लामार्क एवं लामार्कवाद लामार्क, जीन बैप्टिस्ट पियेर आंत्वान द मॉनेट शीवेलियर द (Lamark, Jean Baptiste Pierre Antoine De Monet Chevalier De; १७४४ से १८२९ ई.) फ्रांसीसी जैवविज्ञानी का जन्म १ अगस्त, १७७४ को बैजेंटाइन के पिकार्डी में हुआ था। १७ वर्ष की आयु में ये सेना में भर्ती हो गए और सन् १७६३ में सैनिक जीवन त्याग कर पैरिस चले गए, जहाँ इन्होंने वनस्पतिशास्त्र का अध्ययन किया। १७७८ ई इनकी फ्लोर फ्रैंशाइज (Flore Francasie) नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसके दूसरे वर्ष एकेडेमी सायंस के वनस्पति विभाग में इनकी नियुक्ति हो गई, पर ये इसे छोड़कर समकालीन, फ्रांसीसी, प्राकृतिक विज्ञानी, बुफॉन् के पुत्रों के साथ यात्रा पर प्रशिक्षक के रूप में चले गए। यात्रा से दो वर्ष बाद लौटने पर ये शाही बाग के वनस्पति संग्रहायल के रक्षक नियुक्त हुए। १७९३ ई. में ये अजायबघर में प्रोफेसर नियुक्त हुए और अकशेरुकी संग्रह का उत्तरदायित्व लिया। यहाँ इन्होंने १८१९ ई. तक, अपने अंधे होने तक, कार्य किया। इनका बुढ़ापा बड़ी गरीबी में बीता। १८ दिसंबर, १८२९ ई. को इनका देहावसान हो गया।

लामार्क प्रथम वैज्ञानिक थे, जिन्होंने कशेरुकी और अकशेरुकी जीवों में भेद किया और सर्वप्रथम इनवर्टीब्रेट (invertebrate) शब्द का उपयोग किया। १८०२ ई. में इन्होंने जीव, या पौधों के अध्ययन के लिए बायोलोजी (Biologie) शब्द का उपयोग किया। इन्होंने मौसम विज्ञान और मौसम की पूर्वसूचनाओं से संबंधित वार्षिक रिपोर्टों का भी प्रकाशन किया था। ये विकासवाद के जन्मदाता हैं। इनका विकासवाद का सिद्धांत लामार्कवाद कहलाता है, जो निम्नलिखित है :

लामार्कवाद - संक्षेप में लामार्क का विकासवाद यह है : वातावरण के परिवर्तन के कारण जीव की उत्पत्ति, अंगों का व्यवहार या अव्यवहार, जीवनकाल में अर्जित गुणों का जीवों द्वारा अपनी संतति में पारेषण। इस मत और डारविन के मत में यह अंतर है कि इस मत में डारविन के प्राकृतिक वरण के सिद्धांत का अभाव है।

लामार्क ने निम्नलिखित दो नियम अपने विकासवाद के संबंध में प्रतिपादित किए हैं :

(१)�� उस प्रत्येक जीव में, जिसने अपने विकास की आयु पार नहीं की है, किसी अंग का सतत व्यवहार उस अंग को विकसित एवं दृढ़ बनाता है और यह दृढ़ता उस काल के अनुपात में होती है जितने काल तक यह अंग व्यवहार में लाया गया है। इसके विपरीत यदि किसी अंग का व्यवहार नहीं किया जाता है, तो वह निर्बल होने लगता है और शनै: शनै: उसकी कार्यकारी क्षमता कम होती जाती है और अंत में वह अंग विलुप्त हो जाता है।

(2)����� दीर्घकाल से किसी परिस्थिति में रहनेवाली प्रजाति के जीवों को, परिस्थिति के प्रभाव के कारण, अनेक बातें अर्जित करनी पड़ती हैं, या भुला देनी होती है। किसी अंग का प्रभावी व्यवहार, अथवा उस अंग के व्यवहार में सतत कमी, आनुवंशिकता के द्वारा सुरक्षित रहती है और ये बातें इन जीवों से उत्पन्न होनेवाले जीवों में अवतरित होती हैं, पर शर्त यह है कि अर्जित परिवर्तन नर और मादा दोनों में हुआ हो, अथवा उन नर मादा में हुआ हो जिनसे नए जीवों की उत्पत्ति हुई है।

लामार्क को विश्वास था कि जीवित जीवों के स्पीशीज़ में या तो प्राकृतिक शृंखला रहती है या अंतर रहता है। जीवित प्राणियों के सांतत्य के विचार ने उन्हें यह विचारने के लिए प्रेरित किया कि जीवन और वनस्पति श्रेणी किसी बिंदु पर अवश्य ही संतत होने चाहिए और इन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जीवित प्राणियों का समग्र रूप में अध्ययन होना चाहिए।

लामार्क तीन महत्वपूर्ण एवं परस्पर संवधित संकल्पनाओं पर पहुँचे : (१) परिवर्तनशील बाह्य प्रभावों के अंतर्गत रहनेवाले स्पीशीज़ में अंतर होता है, (२) स्पीशीज़ की असमानताओं में भी मूलभूत एकता अंतर्निहित रहती है तथा (३) स्पीशीज़ में प्रगामी विकास होता है। लामार्क की मुख्य कल्पना यह थी कि अर्जित गुण वंशानुक्रम से प्राप्त होते हैं। अब लामार्क का सिद्धांत मान्य नहीं है। (अजित नारायण मेहरोत्रा)