लालबहादुर शास्त्री गांधी युग के सच्चे प्रतिनिधि और स्वतंत्र भारत के द्वितीय प्रधान मंत्री। अपने उन्नीस महीने के प्रधानमंत्रित्व काल में आपने राष्ट्र की जिस दृढ़ता एवं निर्भीकता से गौरववृद्धि की, वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। राष्ट्र की स्थिरता, शक्तिसंचार तथा एकता की भावना, आपके शासनकाल की उल्लेख्य देन है।

आपका जन्म २ अक्टूबर, सन् १९०४ ई. को सांस्कृतिक नगरी काशी में हुआ। आपके पिता का नाम श्री शारदा प्रसाद था और माता का श्रीमती रामदुलारी देवी। पिता बाल्यकाल में ही चल बसे थे। माता के स्नेह से पोषित होकर बालक लालबहादुर ने अपना जीवननिर्माण विषम परिस्थितियों में किया। आपके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यही कारण है कि अभाव की स्थिति में बालक श्री लालबहादुर को एकाध बार दशाश्वमेध घाट से तैरकर गंगा पार कर रामनगर आना पड़ता था। इसीलिए स्वावलंबन और आत्मविश्वास आपके जीवन के मूल मंत्र बन गए। आरंभ में आपने भारतेंदु द्वारा स्थापित हरिश्चंद्र विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। बाद में आपने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। गांधी विचारधारा से प्रभावित होकर सन् १९२१ में पढ़ाई छोड़कर आप असहयोग आंदोलन में कूद पड़े और ढाई वर्षों तक जेल में रहे।

सन् १९२६ में श्री लालबहादुर शास्त्री लोकसेवक संघ के सदस्य बने और इलाहाबाद को अपने कार्यक्षेत्र का केंद्र बनाया। सात वर्षों तक आप इलाहाबाद म्युनिसिपल बोर्ड के सदस्य रहे। प्राय: चार वर्षों तक आप इलाहाबाद इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के भी सदस्य रहे। सन् १९३० से ३६ तक आप इलाहाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सन् १९३५ से ३८ तक प्रधान मंत्री भी आप चुने गए। सन् १९३७ में आप उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। सन् १९४१ में आपको पुन: गिरफ्तार किया गया। आपको कुल मिलाकर आठ बार जेलयात्रा करनी पड़ी और प्राय: नौ वर्षों तक जेल में बंदी जीवन बिताना पड़ा। सन् १९४६ में आप पुन: उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री गोविंदवल्लभ पंत ने आपको संसदीय सचिव नियुक्त किया। सन् १९४७ में आप प्रदेश के गृह एवं यातायात मंत्री नियुक्त किए गए, जिस पद पर आप चार वर्षों तक रहे।

पद से अधिक महत्व राष्ट्रसेवा का है, यह बात श्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने जीवन में अनेक बार उच्च पदों से त्यागपत्र देकर जनता के समक्ष उपस्थित की। सन् १९५१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री का पदभार ग्रहण करने के लिए आपने मंत्रिपद से इस्तीफा दिया। इसके बाद १९५२ में जब आप केंद्रीय रेल तथा परिवहन मंत्री नियुक्त किए गए तब रेल दुर्घटना होने पर सार्वजनिक एवं प्रशासनिक जीवन में उच्च आदर्श उपस्थित करने के लिए आपने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दिया। सन् १९५७ में आप लोकसभा के सदस्य चुने गए और संचार तथा परिवहन मंत्री के पद पर मार्च, सन् १९५८ तक बने रहे। इसके पश्चात् आप केंद्रीय वाणिज्य एव उद्योग मंत्री नियुक्त किए गए (१९५८-६१)। स्वराष्ट्र मंत्री श्री गोविंदवल्लभ पंत के निधन के बाद अप्रैल, सन् १९६१ में आप केंद्रीय स्वराष्ट्र मंत्री के पद पर नियुक्त किए गए।

सन् १९६२ के महानिर्वाचन में इलाहाबाद क्षेत्र से आप लोकसभा के सदस्य पुन: चुने गए। कामराज योजना के अंतर्गत कांग्रेस का संघटनात्मक कार्य करने के लिए अगस्त, १९६३ में आपने केंद्रीय मंत्रिमंडल से पदत्याग किया। प्रधान मंत्री जी जवाहरलाल नेहरू की अस्वस्थता के कारण आपको केंद्रीय मंत्रिमंडल में पुन: नियुक्त किया गया और आप निर्विभागीय मंत्री बनाए गए। प्रधान मंत्री श्री नेहरू के आप अत्यंत विश्वासपात्र थे और उनके कार्यों में सहायता देना आपका मुख्य कर्तव्य था। जवाहरलाल नेहरू के निधन पर ९ जून, सन् १९६४ को सर्वसम्मति से लोकसभा के कांग्रेस दल के नेता चुने जाने के बाद आपने प्रधान मंत्री पद का भार ग्रहण किया।

श्री शास्त्री का प्रशासन काल देश की अग्निपरीक्षा का काल था। आंतरिक शांति तथा आर्थिक एवं खाद्य समस्याओं का समाधान जहाँ आवश्यक था, वहीं बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा का भी प्रश्न महत्वपूर्ण था। इन सभी राष्ट्रीय प्रश्नों पर शास्त्री जी ने जिस दृढ़ता, दूरदर्शिता, धैर्य एवं साहस का परिचय दिया, वह राष्ट्र को संकटकाल में सहज शक्ति और स्फूर्ति देता रहेगा। संसदीय लोकतंत्र में आपकी अटूट श्रद्धा थी। यही कारण है कि विरोधी दल के नेताओं से भी आप राष्ट्रीय प्रश्नों के समाधान में परामर्श किया करते थे। आप अत्यंत उदार और विनयी प्रकृति के थे किंतु जब दृढ़ता की आवश्यकता होती तो हिमालय की भाँति अटल और अजेय हो जाते थे।

नेपाल की सद्भाव यात्रा कर जहाँ आपने भारत नेपाल की परंपरागत मैत्री एवं ऐतिहासिक संबंधों में यथेष्ट सुधार किया वहीं कश्मीर जाकर हजरत बल कांड का बड़ी युक्ति और बुद्धि से समाधन किया। प्रधान मंत्री बनने के पूर्व ये दो कार्य आपकी राजनीतिज्ञता का सहज परिचय देते हैं।

१५ अगस्त, १९६४ को लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए आपने राष्ट्रीय गौरव का जो सहज स्वाभिमान प्रकट किया वह सदैव स्मरण रखने योग्य है। इस अवसर पर आपने कहा - 'हम रहें या न रहें, लेकिन यह झंडा रहना चाहिए और देश रहना चाहिए। मुझे विश्वास है कि यह झंडा रहेगा, हम और आप रहें या न रहें, लेकिन भारत का सिर ऊँचा होगा। भारत दुनिया के देशों में एक बड़ा देश होगा और शायद भारत दुनिया को कुछ दे भी सके।' राष्ट्र की महत्ता तथा उसके गौरव का जो विश्वास इन शब्दों में व्यक्त है, वही प्रधान मंत्री श्री शास्त्री की महत्ता का भी परिचायक है।

प्रधान मंत्री का पदभार ग्रहण करने के उपरांत शास्त्री जी ने संयुक्त अरब गणराज्य की राजधानी काहिरा जाकर तटस्थ राष्ट्रों के सम्मेलन में बड़ी तेजस्विता से भारत का पक्ष उपस्थित किया। इसी अवसर पर आपने मार्शल टीटो तथा राष्ट्रपति नासर से महत्वपूर्ण वार्तां की। दिसंबर में आपने लंदन में ब्रिटिश प्रधान मंत्री से विचारविनिमय किया। फरवरी, १९६५ में आपने बर्मा के प्रधान जनरल ने विन से वार्ता की। २३ अप्रैल को आप दुबारा नेपाल की सद्भाव यात्रा पर गए। १२ मई को शास्त्री जी एक सप्ताह की रूस की राजकीय यात्रा पर गए। १० जून को आपने कनाडा की भी सद्भाव यात्रा की और १७ जून को लंदन में राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग लिया। जुलाई में आपने यूगोस्लाविया की यात्रा की और मार्शल टीटो से वार्ता की।

जुलाई में ही शास्त्री जी ने पाकिस्तान से अयुद्ध समझौते का प्रस्ताव रखा। सितंबर में पाकिस्तान ने जम्मू क्षेत्र की अंतरर्राष्ट्रीय सीमारेखा का उल्लंघन कर पैदल, टैंक तथा वायुसेना को भारतीय सीमा में आगे बढ़ने का आदेश किया तो शास्त्री जी ने भी भारतीय विजयवाहिनी को लाहौर क्षेत्र में प्रवेश कर प्रहार करने का संकेत किया। पाकिस्तान सेना के बढ़ाव को रोकने में यह काररवाई बहुत सहायक हुई और अंतत: उसे युद्धविराम के लिए विवश होना पड़ा। पाकिस्तान सेना के अमरीकी पेटन टैंकों और सैवर जेट विमानों को भारतीय जवानों ने अद्भुत वीरता और साहस से पस्त कर डाला। इस विजय का श्रेय प्रधानमंत्री शास्त्रीजी की निर्भीक तथा दूरदर्शितापूर्ण नीति को ही है।

इसी संकटकाल में आपने 'जय जवान और जय किसान' का नारा देकर राष्ट्र की सुरक्षा तथा आत्मनिर्भरता के प्रश्न की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया। २४ सितंबर को आपने रूस के आमंत्रण को स्वीकार किया कि अयूब से शिखर वार्ता हो। ३ जनवरी, १९६६ को आप ताशकंद गए। १० जनवरी को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर किए गए किंतु उसी रात हृदयरोग के आक्रमण के फलस्वरूप ताशकंद में ही आपका निधन हो गया। युद्धकाल में जिस शांति से आपने काम किया, शांतिस्थापन में भी उसी लगन एवं निष्ठा से निर्णय किया। आपको अपनी पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री से बड़ी प्रेरणा मिलती थी। स्वतंत्र भारत के महान् सपूत के रूप में आप सदैव स्मरणीय रहेंगे। (लक्ष्मीशंकर व्यास)