लक्ष्मी भारत में प्राय: प्रत्येक हिंदू के घर दीवाली के दिन लक्ष्मी की पूजा होती है। कार्तिक अमावस्या की रात दीपकों के उजाले से शरद पूर्णिमा की भाँति खिल उठती है। उस समय लोग घर की सफाई करते हैं, नया वस्त्र पहनते हैं तथा बड़ी धूमधाम से लक्ष्मी का पूजन करते हैं। कुछ परिवारों में लक्ष्मी की मृण्मूर्ति स्वच्छ पृथ्वी पर चंदन से कमल बनाकर रखते हैं तथा गणेश का पूजन करके लक्ष्मी का पूजन विधिपूर्वक करते हैं। कुछ लोग इंद्र तथा कुबेर का भी पूजन करते हैं तथा एक अखंड धृत का दीप प्रज्वलित करते हैं। अंत में लक्ष्मी से प्रार्थना करते हैं कि वह परिवार को धनधान्य से सुसंपन्न करे। कुछ परिवारों में श्री का यंत्र चंदन से बनाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। कहीं कहीं यह यंत्र लोग पत्थर पर खोदवाकर रख लेते हैं और दीवाली के दिन उसे चंदन लगाकर पूजा करते हैं। किसी किसी परिवार में लक्ष्मी की मूर्ति भीत पर चित्रित कर उनका षोडषोपचार से पूजन करते हैं।

यह विश्वास जनसाधारण में विस्तृत रूप से व्याप्त है कि दीवाली के दिन लक्ष्मी प्रत्येक गृह में पधारती हैं। उनके आगमन की प्रतीक्षा में लोग घर को स्वच्छ रखते हैं, दीपक जलाते हैं, जागरण करते हैं तथा समय काटने के हेतु द्यूत रचाते हैं।

लक्ष्मीव्रत - दीवाली के पूर्व कुछ नगरों में लक्ष्मी का मेला होता है तथा लोग लक्ष्मी का व्रत करते हैं। यह व्रत भाद्रशुक्ल अष्टमी से प्रारंभ होकर आश्विन कृष्ण अष्टमी तक चलता है। अष्टमी को उस व्रत का उद्यापन होता है। यह व्रत भदई की फसल कटने के पश्चात् तथा अगहनी बोने के पूर्व होता है। इस प्रकार इस उत्सव से हमारी कृषि से भी कुछ संबंध प्रतीत होता है। इस कथा का आरंभ एक मंगल राजा तथा उनकी दो रानियों चिल्लदेवी तथा चोलदेवी से होता है। ये नाम कुछ चालू कोक देवता से मिलते हुए हैं जिनकी मूर्ति भारहुत से प्राप्त हुई हैं (जिंमर - दि आर्ट ऑव इंडियन एशिया - फलक ३३, बी)।

किसी किसी कुल में लक्ष्मी की कच्ची मिट्टी की मूर्ति रखकर पूजन करते हैं। यह मूर्ति केवल गर्दन तक रहती है। नीचे का भाग कपड़े से बनाया जाता है। इस प्रकार की दो मूर्तियाँ रखी जाती हैं। एक को छोटी तथा दूसरी को बड़ी लक्ष्मी कहते हैं। ये प्राय: राजा मंगल की दो रानियों की प्रतीक होती है। कई घरों में आश्विन की पूर्णिमा को रात्रि में इंद्र तथा लक्ष्मी का श्वेत पुष्प इत्यादि से पूजन होता है तथा श्वेत वस्तुओं जैसे रेवड़ी, गरी, दूध इत्यादि का भोग लगता है तथा द्यूत रचाते हैं। यह कदाचित् कौमुदी महोत्सव का प्रतीक है। इसका विवरण हमें मुद्राराक्षस में भी प्राप्त होता है।

आज जो लक्ष्मी की मूर्ति दीवाली के पूजन के हेतु बनती है उसका रूप विष्णुधर्मोत्तर पुराण में जैसा कहा गया है उससे भिन्न रहता है। इसके अनुसार जब विष्णु के साथ लक्ष्मी की मूर्ति बनाई जाए तो लक्ष्मी को दो भुजाओंवाली बनाना चाहिए। पृथक जब बनाई जाए तो उन्हें चतुर्भुज बनाना चाहिए। उनका रूप सुंदर बनाना चाहिए तथा उनको सब आभूषणों से सजाना चाहिए। उनकी चतुर्भुज मूर्ति कमलासन पर स्थित करनी चाहिए। यह कमल अष्टदल का हो। नीचे के दक्षिण कर में केयूर तक जिस कमल की डंडी हो ऐसा कमल, नीचे के वाम कर में अमृतघट, ऊपर के दो करों में एक में श्रीफ़ल (विल्व फल), तथा दूसरे में शंख; दोनों ओर दो हाथी बनाए जाऍ जो घट पर स्थित अपनी सूँडों से घट लिए हुए देवी को स्नान कराते रहें। आज की मूर्ति चार भाँति की बनती है, एक तो विष्णु के साथ जिसमें लक्ष्मी विष्णु के चरण चापती हुई दिखाई जाती हैं, दूसरी केवल गरदन तक जो महालक्ष्मी व्रत के पूजन में विशेष प्रकार से व्यवहार में आती है, तीसरी बिना गज के पद्मासन में कमल के आसन पर बैठी मूर्ति जिसकी चार भुजाएँ रहती हैं, दो में पद्म तथा एक वरद मुद्रा में तथा दूसरी जंघे पर स्थित, चौथी वह जिसमें गज स्नान कराते दिखाए जाते हैं। ये मूर्तियाँ प्राय: सफेद रंग से रँगी रहती हैं, गरदन तक की लक्ष्मी की मूर्ति कभी सेंदुरिया रंग से और कभी सफेंद रंग से रँगी रहती है। ये मूर्तियाँ आभूषणों से सज्जित रहती हैं। मस्तक पर मुकुट, वक्षस्थल पर हार, कानों में कुंडल, बाहुओं में केयूर, मणिबंधों पर चूड़ी, कंगन इत्यादि, कटि प्रदेश में करघनी तथा नाक में नथ रहती है। (नथ - बारहवी तेरहवीं शताब्दी के पूर्व मूर्तियों पर दृष्टिगोचर नहीं होती)।

उत्तर भारत में प्राय: व्यापारी वर्ग दीवाली को अपना नया वर्ष प्रारंभ करते हैं तथा अपनी बहियों का, काँटे बटखरों का, लेखनी मसीपात्र का पूजन करते हैं। जौहरी अपने रत्नों का पूजन करते हैं तथा कायस्थ लोग दीवाली के तीसरे दिन दावात कलम का पूजन करते हैं।

प्राय: सन् १९२१ के पूर्व पाश्चात्य विद्वान् यही मानते थे कि भारत में मूर्ति का आगमन यूनान से हुआ तथा बुद्धमूर्तियाँ अपोलों के ढाँचे पर बनाई गईं। परंतु अब सिंधु सभ्यता की मूर्तियों के प्राप्त होने के पश्चात् सभी यह मानने लगे हैं कि भारत में मूर्तियाँ ईसा से २५०० वर्ष पूर्व भी बनती थीं। उस समय की प्राप्त मूर्तियों में पत्थर की, काँसे की तथा पक्की मिट्टी की आज भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं।

कुमारस्वामी ने लक्ष्मी की मूर्तियाँ तीन प्रकार की मानी हैं - पद्मस्थिता (कमल पर बैठी हुई); पद्मग्रहा (कमल हाथ में लिए हुए); पद्मवासा (कमल से घिरी हुई)। गज लक्ष्मी की मूर्ति को उन्होंने अलग स्थान दिया है, परंतु जितनी भी लक्ष्मी की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं उनमें कमल का प्राधान्य है। यह एक चिह्न सभी में प्राप्त होता है। हम यदि इस चिह्न के साथ किसी देवी की मूर्ति की खोज मोहनजोदड़ों, हड़प्पा, चांहुदाड़ो में करें तो कदाचित् किसी तथ्य पर पहुँच सकें। लक्ष्मी को जगन्माता के आदि स्वरूप से जोड़ना कुछ उचित नहीं ज्ञात होता, न मोहनजोदड़ों से प्राप्त योगी के स्वरूप से, क्योंकि इनमें कहीं कमल का कोई संबंध नहीं दिखाई देता। यह तो प्राय: अब विद्वान् मानने लग गए हैं कि भारत के प्राचीन नगर मोहनजोदड़ों, हड़प्पा, अमरी, नाल, कुल्ली, चांहुदाड़ो से पश्चिम के ग्यान, किश, उर इत्यादि नगरियों से वाणिज्य संबंध था तो उस काल के भारत में एक वणिक् समाज का होना अनिवार्य सा है। इनके अपने कोई देवी देवता, जो धन को प्रदान करनेवाले हों, होना चाहिए। इस विषय में कुछ निश्चित रूप से कहना कठिन है क्योंकि अभी तक यहाँ की लिपि पढ़ी नहीं गई है परंतु फिर भी यहाँ से प्राप्त कुद मोहरों पर की आकृतियाँ इस अनुमान को पुष्ट करती हैं कि सिंधु घाटी के वणिक वर्ग की कोई देवी ऐसी थी जिसका बाद में लक्ष्मी का रूप हुआ।

श्री तथा लक्ष्मी शब्द ऋग्वेद में आते हैं परंतु इनसे किसी विशेष रूप का बोध नहीं होता। माता अदिति से लक्ष्मी का संबंध कहाँ तक जोड़ा जा सकता है, यह विचार का विषय है। यों अदिति से लक्ष्मी का सबंध कुछ बैठता नहीं, क्योंकि ये दोनों शब्द अलग अलग ऋग्वेद में प्राप्त हैं तथा इन दोनों को एक साथ जोड़ा नहीं गया है। डाक्टर कुमारस्वामी ने कहा है कि हिंदू देवी अदिति से बाबुल के इश्तर का बहुत कुछ साम्य है तथा दूसरी ओर श्री लक्ष्मी से भी। वैदिक देवी अदिति यजुर्वेद में विष्णुपत्नी के रूप में मिलती हैं। ऋग्वेद में वे जगन्माता सर्वप्रदाता, प्रकृति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित हैं। अदिति का इस प्रकार का एक रूप श्री लक्ष्मी से भी मिलता है अैर जब अदिति के दूसरे गुण और देवियों में विभाजित करके पूजे जाने लगे तो एक रूप श्री लक्ष्मी का भी इन्हीं अदिति से बना, ऐसा कुमारस्वामी का मत है।

यजुर्वेद में श्री तथा लक्ष्मी दो देवियों के रूप हमें मिलते हैं 'श्रीश्चते लक्ष्मी सपत्न्या' तथा इनको विष्णु की दो पत्नियाँ माना है। अथर्ववेद में श्री, भूति, वृद्धि सौभाग्य इत्यादि की द्योतक है। ब्राह्मणों में जिन देवताओं को श्री है वे अमर हैं। श्री वह आसन है जिसपर ब्रह्मा स्थित है, श्री में चेतनधर्म का आरोपण सबसे प्रथम शतपथ ब्राह्मण में होता है, जब प्रजापति अपने तप के द्वारा अपनी श्री को प्रकट करते हैं।

श्रीसूक्त में श्री तथा लक्ष्मी एक ही देवी हो जाती हैं। सुवर्ण तथा रजत की (श्री सूक्त १) माला पहने हुए हिरण्य वर्ण वाली, पद्म पर स्थित, पद्म वर्ण वाली, जिससे संबंधित विल्वफल है (श्री सूक्त ६) इत्यादि। तैत्तिरीय उपनिषद् में ये वस्त्र, भोजन, पेय, धन आदि की प्रदात्री के रूप में हमारे समक्ष आती है। ऐतरेय ब्राह्मण में श्री की कल्पना करनेवालों को विल्व के पेड़ का यूप शाखासहित बनाने का विधान मिलता है। विल्व को श्रीफल भी कहा है, रामायण में श्री कुबेर के साथ संबंधित मिलती हैं जो इस सांसारिक सौख्य के प्रदाता हैं तथा धन के देवता हैं। रामायण के पुष्पक प्रासाद पर लक्ष्मी कर में कमल लिए हुए स्थित हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। महाभारत में लक्ष्मी भद्रा रोम की पुत्री के साथ कुबेर की स्त्री के रूप में उपस्थित होती हैं। यहाँ इनकी उत्पत्ति समुद्रमंथन से, अफ्रोडाइट की भाँति, मिलती है तथा इनका मांगलिक चिह्न मगर मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में लक्ष्मी के प्रति बहुत श्रद्धा का भाव नहीं मिलता। इनके संप्रदाय का नाम मिलिंदपान: में मिलता है। दीघ्घनिकाय के ब्रह्मजाल सब में इनकी उपासना वर्जित है। जातक ५३५ में यह पूर्व में स्थित दिखाई गई हैं जैसे असा दक्षिण में, सद्धा पश्चिम में, हिरी उत्तर में। श्री को लख्खनी जातक नं. ३९२ में धत्तरथ की, जो पूर्व के दिग्पाल हैं, पुत्री माना है। वे कहती है कि मैं मनुष्य को सांसारिक वैभव की प्रदात्री हूँ। मैं सौंदर्य हूँ (श्री), लख्खी हूँ, मैं भूरिपत्र हूँ। धम्मपद अट्ठकथा में रज्ज सिरी दायक देवता है अर्थात् वे राज्य पुन: दिलानेवाली देवता है।

जैन पश्युिषण कल्प में त्रिसला के १४ स्वप्नों में जो महावीर के आगमन के द्योतक थे, श्री अभिषेक भी मिलता है। भगवती सूत्र में भी यही कथा मिलती है। इस ध्यान में श्री कमल पर स्थित हिमालय के गर्भ में हाथियों द्वारा अभिषिक्त हो रही थीं।

कालिदास के रघुवंश में लक्ष्मी पद्महस्ता राज्यलक्ष्मी के रूप उपस्थित होती है। कालिदास ने अपनी नायिकाओं की उपमा लक्ष्मी से दी है। अग्निपुराण में लक्ष्मी को प्रकृति तथा नारायण को पुरुष माना है। विष्णुपुराण में श्री विष्णु की पत्नी तथा समुद्रमंथन से उत्पन्न मानी गई है, इनको कमलालया कहा गया है। भक्तमाला में भी लक्ष्मी को कमला तथा विष्णु की शक्ति कहा गया है।

ऐसा ज्ञात होता है कि वेदों में 'श्री' तथा 'लक्ष्मी' अमूर्त ऐश्वर्य के द्योतक शब्द थे। बाद में एक स्थूल रूपबोधक हो गए तथा जनता द्वारा पूजित एक देवी से संबंध जोड़ दिया गया। श्री शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाए तो ग्रीक में एक शब्द प्राप्त होता है जिसका अर्थ है अधिकारी, शासक, राजा इत्यादि। हिंदेशिया के उत्तरी सेलेवेस में बोली जानेवाली टोन-टेन बोआन में 'सिय' शब्द धनवान तथा सुंदर दोनों के हेतु व्यवहार किया जाता है। कदाचित् यह शब्द श्री से निकला हो। लक्ष्मी शब्द लक्ष्मण से बना है, ऐसा मोनियर विलियम्स का मत है। वह कौन सा चिह्न था जिससे लक्ष्मी का संबंध था, निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता परंतु ऐसा ज्ञात होता है कि स्वस्तिक जिसका आज भी हम व्यवहार करते हैं उसका संबंध लक्ष्मी से हो। श्री अक्षर स्वस्तिक से ही बना है, जैसे ब्रह्मश्री, राजश्री, मुखश्री, रणश्री, गृहश्री इत्यादि। लक्ष्मी से राजलक्ष्मी, गृहलक्ष्मी, रणलक्ष्मी, लक्ष्मीवान्, लख्खीवार इत्यादि।

ऐसा ज्ञात होता है कि दूसरी शताब्दी ईसा से पूर्व तक लक्ष्मी का स्वरूप निर्धारित हो चुका था, जैसा हम भारहुत के कटघरों के खंभों पर देखते हैं। यहाँ हमें लक्ष्मी के दो स्वरूप मिलते हैं - एक बैठा हुआ तथा दूरा खड़ा। बैठी हुई मूर्ति योगासन में दोनों हाथ जोड़े हुए है तथा कमल के फूल पर स्थित है। खड़ी मूर्तियाँ कमल का फूल एक हाथ में लिए हुए हैं। इन दोनों प्रकार के फलकों में गज उनको स्नान करा रहे हैं। इस प्रकार उस युग में इनका गज तथा कमल से संबंध स्थापित हो चुका था। फूसे का मत है कि यह गज लक्ष्मी की मूर्ति माया बुद्ध की माता की द्योतक है तथा हिंदू देवी लक्ष्मी का आधुनिक रूप इसी से लिया गया है परंतु यदि यह बात होती तो अश्वघोष ने सौंदरनंद में सुंदरी की लक्ष्मी से उपमा देते हुए यह न कहा होता कि 'पद्मानना पद्मदलायताक्षी पद्मा विपद्मापतितेव लक्ष्मी' इत्यादि तथा रामायण में गजलक्ष्मी का पुष्पक विमान प्रासाद पर खचित होना न वर्णन किया गया होता। यदि

चित्र १. साँची फलक ४१

पूर्वी द्वार तोरण, दक्षिणी सिरा

यह माया का स्वरूप माना जाए तो दो हाथियों की इन देवी को स्नान कराने के हेतु आवश्यकता क्यों हुई, एक ही हाथी से काम चल सकता था।

चित्र २. साँची फलक ११

दक्षिणी द्वार तोरण, मध्यभाग

गर्भ के स्वप्न में माया को एक हाथी दिखाई देता है जैसा कई फलकों पर हम देखते हैं। वहाँ हाथियों का झुंड और उससे अलग होकर एक हाथी को माया देवी की ओर आते हुए नहीं दिखाया गया है।

इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि श्री तथा लक्ष्मी का सम्मिश्रण श्रीसूक्त के समय तक हो चुका था तथा इस देवी का मूर्त रूप किसी जनता की देवी से रामायण काल के पूर्व ही संबंधित हो गया था। उस जनता की देवी के चिह्नों में पद्म, गज, जल इत्यादि थे। वे सौंदर्य तथा धन की देवी भी बन चुकी थी।

भारत में यक्ष तथा नागपूजा प्राचीन समय से होती चली आई है। फरगुसन के अनुसार यहाँ के आदिवासियों का विश्वास था कि इनके पूजन से ही पानी बरसता है तथा अन्न उत्पन्न होता है (ट्री ऐंड सर्पेट वरशिप)। ये विचार वैदिक नहीं है जैसा डु ला वाले पूस्सां ने लिखा है। इन विचारों को माननेवालों की एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी जैसा सिंधुघाटी की खोदाई से पता चला है (कुमारस्वामी 'यक्षाज')। आर्य इन्हें शिश्न (लिंग) के पूजक मानते थे तथा इन्हें अपनी आहुताग्नि के पास भी नहीं फटकने देते थे। बाद में कदाचित् इनके संपर्क में आने के पश्चात् तथा इनसे वैवाहिक संबंध होने से इनके देवता भी हिंदू धर्म में आए परंतु निम्न श्रेणी में ही रहे जैसा महादेव के साथ बहुत दिन तक होता रहा (वायु पु. ८८, २७)। शतपथ ब्राह्मण में यक्षराज कुबेर राक्षसों की गिनती में है परंतु जैमिनीय ब्राह्मण में यक्ष एक आश्चर्यजनक जीव है। बौद्ध साहित्य वैश्रवण कुबेर चार दिग्पालों में एक है। सांखायण गृह्यसूत्र में (४, ९), आश्वलायन गृहसूत्र में (३, ४), पाराशर गृह्यसूत्र में (२, १२) यक्षों की स्तुति मिलती है। पीछे चलकर कुबेर देवताओं के रोकड़िया बन जाते हैं तथा १० दिग्पालों में उत्तर के अधिष्ठाता बन जाते हैं। महाभारत में एक यक्षिणी के मंदिर की चर्चा राजगृह में मिलती है (.३,८३,२३)। क्या ऐसा संभव है कि इन्हीं यक्षिणियों में एक लक्ष्मी भी हों जो बाद में एक अलग देवी बन गई? हमें भारहुत में श्री माँ देवता मिलती है। श्री से लक्ष्मी का संबंध हो ही गया था, इस प्रकार यह अनुमान करना कि लक्ष्मी भी किसी यक्षिणी के रूप में आदिवासियों से पूजी जाती थी, कुछ अनुचित न होगा। 'श्रीर्मा देवी' श्रीसूक्त में लक्ष्मी को कहा गया है (श्री सूक्त २) तथा मणिभद्र यक्ष का भी संबंध इनसे यहाँ मिलता है (श्री सूक्त ६)।

दूसरे देशों में भारतीय सभ्यता का जो प्रसार हुआ उसके विषय में खोज करने से पता चलता है कि बाली द्वीप में लोगों का विश्वास है कि हिंदेशिया के राजाओं की लक्ष्मी उनकी रानी के रूप में रहती थीं परंतु उनका जब विष्णु से प्रेम हो गया तो उस प्रेम के फलस्वरूप उनकी मृत्यु हो गई। उनको पृथ्वी में गाड़ने के पश्चात् उस स्थान पर कई प्रकार के पौधे जम गए। धान का पौधा उनकी नाभि से उत्पन्न हुआ। इस कारण वह सबसे श्रेष्ठ समझा जाता है (जे गोंडा-संस्कृत इन इंडोनेशिया, नागपुर-१९९२, पृ. १३२ तथा सिलवाँ लेबी श्री स्तव फ्राम वाली संस्कृत टेक्स्ट्स फ्राम बाली, बड़ोदा १९३३, पृ. २८)। सूडान में लक्ष्मी को धान को उत्पन्न करनेवाली देवी मानते हैं। वे स्वर्ग से इस पृथ्वी पर आती है। वे देवी हैं तथा विद्याधरों से उनका संबंध है। पानी तथा लक्ष्मी का योग है, इस कारण पृथ्वी पर उनका प्रभाव है जैसे गंधर्वों तथा यक्षों का (जे गोंडा-एसपेक्ट्स ऑफ विष्णुइज़म पृ. २२१)।

जावा में प्राचीन सुवर्ण आभूषणों पर श्री शब्द खुदा रहता है। इसकी खोदाई को देखकर ऐसा भान होता है जैसे कुंभ अथवा शंख हो। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि वहाँ के निवासी लक्ष्मी के विषय में और बातें तो भूल गए परंतु उनको सुवर्ण के देवता के रूप में केवल स्मरण करते रहे। प्राय: ऐसा होता है कि काल के प्रभाव से बहुत से देवताओं की पूजा लोप हो जाती है परंतु उसका कुछ अंश लोकाचार के रूप में रह जाता है जिस प्रकार आज भी भारत में आश्विन पूर्णिमा को उत्तर भारत के अनेक घरों में श्वेत वस्तु चंद्रमा के समक्ष रखी जाती है तथा इंद्र और लक्ष्मी को भोग लगाया जाता है परंतु इसके पीछे का इतिहास हम बिलकुल भूल गए हैं। हम यह नहीं जानते कि यह कौमुदी महोत्सव या कौमुदी मह का प्रतीक है।

डच गायना में जो भारतवासी हिंदू है उनके अब भी कुछ कुछ रीति रिवाज वैसे ही हैं जैसे हम लोगों के। वे भी दीवाली की रात्रि में दरिद्रा देवी को सूप बजाकर घर से निकालते हैं। विदेशों में भी लक्ष्मी का जो स्वरूप माना गया है उसे भी देखने से इसी बात की पुष्टि होती है। पूर्व में ये कोई यक्षिणी थीं। कदाचित् इनका नाम मदिरा देवी था जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। पीछे चलकर इनका संबंध वैदिक शब्द श्री तथा लक्ष्मी से जोड़ दिया गया तथा इस प्रकार वे पुरुष की और बाद में विष्णु की पत्नी हो गई। ये शब्द वैदिक काल में केवल विभूतियों के द्योतक थे। इन देवियों से इनका कोई संबंध न था। उत्तर और वैदिक काल में इनकी समुद्र से उत्पत्ति की कथा भी जुड़ गई जो किसी प्राचीन गाथा पर आधारित ज्ञात होती है। क्योंकि ऐसा अनुमान है कि प्रागैतिहासिक काल में सुवर्ण् पश्चिम भारत में समुद्र मार्ग से आता था तथा ओरंगी एक बंदरगाह था। समुद्र से धन तथा सुवर्ण आने के कारण यह मान लेना स्वाभाविक था कि लक्ष्मी का जन्म समुद्र से हुआ।

सं.ग्रं. - मोतीचंद : अवर लेडी ऑव ब्यूटी ऐंड अवंडंस (नेहरू अभिनंदन ग्रंथ, पृ. ४९७, ४९८), १९४९; जिम्मर : दि आर्ट ऑव इंडियन एशिय, फलक ३३ (वी); जे. गोंडा : ऐसेपेक्ट्स ऑव विष्णुइज़्म पृ. १९१, १९५, १९६, २२४; संस्कृत इंडोनेशिया, नागपुर : १९९२, पृ. १३२; नेने, गोपालशास्त्री : प्रति वार्षिक कथा संग्रह, काशी, १९३३ (द्वितीयो भाग:); विशाखदत्त: मुद्राराक्षस, अंक ३, ४, ५; ह्वीलर : दि इंडस सिविलिजेशन; वत्स, माधोस्वरूप : एक्सकवेशंस ऐट हडप्पा (खं. २, फलक ९५, सं. ३५२, ३९५-३९८, स्वस्तिक-फलक ९५ सं. ४१३ कमल); कुमारस्वमी : अर्ली इंडियन आइकोनाग्राफी, श्री लक्ष्मी ईस्टर्न आर्ट, खं. १ (जनवरी, १९२९), पृ. १७५; आर्केइक टेराकोटाज़ ७२, ७३, आपेकलेकजिग (१९२८); यक्षाज़ - खंड १, पृ. ३-४; वनर्जी : दि डवलपमेंट ऑव हिंदू आइकोनाग्राफी, पृ. १८३; गोविंदचंद : पारयूर य बीजू डॉ लांड प्रोतोहिस्तारिक, थेज, युनिवर्सिटी डु पारी (१९५५); माके : फरदर एक्सकवेशन ऐट मोहनजोदड़ो, फलक ८२, सं. १-२, फलक ९९, सं.ए; वत्स : एक्सकवेश्न ऐट हड़प्पा-फलक ९३, सं. ३१८; ग्रियर्सन, सर, जी.जे.आर.ए.एस., १९१०, पृ. २७०; बोआज़ाक, ई. : डिक्सियोनेर एटिमोलोजिक उला लांग ग्रेकर (१९२३) पृ. ५१३; फूशे आन दि आइन्सोनोग्राफी दी बुद्धाज नेटिविटी, आर्केयलाजिकल सर्वे ऑव इंडिया, मेमायर्स, ४६ (१९३६) पृ. २; लइक्नाग्राफी बुद्धिक डु लांड, खंड १, पृ. १२३; फर्गुसन : ट्री ऐंड सरपेंट वरशिप, पृ. २४४; बी.ए.गुप्त : हिंदू हालीडेज़ ऐंड सेरिमोनियल्स, कलकत्ता, पृ. ३६; कलकत्ता इंडियन म्युजियम, भारहुत खंभा ११०, २१०, १७७; वायु; विष्णु, रघुवंश, ५, ४, महाभारत, दीध्यनिकाय; वाल्मीकि रामायण, ऐतरेय ब्रा., तैत्तिरीय उप., तैत्तिरीय संहिता (वाजपेयी); श.ब्रा. कौशीतिकी ब्रा., अथर्व, वाजसनेयी; ई.। (राय गोविंदचंद्र)