रेलमार्ग, हलके (Light Railways) उन रेलमार्गों को कहते हैं जो सस्ते ढंग से हलकी रेल द्वारा बनाए जाते हैं। किसी भी क्षेत्र में जब तक परिवहन साधनों की कमी रहती है, उसका विकास सीमित रहता है। अत: रेलमार्ग के प्रथम निर्माण के समय किसी क्षेत्र में यातायात की मात्रा कम ही होती है। रेलमार्ग के निर्माण के बाद शनै: शनै: क्षेत्र का विकास होता है और यातायात में वृद्धि होती है। अत: आरंभ में रेलमार्ग के परिचालन में लाभ संतोषजनक होने के लिए यह अति आवश्यक है कि उसमें कम पूँजी लगाई जाए और उसका संचालन व्यय भी कम हो। यातायात की मात्रा में कमी के कारण उस समय न तो तीव्र गति की ही इतनी आवश्यकता होती है और न ही अधिक सुविधाओं का दिया जाना महत्वपूर्ण है। सुविधारहित, धीमी चालवाली रेलगाड़ी, उसके न होने से तो कहीं अच्छी है। पूँजी की लागत कम करने के लिए निर्माणव्यय में जितनी कमी हो सके, की जाती है। इसके लिए हलकी पटरियों और हलके इंजिनों तथा गाड़ियों को व्यवहार में लाया जाता है। उतार, चढ़ाव और घुमाव में कमी की ओर, जिससे भराई और कटाई का खर्च बढ़ता है, ध्यान नहीं दिया जाता और लाइन को धरती की ढाल के अनुसार न्यूनतम कटाई भराई करके बिछा दिया जाता है। यदि संभव हो तो लाइन को किसी सड़क के किनारे किनारे बिछा दिया जाता है। स्टेशनों की इमारतों, यार्डों की बनावट तथा पुलों इत्यादि के निर्माण का खर्च भी कम से कम रखना आवश्यक है। संचालनव्यय को कम करने के लिए कर्मचारी आवश्यकतानुसार कम से कम रखे जाते हैं तथा गाड़ियों की धीमी चाल के कारण सिगनल तथा अंतरपाशण पर भी व्यय कम किया जाता है। इस प्रकार हलके रेलमार्ग, लाभ हानि को ध्यान में रखते हुए, किसी भी क्षेत्र के विकास में बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं।
पहाड़ी प्रदेश मे साधारण रेलमार्गों की अपेक्षा हलके रेलमार्ग बनाने में सुविधा भी होती है और व्यय भी कम होता है। वहाँ मैदानी प्रदेश की अपेक्षा ढाल अधिक सलामी के और मोड़ कम त्रिज्या के रखने पड़ते हैं। इसलिए वहाँ के लिए हलके रेलमार्ग ही अधिक उपयुक्त होते हैं। दार्जीलिंग, काँगड़ा, शिमला और ऊटकमंड में हलके रेलमार्ग ही बनाए गए हैं।
रेल की लाइन का भार घटाने से उसकी उपयोगी आयु, कड़ेपन तथा धारण शक्ति में काफी कमी हो जाती है। रेल का मूल्य उसके भार पर निर्धारित होता है, जो चौड़ाई और ऊँचाई के अनुसार घटता बढ़ता है, पर उसका कड़ापन चौड़ाई�(ऊँचाई)३ के अनुपात में बदलता है। धारण शक्ति चौड़ाई�(ऊँचाई)२ पर निर्भर होती है। भारी रेल की आयु भी उसके मूल्य के अनुपात में कई गुना बढ़ जाती है। साथ ही अधिक कड़ेपनवाली रेलों की देखभाल में भी कम खर्च होता है, क्योंकि उनकी सिघाई और पैकिंग आसानी से गड़बड़ नहीं हो पाती। उपर्युक्त कारणों से रेलभार में कमी करने से आरंभिक बचत तो हो जाती है, पर मरम्मत, देखभाल, तथा रेलों के शीघ्र बदलने की आवश्यकता के कारण संचालनव्यय बहुत बढ़ जाता है और अंत में यह बचत बहुत महँगी पड़ती है। अत: विशेषज्ञों का कहना है कि रेलमार्गों में लगाए धन में थोड़ी बचत के लिए रेलभार में कमी करना अच्छा सिद्धांत नहीं है, क्योंकि यह बचत सामयिक ही होती है। अत: अपनी लभ्य पूँजी का ध्यान रखते हुए, जितनी अधिक भारी रेलें उपयोग में लाई जा सकें लगानी चाहिए।
अधिकांश लोगों की धारणा है कि हलके रेलमार्ग छोटे गेज़ (दो पटरियों के बीच की चौड़ाई) के ही बनने चाहिएँ, क्योंकि छोटे गेज की लाइनों में कम पूँजी लगती है। पर यह धारणा भ्रांतिपूर्ण है। जहाँ तक स्टेशन, सिगनल, तार, टेलीफोन तथा कर्मचारियों का खर्च है, वह तो उतना ही होगा चाहे लाइन छोटी हो, या बड़ी। पुलों इत्यादि के खर्च में भी कोई विशेष कमी नहीं होती, क्योंकि पुलों का आकार नदी के बहाव पर निर्भर करता है, या इंजन के धुरी भार पर, और एक निश्चित भार खींचने के लिए छोटे इंजन का धुरी भार भी अधिक ही रखना पड़ेगा। यदि थोड़ी बहुत कमी हो सकती है, तो वह जमीन खरीदने में, या मिट्टी की कटाई भराई में हो सकती है। रेल का भार भी इंजिन के धुरीभार पर ही निर्भर करता है। वैसे यह ऊपर दिखाया ही जा चुका है कि रेलभार पर की हुई बचत अस्थायी होती है। इस कारण जहाँ तक पूँजी की लागत का सवाल है, उसमें बहुत कम अंतर पड़ता है। इसके विपरीत छोटे गेज की लाइनों पर बड़े गेज की लाइन पर ढोए जानेवाले माल के बराबर माल ढोने के लिए अधिक गाड़ियों की आवश्यकता होती है। किसी भी भार को ढोने के लिए समान शक्ति आवश्यक है, चाहे वह छोटी गाड़ियों में ढोया जाए, चाहे बड़ी में। बड़ी लाइन के इंजनों के समान ही भार ढोने के लिए छोटी लाइन के इंजन भी, या तो उतने ही अधिक शक्तिशाली बनाने पड़ेंगे, या फिर उनकी संख्या बढ़ानी पड़ेगी। इसी प्रकार यदि छोटे डिब्बों का मूल्य कम होता है, तो उनमें माल भी कम भरा जा सकता है। अत: बड़े डिब्बों के मुकाबले एक निश्चित माल के लिए छोटे डिब्बों की संख्या कहीं अधिक होती है और इसमें परिचालन व्यय बढ़ जाता है। इस कारण अनुभव से ज्ञात हुआ है कि किसी भी वस्तु के परिवहन के लिए बड़ी लाइन छोटी लाइन से सस्ती पड़ती है (जब तब यातायात की मात्रा बहुत ही कम न हो) और हलके रेलमार्गों के लिए भी बड़े गेज का ही उपयोग होना चाहिए। इससे जंक्शनों पर छोटे से बड़े डिब्बे में बदलने का व्यय भी बच जाता है।
यह अवश्य है कि रेलों के प्रचलन के आरंभ में मान्य धारणा इसके विपरीत थी और लोग समझते थे कि छोटी लाइन का संचालन सस्ता रहता है। यही कारण है कि अधिकांश हलके रेलमार्गो में छोटी लाइनों (२ फुट ६ इंच तथा २ फुट गेज) का ही प्रयोग हुआ है पर कही कहीं मीटर गेज (३ फुट ९ इंच) के हलके रेलमार्गों का भी निर्माण हुआ है। उदाहरणार्थ, भारत में ही उदयपुर-चित्तौड़गढ़ लाइन आरंभ में हलके रेलमार्ग के सिद्धांत पर ही बनी थी। पर ऐसे उदाहरण कम ही हैं। छोटी लाइन के इतिहास और प्रगति को ही हलके रेलमार्ग का इतिहास और प्रगति मान सकते हैं।
भारत में हलके रेलमार्ग का प्रचलन १९वीं शताब्दी के अंतिम भाग में हुआ था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब अंग्रेजी सत्ता की नींव सुदृढ़ हो गई, तब रेल, तार इत्यादि के क्षेत्रों में उन्नति की ओर कदम उठाए गए। आरंभ में यातायात के विकास के लिए निजी कंपनियों को एक निश्चित लाभ की गारंटी देकर हलके रेलमार्ग बनवाए गए। इन निजी कंपनियों में मुख्य उल्लेखनीय मार्टिन तथा मैक्लियाड कंपनियाँ हैं और इन कंपनियों की अभी भी कई लाइनें चालू हैं। पश्चिमी भारत तथा मध्य भारत में कुछ रियासतों ने भी अपनी-अपनी रियासत का विकास करने के लिए हलके रेलमार्ग बनवाए थे।
सबसे पहली छोटी लाईन १८७३ ई. में गायकवाड़ (बड़ौदा) रियासत ने २०.०१ मील की लंबाई की, मियागन से डभोई तक, बनवाई थी। १८७९ से १८८१ ई. तक इसमें ३८.७५ मील की लाइन और बढ़ा दी गई। इन्हीं दो वर्षों में दार्जीलिंग-हिमालयन रेल की ५०.७५ मील लंबी लाइन भी खुली (छोटी लाइन होने पर भी इसकी हलके रेलमार्गों में नहीं गिना जाता)। इस प्रकार १८८० ई. तक छोटी लाइनों की लंबाई केवल लगभग १०० मील थी। अगले १० वर्षों में यह बढ़कर २५० मील हो गई और सन् १८९५ तक इतनी ही रही। इसके बाद निजी कंपनियों की लाइनें खुलने लगीं और १९०३ ई. तक छोटी लाइनों की लंबाई १,००० मील से ऊपर पहुँच गई तथा बाद में भी सन् १९३१ तक इनकी लंबाई बराबर बढ़ती ही रही। उस समय यह लंबाई ४,००० मील से ऊपर थी। सन् १९३१ में बाजार मंदा पड़ जाने के कारण कंपनियों की आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने लगी और रलों की प्रगति रुक गई।
द्वितीय महायुद्ध में रेल की लाइनों तथा अन्य उपस्करों की आवश्यकता के कारण कई छोटी लाइनें उखाड़ ली गई। इसके बाद १९४७ ई. में भारत के स्वतंत्र होने के बाद यद्यपि हर क्षेत्र में प्रगति हुई, तथापि छोटी लाइनों का प्रचलन कम हो गया। इसका मुख्य कारण सड़कों का विकास तथा मोटरों के व्यवहार में उन्नति है। जो हलके मार्ग चालू हैं, वे भी तीव्र गति की बसों और ट्रकों से प्रतियोगिता में पिछड़ते जा रहे हैं और ऐसा लगता है कि वे शीघ्र ही लुप्त हो जाएँगे। आज की तेजी की दौड़ में जब हरेक तेज से तेज रफ्तार से चलना चाहता है, जनता समझती है कि छोटी और हलकी लाइनों का जमाना गुजर गया और उसकी माँग दिन प्रतिदिन बड़ी लाइनों के लिए बढ़ती जाती है।
जो लाइनें कंपनियों द्वारा ठीक प्रकार संचालित नहीं हो रहीं थीं, उनको अवधि समाप्त होने पर, सरकार लेती रही है। साथ ही रियासतों के भारत में विलीन हो जाने के कारण रियासतों की रेलें भी सरकारी हो गईं। इस समय भारत में लगभग ३,११३ मील लंबाई की छोटी लाइनें हैं, जिनमें २,६६९ मील सरकारी हैं तथा ४४४ मील गैरसरकारी हैं।
जैसे जैसे लाइनें तथा इंजन पुराने होते जा रहे हैं, उनका संचालन व्यय भी बढ़ता जाता है। यहाँ तक कि एक समय में आय से भी अधिक हो जाता है और लाइनों से लाभ के बजाय हानि होने लगती है। जहाँ तक कंपनियों की लाइनों का प्रश्न है, जब तक उन्हें उनसे लाभ है वे उन्हें चला रहे हैं, पर जब हानि होने लगती है, तो या तो उन्हें सरकार ले लेती है, या वे बंद हो जाती हैं, क्योंकि उनके स्थान पर परिवहन के अधिक तेज और उत्तम साधन आ गए हैं।
किंतु इन लाइनों को बंद करने, या हानि पर चलाने के स्थान पर, यदि इनका उत्तम रूप से संचालन किया जाए और पुराने तथा जर्जर इंजनों के स्थान पर तेज तथा आधुनिक डीज़ल इंजन लगाए जाएँ, तो इनसे अभी भी काफी काम लिया जा सकता है। मोटर सवारी से यह कहीं सस्ती पड़ती है। डीज़ल इंजन जितना माल ढो सकते हैं, उतना ही माल ढोने के लिए मोटर गाड़ी में १० गुना डीज़ल तेल अधिक खर्च होता है। वैसे तो, जैसा पहले कहा गया है, बड़ी लाइन द्वारा परिवन सस्ता पड़ता है, पर जब ये हलकी लाइनें बनी हुई हैं तो इनसे काम लेकर इनको बड़ी लाइन में बदलने के लिए लगनेवाली राष्ट्र की एक बड़ी पूँजी बचाई जा सकती है। छोटी लाइनों के संचालन में एक लाभ यह भी है कि बड़ी लाइनों से घिसकर निकली हुई रेलें यहाँ आसानी से व्यवहार में लाई जा सकती हैं, जो उन्हें कम खर्च पर ही सुदृढ़ और तीव्र गति के योग्य बना सकेंगी।
सं.ग्रं. - हिस्ट्री ऑव इंडियन रेलवेज़ बाइ मिनिस्ट्री ऑव रेलवेज़ (रेलवे बोर्ड); मिल्स : रेलवे कंस्ट्रक्शन (१८९८), ए.एम. वेलिंगटन : एकोनॉमिक थ्योरी ऑव दि लोकेशन ऑव रेलवेज़ (१८९३)। (आ.भू.)