लछिराम हिंदी में इस नाम के सात कवियों का उल्लेख मिलता है जिनमें बहुज्ञात और प्रख्यात हैं १९ वीं शती के अमोढ़ा या अयोध्यावाले लछिराम। इनका जन्म सं. १८९८ में पौष शुक्ल १० को शेखपुरा (जि. बस्ती) में हुआ। पिता पलटन ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण थे। राजा अमोढ़ा इनके पूर्वजों को अयोध्या से अमोढ़ा लाए थे। इस कुल में कवियों की परंपरा विद्यमान थी। सं. १९०४ में लछिराम लामाचकनुनरा ग्रामवासी (जि. सुल्तानपुर) साहित्यशास्त्री कवि 'ईश' के पास अध्ययनार्थ गए। ५ वर्ष वहाँ अध्ययन करने के बाद घर चले आए। फिर इनकी भेंट अयेध्याधिपति राजा मानसिंह 'द्विजदेव' से हुई। उन्होंने इन्हें 'कविराज' की उपाधि दी और अपना आश्रम भी प्रदान किया। 'द्विजदेव' के माध्यम से लछिराम का संपर्क अनेक काव्यरसिक और गुणज्ञ राजाओं से हुआ जिनमें प्रत्येक के नाम पर एक एक रचना इन्होंने की। बस्ती के राजा शीतलाबख्श सिंह ने इन्हें ५०० बीघे का 'चरथी' गाँव दिया और निवासार्थ मकान भी बनवाया। आज भी इनके वंशज यहाँ रहते हैं। अपने आश्रयदाता राजाओं से कवि को अधिकाधिक द्रव्य, वस्त्राभूषण तथा हाथी, घोड़े आदि पुरस्कार में प्राप्त हुए। लछिराम ने अयोध्या में पाठशाला, राम जानकी का मंदिर और अपने निवासार्थ मकान बनवाया। भाद्रपद कृ. ११ सं. १९६१ को अयोध्या में इनका शरीरांत हुआ।

लछिराम रीतिबद्ध परंपरा के आचार्य कवि हैं। उनकी कृतियों में रस, अलंकार, शब्दशक्ति, गुण और वृत्ति आदि रीतितत्वों का लक्षण, उदाहण सहित, सांगोपांग निरूपण हुआ है। अपनी शास्त्रीय दृष्टि के लिए वह संस्कृत में 'काव्यप्रकाश', भानुदत्त की 'रसमंजरी', अप्पयदीक्षित के 'कुवलयानंद' आदि और हिंदी में भिखारीदास तथा केशव आदि के ऋणी कहे जा सकते हैं। ढाँचा पुराना होने पर भी उनकी सहज काव्य प्रतिभा रमणीय भाव दृश्य चित्रण करती है।

रचनाएँ, प्रसादगुणयुक्त ब्रजभाषा में है। कुछ के नाम ये हैं - मुनीश्वर कल्पतरु, महेंद्र प्रतापरस भूषण, रघुबीर विलास, लक्ष्मीश्वर रत्नाकर, प्रतापरत्नाकर, रामचंद्रभूषण, हनुमंतशतक, सरयूलहरी, कमलानंद कल्पतरु, मानसिंह जंगाष्टक और सियाराम चरण चंद्रिका। (रामफेर त्रिपाठी)