियों का पार्ट आज तक किशोर द्वारा ही संपन्न होता है। रामलीला के सभी अभिनेता प्राय: ब्राह्मण होते हैं, किंतु अब कहीं कहीं अन्य वर्णों के भी लोग देखे जाते हैं। पात्रों का चुनाव करते समय रावण की कायिक विराटता, सीता की प्रकृतिगत कोमलता और वाणीगत मृदुता, शूर्पणखा की शारीरिक लंबाई आदि पर विशेष ध्यान रखा जाता है। लीलाभिनेता चौपाइयों, दोहों को कंठस्थ किए रहते हैं और यथावसर कथोपकथनों में उपयोग कर देते हैं।

रामलीला की सफलता उसका संचालन करनेवाले व्यास सूत्राघार पर निर्भर करती है, क्योंकि वह संवादों की गत्यात्मकता तथा अभिनेताओं को निर्देश देता है। साथ ही रंगमंचीय व्यवस्था पर भी पूरा ध्यान रखता है। रामलीला के प्रांरभ में एक निश्चित विधि स्वीकृत है। स्थान-काल-भेद के कारण विधियों में अंतर लक्षित होता है। कहीं भगवान के मुकुटों के पूजन से तो कहीं अन्य विधान से होता है। इसमें एक ओर पात्रों द्वारा रूप और अवस्थाओं का प्रस्तुतीकरण होता है, दूसरी ओर समवेत स्वर में मानस का परायण नारद-बानी-शैली में होता चलता है। लीला के अंत में आरती होती है।

काशी में शूर्पणखा की नाक काटे जाने के बाद खर-दूषण की सेना का जो जुलूस निकलता है उसमें जगमग करते हुए विमान तथा तरह तरह की लागें निकलती हैं जिनमें धार्मिक, सामाजिक दृश्यों, घटनाओं की मनोरम झाकियाँ रहती हैं। साथ में काली का वेश धारण किए हुए पुरुषों का तलवार संचालन, पैतरेवाजी, शस्त्रकौशल आदि देखने लायक होता है।

रामलीला में नृत्य, संगीत की प्रधानता नहीं होती इसलिए कि चरितनायक गंभीर, वीर, धीर, शालीन एवं मर्यादाप्रिय पुरुषोत्तम है। तत्परिणामस्वरूप वातावरण में विशेष प्रकार की गंभीरता विराजती रहती है। इस लीला की पहले मंडली नहीं होती थी अब कुछ पेशेवर लोग मंडलियाँ बनाकर लीलाभिनय से अर्थोपार्जन करते हैं। भारत के ग्वालियर, जयपुर, इलाहाबाद आदि नगरों में इसका मूक अभिनय (dumbshows) होता है।

दर्शकों को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। रामलीला देखने से भारतेंदु हरिश्चंद्र के हृदय से रामलीला गान की उत्कंठा जगी। परिणामत: हिंदी साहित्य को 'रामलीला' नामक चंपू की रचना मिली। (राजनारायण राय)