लॉरेंस उन्नीसवीं शताब्दी में तीन लॉरेंस भाइयों का भारत में आगमन १८२२, १८२३ और १८३० में हुआ। इनके नाम थे क्रमश: सर जॉर्ज, सर हेनरी और सर जॉन (लॉर्ड लारेंस)। ये तीनों आयलैंड के प्रोटेस्टेंट मतावलंबी व्यक्ति थे। इनके पिता भी ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी कर चुके थे।
जॉर्ज लॉरेंस (१८०४-१८८४ ई.) शाहशुजा के दरबार में अंग्रेज दूत मैकनाटन के साथ अफ़गानिस्तान गया था। सन् १८४१ में अफ़गानों ने मैकनॉटन को मार डाला। जार्ज लॉरेंस अपनी जान लेकर वहाँ से भागा पर बाद में बंदी कर लिया गया और पूर्वगामी अमीर दोस्त मोहम्मद के बेटे अकबर खाँ को सौंप दिया गया। लगभग आठ मास पश्चात् उसे १८४२ ई. में छोड़ा गया। सन् १८५७ के विद्रोह में जॉर्ज ने अपनी नीतिकुशलता दिखाई और विद्रोह के समाप्त होने तक राजपूताने को शांत रखा। १८६४ में यह सेवामुक्त हुआ।
हेनरी लॉरेंस (१८०६-१८५७) को १८४७ में लाहौर में अंग्रेजों का 'रेज़ीडेंट' नियुक्त किया गया। लाहौर का शासन व्यावहारिक रूप में अंग्रेज रेज़ीडेंट के आदेश पर होने लगा। लॉर्ड हार्डिज के साथ ही सर हेनरी लॉरेंस सन् १८४८ में इंग्लैंड चला गया। हेनरी ने द्वितीय सिक्ख युद्ध के बाद पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की राय नहीं दी। फिर भी पंजाब अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। तत्पश्चात् पंजाब का शासन करने के लिए एक बोर्ड बनाया गया सर हेनरी इस बोर्ड का अध्यक्ष था। उसने पंजाब के शासन विभागों में कई सुधार किए। सन् १८५३ में यह बोर्ड समाप्त कर दिया गया और हेनरी राजपूताने में गवर्नर जनरल का एजेंट नियुक्त कर दिया गया। विद्रोह के कुछ पूर्व अवध में बड़ी अशांति फैली थी। १८५७ के मार्च मास में सर हेनरी लॉरेंस अवध का चीफ़ कमिश्नर नियुक्त हुआ। उसने स्थिति को भरसक सँभाला। मई, १८५७ में अवध में विद्रोह प्रारंभ हो गया। जुलाई में कुछ ईसाइयों तथा स्वामिभक्त सैनिकों के साथ सर हेनरी रेज़ीडेंसी में पहुँच गया जहाँ कुछ ही समय बाद एक गोला फट जाने से उसकी मृत्य हो गई।
जॉन लॉरेंस (१८११-१८७९) बड़ा प्रतिभाशाली था। वह दिल्ली का कलेक्टर रहा और इटावा में भी कई वर्ष कार्य किया। अपने गुणों के कारण पैंतीस वर्ष की अवस्था में वह जलंधर तथा दोआब का कमिश्नर बना दिया गया। द्वितीय सिक्ख युद्ध के समय उसने अपने वैयक्तिक गुणों से काफी लोगों में स्वामिभक्ति उत्पन्न कर दी थी। पंजाब के ब्रिटिश राज्य में मिल जाने पर वहाँ का शासन चलाने के लिए एक बोर्ड बना था। सर जॉन इस बोर्ड का सदस्य था। सन् १८५३ में जब यह बोर्ड समाप्त हो गया तब सर जॉन पंजाब का चीफ कमिश्नर बना दिया गया। सन् १८५९ में यह इंग्लैंड वापस चला गया। इसे 'बैरोनेट' तथा 'जी.सी.बी.' की उपाधियाँ दी गईं। इसकी एक हजार पौंड की नियमित पेंशन में दो हजार पौंड वार्षिक की वृद्धि की गई। इंग्लैंड में सन् १८५९ से १८६४ तक सर जॉन भारत मंत्री की काउंसिल का सदस्य रह। सन् १८६४ में वह पाँच वर्षों के लिए भारत का वाइसरॉय बनकर आया। अपने कार्यकाल में उसने भारतवासियों के हितों का यथासंभव ध्यान रखा तथा प्रशासन के विभिन्न विभागों में सुधार किए। सन् १८६९ में यह इंग्लैड लौट गया। वहाँ इसे 'लॉर्ड' की उपाधि दी गई। इसने लगभग चालीस वर्षों तक भारत की नौकरी की। (मिथिलेश चंद्र पांड्या)