लीबिख, जस्टस फॉन, बैरॉन (Liebig, Justus Von, Baron; १८०३-१८७३ ई.) जर्मन रसायनज्ञ का जन्म जर्मनी के डार्मश्टाट नामक स्थान में हुआ था। इन्होंने १८१९ ई. में बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। १९२२ ई. में रसायन में पीएच.डी. की उपाधि ग्रहण की। इसके पश्चात् पैरिस जाकर इन्होंने गे लुसाक तथा थेनार्ड के निरीक्षण में अपना रासायनिक अनुसंधान पूर्ण किया। सन् १८२४ में जब ये जर्मनी लौटे तो गीसेन विश्विद्यालय में रसायन के प्रोफेसर नियुक्त हुए और वहीं पर इन्होंने कार्बनिक रसायन अनुसंधानशाला स्थापित की।

इन्होंने एक नवीन उपकरण निर्मित किया था, जिसके द्वारा कार्बनिक पदार्थों की संरचना ज्ञात की जा सकती थी। वलर (Wohler) के साथ (१८३२, १८३७) इन्होंने कडुए बादाम के तेल (बेंज़ेलडीहाइड) तथा एमिगडैलिन पर अनुसंधान किया। फिर इन्होंने सिरका उत्पादन में हाथ लगाया और यह दिखा दिया कि शराबों में प्राप्त ऐलकोहॉल से (ऐल्डिहाइड से होकर) ऐसीटिक अम्ल उत्पन्न होता है। १८३२ ई. में ही इन्होंने एक अनुसंधान पत्रिका प्रकाशित करनी प्रारंभ की, जो आगे चलकर बहुत विख्यात हुई। इसी में वे अपने शोध परिणामों को प्रकाशित करते रहे। ब्रिटिश ऐसोसिएशन फॉर द ऐडवांसमेंट ऑव सायंस (British Association for the Advancement of Science) ने १८४० में इन्हें कार्बनिक रसायन की उन्नति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया, जो एक पुस्तक, ऑर्गेनिक केमेस्ट्री ऐंड इट्स ऐप्लिकेशन टू ऐग्रिकल्चर ऐंड फिज़िऑलोजी (Oganic Chemistry and its Application to Agriculture and Physiology) की आधारशिला बनी। यह पुस्तक बहुत जनप्रिय हुई।

लीबिख का मत था कि फसलों को तीन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है : १. कार्बन तथा नाट्रोजनयुक्त पदार्थ, जो पौधों को कार्बन एंव नाइट्रोजन तत्व प्रदान कर सकें, २. जल तथा ३. भूमि, जो पौधों के लिए आवश्यक अकार्बनिक तत्वों की पूर्ति कर सके। लीबिख का मत था कि पौधों द्वारा आवश्यक कार्बन तथा हाइड्रोजन की पूर्ति कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल से और नाइट्रोजन की पूर्ति वायुमंडल में वर्तमान अमोनिया से हाती है। परंतु लिबिख की सर्वाधिक ख्याति 'खादों के खनिज सिद्धांत' के कारण हुई। इस सिद्धांत के अनुसार पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज तत्वों की पूर्ति होनी आवश्यक है। यदि मिट्टी में इन तत्वों की कमी होती है, तो उन्हें खादों के रूप में बाहर से डालने की आवश्यकता पड़ती है। प्रत्येक दशा में ऐसे तत्वों को, जो पौधों की राख में वर्तमान होते हैं, अनुर्वर मिट्टी में खादों के रूप में डालकर ही उनकी पूर्ति की जा सकती है। पशुओं के मल तथा अस्थियों की उर्वराशक्ति उनमें निहित अकार्बनिक अवयवों के कारण ही होती है। उन्होंने अस्थियों को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए उनपर सल्फ्यूरिक अम्ल (अस्थि की आधी मात्रा में) डालने की विधि निर्धारित की। इस प्रकार से उन्होंने सर्वप्रथम फ़ॉस्फ़ेट उर्वरकों के ऐसे उद्योग को जन्म दिया जिससे अविलेय फ़ॉस्फ़ेट विलेय होकर पौधों के लिए उपलब्ध हो सके। पोटैश तथा अन्य तत्वों को, जो वर्षा के जल द्वारा च्यावित हो जाते थे, उर्वरक के रूप में डालने के पहले लीबिख ने सिलिकेटों के साथ इन्हें संगलन करने की विधि अपनाई। परंतु इस प्रकार फलदायक परिणाम न प्राप्त हुए और उनकी आलोचना हुई, क्योंकि ऐसा करने से विलेय तत्व अविलेय हो जाते हैं। उन्होंने खनिज सिद्धांत के द्वारा पूर्ववर्ती ह्यूम्स सिद्धांत को त्रुटिपूर्ण सिद्ध कर दिया।

लीबिख ने पशु तथा मानव शरीरक्रियाविज्ञान (Physiology) पर जो अनुसंधान किए थे, उनके आधार पर १८४२ ई. में एक दूसरी पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका नाम था ऐनिमल कैमिस्ट्री (Animal Chemistry)। उन्होंने बताया कि भोजन से ऊर्जा की प्राप्ति श्वसन क्रिया द्वारा ही संभव है।

सन् १८४७ में उनकी एक तीसरी पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें भोजन रसायन पर अनुसंधान वर्णित है। इनके अतिरिक्त १८४३ ई. में लंदन से उनके उन पत्रों का संग्रह प्रकाशित हुआ जो रसायन शास्त्र की उपयोगिता (वाणिज्य, शरीरक्रिया विज्ञान तथा कृषि में) पर थे। इन्हीं पुस्तकों के द्वारा लीबिख विश्व के कोने कोने में विख्यात हो सके।

लीविख सदैव रसायन के सर्वश्रेष्ठ अध्यापक के रूप में स्मरण किए जाएँगे।

१८५२ ई. में म्यूनिख विश्वविद्यालय में लीबिख का स्थानांतरण हो गया। वहाँ वे अपना अधिकांश समय पुस्तकों के परिवर्तन में लगाते रहे। (शिवगोपाल मिश्र)