लघुगणक (logarithms) किसी दिए हुए आधार पर किसी संख्या का लघुगणक (logarithm) उस घात (power) का घातांक (index) होता है जिसको आधार पर आरोहित करने पर प्राप्त फल उस संख्या के बराबर हो जाता है।

उदाहरणार्थ, यदि = हो, तो आधार पर का लघुगणक कहलाता है और उसे लघु द्वारा व्यक्त किया जाता है। प्रत्येक लघुगणक का आधार होना आवश्यक है। भिन्न भिन्न आधारों के लिए एक ही संख्या के भिन्न भिन्न लघुगणक होते हैं।

साधारणत: आधार के लिए दो संख्याओं का व्यवहार होता है, जिनके अनुसार लघुगणक की दो प्रणालियाँ बनाई गई हैं।

प्राकृतिक प्रणाली में लघुगणक का आधार एक असम्मेय (incommensurable) संख्या e मानी जाती है। इसके आविष्कारक जॉन नेपियर के नाम पर ऐसे लघुगणकों को नेपिरीय लघुगणक भी कहते हैं। e का मान निम्नलिखित अनंत श्रेणी द्वारा व्यक्त होता है :

जिसका मान २.७१८२८१८...... है। उच्च गणित के सैद्धांतिक कार्यों के लिए इसी प्रणाली का उपयोग होता है।

दूसरी प्रणाली के आविष्कारक हेनरी ब्रिग हैं। इस प्रणाली में लघुगणक का आधार १० है। इसे सामान्य प्रणाली कहते हैं। यह व्यावहारिक प्रयोगों के लिए उपयुक्त है।

लघुगणक के मौलिक नियम निम्नलिखित हैं :

(१)�� लघु म न = लघु + लघु

(२)�� लघु (म/न) = लघु - लघु

(३)�� लघु () = लघु

पूर्णांश (Characteristic) और अपूर्णांश (Mantissa) - यदि किसी संख्या का लघुगणक भिन्नात्मक हो, तो उसके पूर्णांक भाग को पूर्णाश और दशमलव भाग को अपूर्णांश कहते हैं।

पूर्णांश ज्ञात करने का नियम निम्नलिखित है :

(१)��� जिस धनात्मक संख्या (१) के पूर्णांक भाग में + अंक हो, उस संख्या के लघुगणक का पूर्णांश होता है।

(२)��� जिस धनात्मक संख्या (<१) में दशमलव बिंदु के बाद शून्य हो, उसके लघुगणक का पूर्णांश - (+) होता है।

अपूर्णांश ज्ञात करने का नियम निम्नलिखित हैं :

अपूर्णांश संख्या के मान और उसमें व्यवहृत अंकों के क्रम पर निर्भर करता है। यदि दो संख्याओं में एक ही प्रकार के अंक एक ही क्रम में व्यवहृत हों और केवल दशमलव बिंदु का स्थान भिन्न हो, तो उन संख्याओं के अपूर्णांश एक ही होंगे, क्योंकि अपूर्णांश संख्या में दशमलव बिंदु के स्थान पर निर्भर नहीं होता है।

चित्र. विविध उपकरण

बीकर; २. परखनली; ३. कीप; ४. निस्यंदन फ्लास्क; ५. धावन बोतल; ७. क्लैंप; ८. पिंच कॉक (रोधनी); ९. चम्मच

(spatula); १०. निस्यंदक फ्लस्क (filtering flask); ११. छिद्रित चक्रिका (perforated disc); १२. पोर्सिलेन की

प्याली; १३. वॅचग्लास तथा क्लॉकग्लास; १४. तोलन नली, तोलन बोतल; १५. पिपेट; १६. फुँकनी; १७. किप का गैस

जनित्र; १८. ऐडैप्टर; १९. संघनित्र (condenser); २०. निस्यंदक कीप; २१. गैस शोषण बोतल, या स्तंभ; २२. पृथक्कारी

कीप; २३. पूर्ण संघनित्र उपकरण, या भभका; २४. आधार या स्टैंड; २५. मूषा (crucible); २६. ब्यूरेट; मापक जार,

या सिलिंडर; २८. मापक फ्लास्क; २९. चिमटी (tongs) तथा ३०. खरल और मूसली।

उदाहरणार्थ : लघु १०.७९९=१.०३३३८३

लघु .०१०७९९=२.०३३३८३

अपूर्णांश को लघुगणकीय सारणी से ज्ञात किया जाता है।

आधारपरिवर्तन का नियम - किसी संख्या के लघुगणक को एक आधार से दूसरे आधार पर परिवर्तित करने के लिए निम्नलिखित नियम का उपयोग करते हैं :

लघु =लघु लघु

यदि =१०, =e तो लघु१० =लघुe लघु१० e। यदि =, तो लघु लघु =

सम्मिश्र संख्या (Complex Number) के लघुगणक -

यदि =+i ख, ल=+i घ,

तो क+i=e+i =e (कोज्या घ+i ज्या घ), जिसमें क=e कोज्या घ और ख=e ज्या घ।

परंतु यदि आवर्तिता को मान्यता दी जाए, तो

+i =e+i (घ+pम)

लघुe (क+i ख)=+i (घ+p म)

यदि य=+i ख और र=

तो लघुe=लघुe+i (घ+p म), जिसमें म=०, १, २,....। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी सम्मिश्र संख्या के लघुगणकों की संख्या अनंत होती है, अर्थात् सम्मिश्र संख्या का लघुगणक एक अनेकार्ह है। जब लघुगणक एक अनेकार्ह के रूप में देखा जाता है, तव इसे लघुe य (Loge य) से व्यक्त किया जाता है।

लघुe=pi+लघुe य।

गाउसीय लघुगणक (Gaussian Logarithms) - यदि लघु१०+लघु१० ब का मान ज्ञात हो, तो बिना अ और ब का मान ज्ञात किए बहुधा लघु१० (अ ब) का मान ज्ञात करने की आवश्यकता पड़ती है। इस उद्देश्य से १८०३ ई में ज़िखीनी ल्योनेली (Zecchini Leonelli) ने एक नए प्रकार की लघुगणक सारणी निकाली। इसी प्रकार की, दशमलव के ५ स्थान तक यथार्थ, लघुगुणक सारणी गाउस (Gauss) ने १८१२ ई. में प्रकाशित की। इसे गाउसीय लघुगणक कहते हैं। यदि अ=लघु य, ब=लघु (१+१/य) और स=लघु (१+य), य>१ तो अ+=स। गाउस ने सारणी बनाने में इसी नियम का प्रयोग किया था।

लघु अ और लघु ब से लघु () का मान ज्ञात करना -

यदि अ>ब, =य,

लघु (अ+ब)=लघु = श्= लघु अ+ख। संगणन पद्धति निम्नलिखित है:

लघु अ - लघु ब=क से क का मान ज्ञात करें। सारणी से ख का क के आधारसंगत मान निकालकर लघु अ में जोड़ दें।

लघु (अ - ब) ज्ञात करने का नियम - यदि लघु अ - लघु ब>लघु २, तो मान लें कि लघु अ - लघु ब=

(अ/ब) =+ (१/य), (१/य) = (अ/ब) -१।

इसलिए लघु (अ-ब)=लघु श्= लघु ब-क। सारणी से क का ख का संगत मान निकालकर, इसे लघु ब से घटा लें।

यदि लघु अ - लघु ब<२, तो मान लें कि लघु अ - लघु ब=स।

अ/ब=+य, य=(अ/ब)-१ तथा लघु (अ-ब)=लघु श्=लघु ब+क और सारणी की सहायता से वांछित मान प्राप्त करें।

लघुगणक सारणी के परिकलन की विधियाँ - जॉन नेपियर, हेनरी ब्रिग, जेम्य ग्रेगोरी, ऐब्राहम शार्प तथा अन्य गणितज्ञों ने भिन्न भिन्न पद्धतियों का उपयोग सारणी निर्माण में किया है। निकोलस मर्केटर (Nicolas Mercator) ने १६६८ ई. में लघु (१+य) की अनंत श्रेणी प्राप्त की :

लघु (१+य) =- +. . . (-<१)

संगणन में यह अधिक लाभप्रद नहीं है। १६९५ ई. में जॉन वालिस ने निम्नलिखित अनंत श्रेणी का प्रयोग किया :

इस श्रेणी की अभिसृति शीघ्रतर है। १७९४ ई. में जी.एफ. भेगा द्वारा लिखित थिसॉरस (Thesaurus) में य=(२र-१)- मानकर श्रेणी की अभिसृति अधिक शीघ्रतर कर दी गई है।

साधारणत: सारणी के उपयोग में अनुपाती अंशसिद्धांत की सहायता ली जाती है।

लघुगणक को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - स्कॉटलैंड निवासी जॉन नेपियर तथा स्विट्सरलैंड के जूस्ट बुर्गी (Joost Burgi) ने स्वतंत्र रूप से लघुगणक का आविष्कार किया। इन दोनों के लघुगणक एक दूसरे से भिन्न थे तथा प्राकृतिक लघुगणक और सामान्य लघुगणक भी भिन्न थे। नेपियर का लघुगणक १६१४ ई. में एड्नवर (Edinburgh) में ''मिरिफिसी लॉगेरिथमोरम केनोनिस डिसक्रिप्शियो (Mirifici logarithmorum canonis descriptio)'' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुआ। १६२० ई. में प्रेग (Prague) में जूस्ट बुर्गी का लघुगणक ''अरिथमेटिशे उंडर ज्योमेट्रिशे प्रोग्रेस टेबूलेन (Arithmetische under Geometrische Progress Tabulen)'' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुआ। इस समय तक सारे यूरोप में नेपियर के लघुगणक का प्रचार हो चुका था। उनके सिद्धांत एवं परिकलन पद्धति का पूर्ण उल्लेख, उनकी पुस्तक ''मिरिफ़िसी लॉगरिथमोरम केनोनिस कंस्ट्रक्सियो, (Mirifice logarithmorum canonis constructio)'' में मिलता है, जो उनकी मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् १६१९ ई. में प्रकाशित हुई। डब्लू.आर. मैक्डॉनैल्ड (W.R. Macdonald) ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद १८८९ ई. में किया। १६१४ ई. के नेपिरियन लघुगणक तथा प्राकृतिक लघुगणक का पारस्परिक संबंध निम्न ढंग से व्यक्त किया जाता है :

नेप लघु र=१० लघु

नेपियर ने इकाई के लघुगणक का मान शून्य नहीं माना था। फलस्वरूप इनके सिद्धांत के अनुसार, बिना संशोधन के लधुगणक से संगत समीकरण ब=न संभव नहीं था।

१६२० ई. के बुर्गी (Burgi) के प्रकाशन में प्रतिलघुगणक (anti-logarithm) की सारणी है। इसमें लघुगणक लाल और संख्याएँ काले रंग में छपी हैं। इनका ''ग्रुंडलिखे उटररिख्ट (grundliche unterricht)'' १८५६ ई. में प्रकाशित हुआ, जिसमें इकाई के लघुगणक को शून्य माना गया है। बुर्गी की सारणी की कुछ पंक्तियाँ उदाहरणार्थ नीचे दी गई है :

लाल १० २० ........

काली १०००००००० १०००१०००० १०००२०००१ ........

पहली पंक्ति समांतर श्रेणी है। दूसरी पंक्ति गुणोत्तर श्रेणी है, जिसका सामान्य अनुपात १.०००१ है। दूसरी पंक्ति के अंत के आठ अंक दशमलव अंक माने गए हैं और काले रंग में व्यक्त किए गए हैं। यदि १.०००१ का लघुगणक १० है, तो स्पष्ट है कि इसका आधार =१.०००००९९९ ....... है। लघुगणक के आधार के संबंध में बुर्गी का ज्ञान नेपियर से अधिक प्रतीत नहीं होता।

जॉन वॉलिस (John Wallis) ने १६८५ ई. तथा बेर्नूली ने १६९४ ई. में लघुगणक से संगत समीकरण ब=न का अनुमान किया। इस विचार पर आधारित लघुगणक का उल्लेख १७४२ ई. से मिलता है। इसका वर्णन ''गार्डिनर्स टेबुल्स ऑव लॉगैरिथम्स (Gardiners Tables of Logarithms)'' की भूमिका में मिलता है। इसका श्रेय विलियम जोम्स (William Jones) को दिया जाता है।

सामान्य लघुगणक - सामान्य लघुगणक का विकास जॉन नेपियर और हेनरी ब्रिग के सम्मिलित प्रयास का फल है। इसका उल्लेख ब्रिग के ऐरिथमेटिका लॉगरिथमिका (Arithmetica Logarithmica) में है।

यदि र वृत्त की त्रिज्या है, तो ब्रिग का सुझाव था कि लघु र=० और लघु =१०१०। नेपियर के अनुसार लघु १=०, लघु र=१०१०। कुछ समय के पश्चात् लघु र=१०१० के स्थान पर लघु १०=१ का व्यवहार होना आरंभ हुआ। ब्रिग के १६२४ ई. के प्रकाशन में १ से २०,००० और ९०,००० से १,००,००० के लघुगणक का दशमलव के १४ स्थान तक का उल्लेख है। २०,००० से ९०,००० के लघुगणक ऐड्रिऐन ब्लाक (Adrian Vlacq) द्वारा निकाले गए। ब्रिग की १६२४ ई. की सारणी में कैरेक्टेरिस्टिक (characteristic) शब्द का उल्लेख है। १६९३ ई. में जॉन वॉलिस ने अपनी बीजगणित की पुस्तक में मैंटिसा (mantissa) शब्द का प्रयोग किया है।

प्राकृतिक लघुगणक - सर्वप्रथम प्राकृतिक लघुगणक का उल्लेख नेपियर्स डिस्क्रिप्शियो (Napier's Descriptio) में मिलता है, जो एडवर्ड राइट (Edward Wright) द्वारा अनुवादित १६१८ ई. के अंग्रेजी संस्करण में ''जॉन स्पेडील्स न्यू लॉगैरिथम्स (John Speidells New Logarithms)'' के १६२२ ई. के संस्करण में १ से १००० तक की लघुगणक सारणी है। ये सब प्राकृतिक लघुगणक है, केवल दशमलव बिंदु लुप्त है। ''जुसात्ज़े ज़ू डेन लॉगरिथेमिशेन अंड ट्रिगोनोमेट्रिशेन टेबिलेन (Zusatza zu den Logarithmischen and Trigonometrischen Tabellen)'' में १७७० ई. में जोहैन हाइनरिख लैबर्ट (Johann Heinrich Lambert) ने दशमलव के सात स्थान तक १-१०० के प्राकृतिक लघुगणक प्रकाशित किए। दशमलव के ४८ स्थान तक, १७७८ ई. में वालफ्राम (Walfram) ने १-१०००० के लघुगणक ''जे.सी. शुल्ट्सेज़ सामलुंग (J.C. Schulze's Sammlung)'' में प्रकाशित किए। (कृष्णमुरारी सक्सेनाी)