रैदास तथा रैदासी संत रैदास या रविदास के विषय में प्रसिद्ध है कि इनका जन्म सं. १४७१ की माघी पूर्णिमा को, रविवार के दिन, मडु वाडीह (काशी) के निकटवर्ती लहरतारा तालाब के पास हुआ था। कहा जाता है, इन्होंने दीर्घजीवी होकर सं. १५९७ में किसी समय शरीर त्याग किया था। परंतु इसके लिए कोई ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं है और ये प्राय: संत कबीर के समकालीन मान लिए जाते हैं। भक्त व्यास जी (सं. १५६७-१६६९) ने इनका नाम स्वामी रामानंद के प्रसिद्ध शिष्यों में लिया है।
ये अधिकतर काशी में ही रहे किंतु इन्होंने दूर दूर तक बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली और बहुत से लोग इनके द्वारा प्रभावित होने लगे। प्रसिद्ध हिंदी कवयित्री मीराबाई की अनेक उपलब्ध पंक्तियों से प्रकट होता है कि इन्होंने उन्हें भी आध्यात्मिक प्रेरणा प्रदान की थी, यद्यपि इस बात के लिए अभी तक वैसे पुष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं जिनके आधार पर इन दोनों का प्रत्यक्ष मिलन सिद्ध किया जा सके। संत रविदास के अधिक शिक्षित होने का हमें कुछ भी पता नहीं चलता, किंतु इनकी प्राप्त रचनाओं के आधार पर इनके बहुश्रुत होने तथा अपने आत्मचिंतन एवं साधना द्वारा एक उच्च कोटि की योग्यता प्राप्त कर लेने की बात भली भाँति प्रमाणित हो जाती है।
ये हृदय के सच्चे थे और इन्हें तर्क वितर्क द्वारा उपलब्ध ज्ञान की अपेक्षा सत्य की यथेष्ट अनुभूतियों में ही कहीं अधिक आस्था रही। इनके अनुसार जब तक 'परम वैराग' की उपलब्धि नहीं हो जाती तब तक 'भगति' के नाम पर की जानेवाली सभी साधनाएँ व्यर्थ हैं। जब तक नदी समुद्र में जाकर प्रविष्ट नहीं हो जाती तब तक उसमें बेचैनी रहा करती है और उसमें लीन होते ही उसकी 'पुकार' मिट जाया करती है। संत रविदास ने 'सत्य' व 'राम' को अनिर्वचनीय माना है और उसे अक्षर एवं अविनश्वर भी कहा है। इन्होंने उस अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने 'अहं' के पूर्ण परित्याग तथा पूरी एकांतनिष्ठा को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया है। 'भक्तमाल' के रचयिता नाभादास के अनुसार इन्होंने सदाचार के उपदेश दिए जिन्हें नीरक्षीर विवेकवाले महापुरुषों तक ने अपनाया और भगवत्कृपा से अपनी जीवितावस्था में ही परम गति प्राप्त करके ये उच्च वर्गवालों द्वारा भी अभिनंदनीय बन गए। (छप्पय ५९)। संत रविदास की उपलब्ध बानियों का संग्रह प्रकाशित है और इनके एक 'प्रह्लादलीला' ग्रंथ का भी पता चलता है जिसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।
इनके बहुसंख्यक अनुयायी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, एवं राजपूताने तक पाए जाते हैं। ब्रिग्स साहब ने किसी ऐसे रैदासी संप्रदाय के अनुयायियों का पंजाब के गुड़गाँव एवं रोहतक जिलों में भी अच्छी संख्या में वर्तमान रहना लिखा है तथा उनका यह भी कहना है कि गुजरात के अंतर्गत वे लोग 'रविदासी' कहे जाते है। इस संबंध में कहा जा सकता है कि काठियावाड़ में जूनागढ़ से तीन मील की दूरी पर चाँवड़ स्टेशन के पास कोई 'रविदास कुंड' है जिसके आसपास रविदास के अनुयायियों की बस्ती का भी होना बतलाया जाता है तथा ऐसे ही किसी अन्य कुंड का कहीं राजपूताने में भी वर्तमान रहना प्रसिद्ध है। इसके सिवाय यह भी कहते हैं कि मद्रास प्रांतवाले 'तिरुपति' नामक तीर्थस्थान में बालाजी पर्वत के नीचे 'बैकुंठ कोल' कहे जानेवाले स्थान पर संत रविदास की कोई 'गद्दी' भी प्रतिष्ठित है तथा इनकी वहाँ पर एक समाधि भी पाई जाती है।
चमार जाति के बहुत से लोग ऐसे किसी संप्रदायविशेष के अनुयायी न होने पर भी अपने को 'रैदासी' कहते हैं। किंतु इन सभी को 'रैदासी' कह देना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता। ऐसे बहुत से लोग अपने को संत रविदास की जगह कई अन्य संतों के नाम से प्रचलित मतों का भी अनुयायी बतलाया करते हैं। इनमें से अनेक ऐसे मिलते हैं जो नानकपंथी व सिखधर्मावलंबी हुआ करते हैं, कुछ ऐसे होते है जो कबीरपंथी वा दादूपंथी कहे जा सकते हैं तथा इनमें से एक बहुत बड़ी संख्यावाले शिवनारायणी जैसे संप्रदायों के अनुयायी रूप में भी पाए जाते हैं। इनकी प्राय: अपनी धार्मिक मान्यताएँ रहा करती हैं, अपने पूज्य ग्रंथ होते हैं तथा इनके यहाँ अपनी परंपरा के अनुसार विविध कृत्य एवं पवित्र स्थानादि हुआ करते हैं। फिर भी, जहाँ तक इन सभी के साधारण सामाजिक जीवन अथवा वैसे विश्वासादि का प्रश्न है, इनमें से कोई भी एक वर्ग किसी अन्य से अधिक भिन्न नहीं जान पड़ता। इनके व्यवसाय या रहन सहन में भी प्राय: विशेष अंतर नहीं लक्षित होता।
सं.ग्रं. - 'रैदास जी की बानी' (प्रयाग); 'दि चमार्स' ले.जी.डब्लू. ब्रिग्स (कलकत्ता); 'भक्तमाल' (नाभादास)। (परशुराम चतुर्वेदी)