रेलवे बोर्ड भारत में रेल द्वारा यातायात १८५३ ई. में प्रारंभ हुआ था, किंतु रेलवे प्रशासन के लिए रेलवे बोर्ड गठित करने की बात बीसवीं शती के प्रारंभ में सोची गई। १९०१ ई. में भारत सरकार ने सर टॉमस रोबर्टसन को, जो ग्रेट नार्दर्न रेलवे, आयरलैड, के भूतपूर्व जनरल मैनेजर थे, भारतीय रेलवे का विशेष आयुक्त नियुक्त किया ताकि वे राज्य तथा कंपनियों द्वारा संचालित भारतीय रेलवे की कार्यप्रणाली और प्रशासन व्यवस्था की जाँच करें और भविष्य में उनके संचालन का तंत्र कैसा हो, इसका विशेष ध्यान रखकर प्रतिवेदन दें। २५ मार्च, १९०३ ई, को सर टॉमस ने प्रतिवेदन दिया। उनकी सिफारिश थी कि भारतीय रेलवे का प्रशासन तीन व्यक्तियों के एक बोर्ड द्वारा हो। उनमें से एक प्रधान आयुक्त, या अध्यक्ष, हो और दो अन्य आयुक्त हों। तीनों आयुक्तों को रेलवे कार्यप्रणाली का उत्तम व्यावहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। सर टॉमस का कथन था कि पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट द्वारा रेलवे का विभागीय प्रशासन होने के कारण रेल विभाग अन्य सरकारी विभागों जैसा ही है। बृहद् उद्योग संस्था के रूप में प्रशासित न होने के कारण इसके कर्मचारियों में आत्यंतिक स्वत:प्रेरण और उत्तरदायित्व की भावना नहीं है, जिसके कारण प्रगति कुंठित हो गई है और व्यापार में मंदी आ रही है। ये दोनों ही बातें किसी उद्योग संस्था के लिए घातक हैं।
सर राबर्टसन की रिपोर्ट से ये प्रश्न उठ खड़े हुए कि रेलवे बोर्ड सरकारी निकाय होगा या गैरसरकारी, इस बोर्ड का कोई सचिव होगा या नहीं, बोर्ड भारत सरकार को कैसे संबोधित करेगा और सरकार का कौन सा अधिकारी बोर्ड के व्यापार की देखरेख करेगा। फलस्वरूप १९ फरवरी, १९०५ ई. को भारत सरकार के प्रस्ताव से रेलवे बोर्ड गठित हुआ और इसे इंडियन रेलवे बोर्ड ऐक्ट १९०५ ई. (१९०५ ई. का ४) [इंडियन रेलवे ऐक्ट १८९० ई. (१८९० ई. का ९) के साथ पढ़िए] के अंतर्गत सांविधिक अधिकार दिए गए। भारतीय रेलवे का नियंत्रण भारत सरकार के पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट की रेलवे शाखा से लेकर, दो सदस्यों और एक अध्यक्ष वाले रेलवे बोर्ड को अंतरित कर दिया गया। रेलवे बोर्ड की सभी समस्याओं के संबंध में अध्यक्ष को अपने विवेक पर कार्य करने का अधिकार दिया गया। अध्यक्ष पर प्रतिबंध था कि वह बोर्ड का अनुमोदन प्राप्त करे। रेलवे बोर्ड वाणिज्य और उद्योग विभाग के अंतर्गत भारत सरकार के प्रति उत्तरदायी तथा अधीनस्थ बना दिया गया।
मार्च, १९०५ ई., में रेलवे बोर्ड का कार्यारंभ हुआ। रेलवे बोर्ड के गठित होने के कुछ ही समय बाद यह अनुभव किया जाने लगा कि चेयरमैन के अधिकार सीमित होने के कारण और परिषद में गवर्नर जनरल और बोर्ड के बीच वाणिज्य तथा उद्योग विभाग के हस्तक्षेप के कारण अड़चनें उत्पन्न हो रही हैं। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए अक्टूबर, १९०८ ई., में भारत सरकार ने निश्चय किया कि रेलवे बोर्ड के चेयरमैन पद को अध्यक्ष पद में परिणत कर दिया जाए और अध्यक्ष को अपने सहयोगियों की राय के विरुद्ध व्यवस्था करने का अधिकार दिया जाए। ऐसी स्थिति में सहयोगियों को सरकार के सामने अपने विचारों को रखने का अधिकार दिया गया।
कर्मचारीवर्ग सहित रेलवे बोर्ड रेलवे विभाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह विभाग सरकार के वाणिज्य और उद्योग विभाग से भिन्न और स्वतंत्र था। बोर्ड का अध्यक्ष गवर्नर जनरल और कार्यकारी परिषद् के वाणिज्य और उद्योग से संबंधित सदस्य से इस प्रकार सीधा संबंध स्थापित कर सकता था, मानो वह भारत सरकार का सचिव ही हो।
१९१४ ई. में देखा गया कि भारतीय रेल-नीति निर्धारण में वित्तीय और वाणिज्य संबंधी दृष्टिकोण भी आवश्यक है, अत: इस विधान में कि अध्यक्ष और सदस्यगण रेल की कार्यप्रणाली जानते ही हों, सुधार आवश्यक समझा गया। निश्चय यह हुआ कि वाणिज्य संबंधी और वित्तीय अनुभव प्राप्त सदस्य भी बोर्ड में शामिल कर लिए जाएँ। यह व्यवस्था १९२० ई. में पुन: बदली गई और तीनों सदस्यों के लिए रेल संबंधी अनुभव आवश्यक माना गया, साथ ही वित्तीय मामलों में बोर्ड को परामर्श देने के लिए एक वित्त सलाहकार का पद बनाया गया। १९२० ई. में ७३ प्रतिशत रेलमार्ग सरकारी था और १५ प्रतिशत रेलमार्ग, जो ३७,००० मील से कुछ ही अधिक होता था, निजी कंपनियों का था। शेष रेलमार्ग देशी राज्यों की संपत्ति था। लेकिन सरकार केवल २१ प्रतिशत रेलमार्ग का ही संचालन करती थी और कंपनियाँ ७० प्रतिशत का। इन ब्रिटिश कंपनियों के निर्देशक लंदन में रहते थे। भारतीय रेलवे कंपनियों का लंदन स्थित ब्रिटिश बोर्ड द्वारा प्रबंध किए जाने की आलोचना होने लगी। यह अनुभव किया गया कि सरकारी प्रबंध देशी उद्योगक्षमता के विकास के अनुकूल होगा। इस प्रबंध से घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन मिलने की भी संभावना थी। इस आलोचना के कारण १९२० ई. में सरकार ने इंडियन रेलवे कमेटी नामक समिति गठित की। इसके अध्यक्ष सर विलियम आकवर्थ (Sir W.Acworth) थे। समिति का उद्देश्य प्रबंध, वित्त और भावी नियंत्रण तथा रेलवे संघटन संबंधी मामलों की जाँच था।
समिति के सुझावों के अनुसार रेलवे का कार्यकारी नियंत्रण रेलवे के प्रधान आयुक्त को सौंपा गया। प्रधान आयुक्त तकनीकी समस्याओं का समाधान करता और रेलवे के बारे में सरकार को परामर्श देता था। आकवर्थ कमेटी का सुझाव था कि प्रधान आयुक्त और अन्य आयुक्तों के साथ ही बोर्ड में एक वित्त आयुक्त की नियुक्ति आवश्यक है। फलस्वरूप अप्रैल, १९२३ ई., में वित्त आयुक्त का पद स्थापित हुआ। वित्त आयुक्त को सरकारी तौर पर रेल विभाग के आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप करने और बोर्ड के सदस्य के रूप में वित्त नियंत्रण के सभी अधिकार थे। मतैक्य के अभाव में प्रधान आयुक्त सहसदस्यों के विरुद्ध व्यवस्था कर सकता था, किंतु वित्त आयुक्त ऐसी स्थिति में कार्यकारिणी परिषद् के वित्तसदस्य के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत कर सकता था।
इस प्रकार रेलवे बोर्ड प्रधान आयुक्त, वित्तआयुक्त और दो सदस्यों से गठित हुआ। प्रधान आयुक्त पदेन (ex-officio) रेल विभाग में भारत सरकार का सचिव होता था। दो सदस्यों में से एक तकनीकी मामलों में दखल देता था और दूसरा प्रशासन, कर्मचारी वर्ग और संचार संबंधी मामलों में।
१९२४ ई. में पुनर्गठन हुआ। इसका उद्देश्य प्रधान आयुक्त और बोर्ड के अन्य सदस्यों को विभाग के छोटे छोटे कामों से मुक्त करना था, ताकि वे बड़ी समस्याओं में अपना सारा ध्यान लगाएँ। इसके लिए बोर्ड की प्रत्येक शाखा, जैसे सिविल इंजीनियरी, मिकैनिकल इंजीनियरी, संचार और सिंब्बंदी (establishment) का एक एक निदेशक नियुक्त किया गया।
१९२५-२६ ई के पूर्व तक मजदूरों की समस्याओं का हल सिब्बंदी से संबंधित सदस्य ही करता था, किंतु अब मजदूर इतने बढ़ गए थे, उनकी समस्याएँ इतनी अधिक और इतनी जटिल हो गई थीं कि एक ही सदस्य के लिए मजदूर और सिब्बंदी का काम देखना कठिन हो गया था। अत: इस वर्ष कर्मचारी वर्ग की समस्याओं को सुलझाने के लिए बोर्ड में एक नया सदस्य रखा गया, ताकि सिब्बंदी का सदस्य मनोयोगपूर्वक अपना काम कर सके।
१९३८ ई. में भारत सरकार ने संचार विभाग का गठन किया और कार्यकारिणी परिषद् के संचार सदस्य को रेलवे बोर्ड का चार्ज दिया गया। संचार विभाग का सचिव पदेन रेलवे बोर्ड का सदस्य होता था। युद्धसंचार विभाग बन जाने पर, रेलवे बोर्ड परिषद् के युद्धसंचार सदस्य के अधीन हो गया और संचार विभाग के सचिव का स्थान युद्धसंचार विभाग के सचिव ने पदेन सदस्य के रूप में ग्रहण कर लिया। यह व्यवस्था १९४७ ई. तक चली। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद रेल यातायात और संचार मंत्रालय एक ही मंत्री (रेल और यातायात मंत्री) के अधीन हो गया।
अप्रैल, १९५१ ई., में बोर्ड के संगठन में परिवर्तन हुआ। प्रधान आयुक्त का पद स्थगित कर दिया गया। बोर्ड का एक कार्यकारी सदस्य रेलवे बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया। यह अध्यक्ष रेल मंत्रालय में भारत सरकार का पदेन सचिव होता था। अब बोर्ड में अध्यक्ष सहित कुल तीन कार्यकारी सदस्य रह गए, जिनके नाम क्रमश: इंजीनियरी, कर्मचारीवर्ग और संचार कार्यभारी थे। वित्त आयुक्त का विशेषाधिकार वरकरार रहा और वह आर्थिक मामलों में भारत सरकार के रेल मंत्रालय में पदेन सचिव के हैसियत का होता था।
प्रत्येक कार्यकारी सदस्य अपने कार्यभार के तकनीकी विषय के हर पहलू के व्यवहार और निर्देश के महत्व एवं लक्षण के अनुसार रेल प्रशासन को, जनरल मैनेजर या रेल के विविध तकनीकी विभागीय प्रधानों द्वारा, तकनीकी निर्देश देने का उत्तरदायी होता था। प्रधान आयुक्त विभागीय कार्यभारी न होने पर भी बोर्ड की वैठकों की अध्यक्षता, समस्त कार्यकारी परिवीक्षण और काम का समन्वय करता था। इसके विपरीत रेलवे बोर्ड का नवीन पदनामित अध्यक्ष विभागीय कार्यभारी भी होता था।
अक्टूबर, १९५४ में रेलवे बोर्ड में एक सदस्य की वृद्धि हुई। प्रधान आयुक्त, (जो पद १९५१ से स्थगित था) के अधिकार और कार्य रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष में निहित हुए। १८ अगस्त, १९५८ से अध्यक्ष पदेन भारत सरकार का सचिव होगा और बोर्ड के अन्य सभी सदस्य अपने अपने क्षेत्र में सरकार के पदेन सचिव पदनामित किए गए।
जून, १९५६ में द्वितीय पंचवर्षीय योजना से उत्पन्न अतिरिक्त कार्य और उत्तरदायित्व को ठीक ठीक निभाने के लिए जनरल मैनेजर, रेलवे, के पद और हैसियत के पाँच अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किए गए। ये बोर्ड के सदस्यों की सहायता करते हैं। (क) वर्क्स, (ख) मिकेनिक्स, (ग) वाणिज्य, (घ) कर्मचारी वर्ग तथा (ङ) वित्त से संबंधित मामलों के कार्यभारी हैं। ये अतिरिक्त सदस्य साधारणतया बोर्ड की बैठकों में भाग नहीं लेते। ये तभी भाग ले सकते हैं, जब उनसे संबंधित विभाग के मामले की चर्चा हो और वे निमंत्रित हों।
१८ अप्रैल, १९५७ से रेलवे बोर्ड रेलमंत्री के अधीन हो गया। रेलवे बोर्ड को कई तकनीकी अफसरों की सहायता मिलती है। इन अफसरों को निदेशक पदनामित किया गया है। प्रत्येक निदेशक एक निदेशालय का कार्यभारी है। निदेशक बोर्ड की नीति को कार्यान्वित करता है और ऐसे मसलों को बोर्ड में पेश करता है जिनपर बोर्ड का निर्णय आवश्यक है। निदेशक ही रेलवे प्रशासन संबंधी अनुदेश जारी करता है। सहनिदेशक निदेशक की सहायता करते हैं। निदेशालय के पद और पदक्रम की संख्या कार्य के परिमाण और महत्व पर निर्भर है।
रेलवे बोर्ड का सचिव, जो निदेशक की हैसियत का अफसर है, बोर्ड की शाखाओं के बीच समन्वय, रेलमंत्रालय और अन्य मंत्रालयों के बीच चालू संबंध और साधारण कार्यसंचालन का उत्तरदायी है। इसके अतिरिक्त यह बोर्ड के सचिवालय में सिब्बंदी के सभी पदक्रमों के मामलों में और राजपत्रित कर्मचारी वर्ग के कुछ विशिष्ट मामलों में दखल देता है। रेलवे बोर्ड के सचिव को इंडियन रेलवे बोर्ड ऐक्ट, १९०५ (१९०५ का ४), की धारा ३ के अंतर्गत रेलवे बोर्ड की ओर से मंजूरी देने और सभी आवश्यक कार्यवाही करने का अधिकार है।
रेलवे बोर्ड भारत सरकार के सचिवालय की हैसियत से काम करता है और वह रेलवे के नियंत्रण, निर्माण, देखभाल और संचालन के संबंध में केंद्रीय सरकार के सभी अधिकारों का उपयोग कर सकता है। रेलमंत्री मंत्रालय का कार्यभारी है। रेलमंत्री के दो सहायक हैं। रेलवे के संगठन में वित्त आयुक्त की नियुक्ति के कारण बोर्ड रेलवे खर्च के संबंध में भारत सरकार के अधिकारों का पूरा पूरा उपयोग करता है। ये अधिकार इंडियन रेलवे ऐक्ट १८९०, इंडियन रेलवे बोर्ड ऐक्ट, १९०५ और संविधान की व्यवस्था से व्युत्पन्न हैं। रेलवे बोर्ड सिब्बंदी और रेल-कर्मचारी-वर्ग के मामलों में व्यापक अधिकारों का उपयोग करता है।
वर्तमान रेल मंत्रालय जनता की माँग और सरकार की आवश्यकताओं के परिवर्तनशील प्रतिरूप के फलस्वरूप बना है। रेलवे बोर्ड का वर्तमान संविधान उसे रेल-नीति-निर्धारण एवं कार्यान्वयन करने की और रेलवे को वाणिज्य तथा लोकोपयोगी बनाकर बड़े उद्देश्य में देश की सेवा करने की पूरी स्वतंत्रता देता है। (धर्मचंद्र बैजल)