लाजपराय, लाला सन् १९०५-६ में भारत की सजीव राष्ट्रीयता के तीन प्रमुख कर्णधार थे - बाल, लाल और पाल अर्थात् बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय और और विपिनचंद्र पाल। लाजपतराय जी पंजाबकेसरी के नाम से विख्यात हैं। आप जगराँव (जिला लुधियाना) के निवासी थे। उनका जन्म २८ जनवरी, सन् १८६५ को ढुडेकी (जि. फीरोजपुर) नामक छोटे से ग्राम में हुआ। वहीं पर आपके पिता श्री राधाकिशन गवर्नमेंट हाई स्कूल में अध्यापक थे। बाल्यावस्था से वे धर्मभीरु माता के विचारों से प्रभावित हुए। उर्दू और फारसी के विद्वान् पिता से आपने इन भाषाओं का विशेष ज्ञानार्जन किया। वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर आपने पहले हिसार में और फिर लाहौर में वकालत शुरू की।

कालेज की पढ़ाई के दिनों में ही आप सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे थे। डी.ए.वी. कालेज, लाहौर की स्थापना के अंनतर वे अपना पर्याप्त समय आर्यसमाज और कालेज को देते थे। आप म्यूनिसिपल कमेटी, हिसार के अवैतनिक मंत्री भी रहे। १८९६ से १९०८ ई. के बीच भारत के विभिन्न खंडों में पड़नेवाले दुर्भिक्षों के समय आपने अकालपीड़ितों की अच्छी सहायता की। सन् १९०५ के कांगड़ा भूकंपपीड़ितों की सहायता के लिए भी आप अग्रसर हुए। आपने व्याख्यान और लेखन के अतिरिक्त ४० हजार रुपए की निजी सहायता से अछूतोद्धार में योगदान किया। आप सन् १९१२ में गुरुकुल काँगड़ी के अछूतोद्धार सम्मलेजन के सभापति भी रहे।

काँग्रेस के समाजसुधार विषयक कार्यक्रम से आकृष्ट होकर आप इलाहाबाद अधिवेशन के समय कांग्रेस के सदस्य बन गए। ब्रिटिश पार्लमेंट के समक्ष भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के अभिप्राय से सन् १९०५ में एवं दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन से संबद्ध प्रतिनिधिमंडलों के साथ आप इंग्लैंड भी गए। १९०७ ई. में मॉडले के निर्वासनकाल के उपरांत उन्होंने कॉग्रेस के गरम और नरम दल में समझौता कराने का प्रयास किया; किंतु असफल रहे। १९२० ई. में वे कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष हुए। भारतीय युवकों की राजनीतिक शिक्षा के निमित्त उन्होंने 'तिलक स्कूल ऑव पॉलिटिक्स' की नींव रखी। 'सर्वेट्स अॅव दि पीपुल सोसाइटी' के संस्थापक भी आप ही थे।

उग्रवादियों के कार्यों से भयभीत होकर अंग्रेजी सरकार ने लाला जी को भारत परित्याग का आदेश दिया। फलत: आप १९१४ ई. में इंग्लैंड, जापान और तत्पश्चात् अमेरिका चले गए। अमेरिका में आपने 'इंडियन होमरूल' तथा 'इंडियन इन्फार्मेशन' नामक दो समितियों की स्थापना की तथा 'यंग इंडिया' साप्ताहिक पत्र भी निकाला। ४० हजार की राशि संचित करके महात्मा गांधी के ब्रिटिश विरोधी दक्षिण अफ्रीकी आंदोलन के सहायतार्थ प्रेषित की।

सन् १९२३ में आप भारतीय विधान सभा के सदस्य चुने गए। आप प्रभावशाली वक्ता और सिद्धहस्त लेखक थे। अंग्रेजी और उर्दू में आपने कई पुस्तकों का प्रणयन किया है। इनमें से 'दि आर्यसमाज' बड़ा लोकप्रिय हुआ और इसके कई संस्करण निकले। अमेरिकी प्रचारिका मिस कैथेराइन मेयो के उत्तर-स्वरूप 'अनहैपी इंडिया' विरचित हुआ। (मिस मेये ने भारत संबंधी अनेक बातें अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से कटु भाषा में लिखी थीं।) अन्य अंग्रेजी पुस्तकें उनके आत्मचरित्, यात्रा तथा भारत की राष्ट्रीय समस्याओं पर प्रकाश डालती हैं। उर्दू पुस्तकों में अधिकांशत: भारतीय और अभारतीय महापुरुषों की जीवनियाँ हैं। लाहौर से प्रकाशित होनेवाला उर्दू दैनिक पत्र 'वंदेमातरम' भी आपके संपादकीय और ज्वलंत समस्याओं पर लिखे गए परिमार्जित भाषा के लेखों के कारण अति प्रसिद्ध हुआ।

लाला जी का स्वाभिमान, निर्भीकता, स्वच्छंद प्रकृति और संगठनक्षमता उदाहरणीय है। हिसार में डिप्टी कमिश्नर का विरोध होने पर भी आपने लाट साहब को उर्दू में अभिनंदनपत्र भेंट किया था; १८८८ में काँग्रेस के अधिवेशन में सर सैयद की कट्टरवादिता के विरुद्ध आवेगपूर्ण भाषण किया; हिंदूवर्ग और संप्रदाय को एक मंच पर एकत्र करने के निमित्त 'पंजाब हिंदू सभा' की स्थापना की; विधान सभा दल के नेता से मतभेद होने पर 'इंडिपेंडेंट कांग्रेस पार्टी' की नींव रखी, किंतु बाद में उन्हें पूरा सहयोग भी प्रदान किया; गांधी जी के असहयोग आंदोलन के समर्थन में जब महात्मा हंसराज ने डी.ए.बी. कालेज बंद करना अस्वीकार किया तो उस संस्था से संबंद्ध विच्छेद कर लिया; असहयोग आंदोलन काल में कारावास में क्षयरोग हो जाने पर भी क्षमायाचना न की।

३० अक्तूबर, १९२८ को साइमन आयोग के विरुद्ध लाहौर में जो जुलूस निकाला गया उसका नेतृत्व लाला जी ने किया। जुलूस पर पुलिस के लाठी प्रहार से लाला जी की छाती पर गहरी चोट आई। कहते हैं, इसी आघात से १७ नवंबर, १९२८ को जनकी मृत्यु हो गई। (नवरत्न कपूर)